पटना /बड़े दिनों के बाद विश्राम के इतने लम्बे दिन मिले हैं। यों तो ‘कोरोना‘ ने पूरे विश्व में कोहराम मचा दिया है, अबतक बीस हज़ार से अधिक लोग काल के गाल में समा गए हैं, चार लाख से अधिक लोग इस क्षुद्र जीवाणु से ग्रस्त हो चुके हैं, मुझे वर्षों बाद आराम मिला है। अब पढ़ने के लिए भी अवकाश है और लिखने के लिए भी। विगत कुछ वर्षों से पढ़ने–लिखने के लिए भी अवकाश नही होते थे। यात्रा में ही पुस्तक खोल पाता था। मुश्किल से कभी कुछ लिखने का अवसर मिलता था। अब पूरा समय है। अभी वे पुस्तकें पढ़ रहा हूँ, जिन्हें पढ़ने की पुरानी इच्छा भी पूरी नही हो पा रही थी।
‘कोरोना‘ आने से कुछ दिन पहले एक गीत लिखा था– “आज कहीं भी नही हम जाएँगे/ बस हँसेंगे और मुस्कुराएँगे/ छत पर सुबह की खिली धूप होगी/ बात सूरज से भी मेरी ख़ूब होगी/ दिल की बातें उसे ही सुनाएँगे/ आज कहीं भी नहीं हम जाएँगे–”। ज्ञात नहीं था कि इतनी शीघ्रता से ऐसे अनेक दिन आएँगे!
प्रति दिन नवल सूर्य के साथ प्रातः अपने छत पर चला जाता हूँ। छत पर लगाई गई बाग़वानी में पौधों को पानी देता हूँ। फिर उनके निकट बैठ कर ‘योग‘ करता हूँ। आसन, प्राणायाम और किंचित ध्यान भी! सूरज की तरफ़ पीठ कर समाचार–पत्रों का अवलोकन और फिर इच्छित पुस्तक का अध्ययन करता हूँ। इनमे ‘सामवेद‘, ‘गीता‘, ‘उपनिषद‘ और पुराण कथाएँ सम्मिलित हैं। कोई दो घंटे ऊपर व्यतीत कर, अपने कक्ष में लौटता हूँ। स्नान–ध्यान के पश्चात बच्चों के साथ सुबह का नाश्ता करता हूँ। पुत्री अनामिका अपने पति के साथ मुंबई में है। तीनों पुत्र आकाश,आभास और अहसास साथ में हैं। हमारी अन्य दो पुत्रियाँ (बहुएँ) – आकाश की पत्नी ‘मेनका‘ और सद्य: परिणिता आभास की पत्नी ‘रजनी‘तथा दोनों पौत्र ‘उत्तर उत्तरायण‘ और ‘कीर्त्यादित्य‘ मे
वर्षों बाद इन दिनों दो पहर के भोजन के पश्चात एक नींद ले पा रहा हूँ। भोजनोपरान्त दो से चार बजे तक एक गहरी नींद लेकर पुनः छत पर चला जाता हूँ। सूर्य के ढलने के साथ ही स्वाध्याय का कार्य ठहरता है। कुछ देर संध्या–सुंदरी को आँखों में बसाए छत पर टहलता हूँ। किसी–किसी दिन सभी बच्चे ऊपर छत पर मेरे साथ बैठते हैं। उन्हें योग, प्राणायाम और ध्यान के महत्त्व के साथ शिक्षा देता हूँ। दोनों पुत्रियाँ ( बहुएँ) अधिक मनोभाव से सुनतीं, समझतीं और किंचित अभ्यास भी करती हैं।
नीचे उतरकर भेंट–कक्ष में बैठता हूँ, जहाँ अभी कोई नही आता। आ भी नही सकते! मुख्य–द्वार ही बंद रहता है। मेनका और रजनी नास्ते और चाय (मेरे लिए काली) लिए उपस्थित हो जाती हैं। आदतन सबको पास बैठाकर उपदेश देता हूँ। ठीक से कह नही सकता कि उनका प्रभाव कितना है! संभव है, विकल्प नही होने के कारण और सम्मान देने के भाव से, सब गंभीरता से सुनते हों। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सब के सब बड़े दिनों के बाद निकट का आत्मीय सान्निध्य प्राप्त कर रहे हैं।
यदि ऐसा ही हर परिवार में हो रहा है, तो हम कह सकते हैं कि हम कुछ महीनों में एक नया और सुकून भरा संसार देखेंगे। एक नयी समझ, सोंच और दृष्टि से युक्त एक नूतन संसार का चित्र मेरे समक्ष उपस्थित हो रहा है। एक ऐसे संसार का चित्र जो संपूर्ण मानव–जाति को एक नई दिशा देगा! यह बदली हुई स्थिति एक बार पुनः इस विचार की पुष्टि करती है कि, जब हम पर आचार्यों की शिक्षा और उपदेशों का प्रभाव नहीं होता, हमारे शास्त्र अप्रासंगिक मान लिए जाते हैं और परिस्थियाँ अनियंत्रित होने लगती है, तब प्रकृति अपने आचरण से, हमें वह सब कुछ सिखला देती है। ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ और अहंकार में डूबा संसार अब ‘एक‘ होना चाहता है। संपूर्ण वसुधा एक हो रही है। भारत की वह महान धारणा ‘वसुधैव कटुंबकम‘ अब चरितार्थ होने को है!