पटना – प्रार्थना हमारे जीवन का सुरक्षा कवच प्रार्थना से हमें सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। अगर आस्था जाग्रत है तो प्रार्थना हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। प्रार्थना के कई रूप हैं, जिसे हर व्यक्ति अपने अपने ढंग से करता है और जिससे हमें अव्यक्त सहारा मिलता है। हरेक व्यक्ति अपने जीवन में उतार-चढ़ाव से गुजरता है। जीवन के सफर में कहीं-न-कहीं एक ऐसा मोड़ आ ही जाता है जब व्यक्ति बिल्कुल दिशा-विहीन हो चुका होता। ऐसे में दिल से एक आवाज आती है कि “कौन कहता है सर्वशक्तिमान या सुप्रीम-पावर नजर नहीं आता, बल्कि जब कोई नजर नहीं आता तो एक वो ही नजर आता है।“ जिसकी जैसी आस्था होती है वैसी ही प्रार्थना के लिए की गई कोई-न-कोई व्यक्तिगत स्वतःक्रिया होती है। प्रार्थना करना एक ऐसी मानसिक अवस्था है जब हमारे और परम शक्ति के बीच एक अद्भुत घटना घटती है जहाँ हमारे और उस परम ब्रंह्मांडीय शक्ति के बीच कुछ आदान-प्रदान की क्रिया होती है। यह वह समय होता है जब हम अपने सुख-दुख, ख़ुशी-दर्द, हर्ष-विषाद सब निराकार स्वरूप को सौंप देते हैं और यही शक्ति हमारे बीच ईश्वर के रूप में उपस्थित हो जाती है। यह पूर्णतः अनुभूत क्रिया होती है चाहे वो व्यक्ति आस्तिक हो या नास्तिक।
इंसान जब अंदर से टूट-सा जाता है तब वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर जिंदगी की राह मे आए तूफ़ानों से विचलित हो जाता है। उसे तनाव, घुटन, अवसाद सब पल-पल के साथी बनकर परेशान करते रहतें हैं तब उसके लिए उस घुप्प अंधकार की स्थिति को स्वीकार करना बहुत ही कठिन होता है। इसी प्रसंग को प्रकाशित करते हुए स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण परमहंस के बीच हुए संवाद का एक हिस्सा लिखना चाहूँगी कि जब स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरूदेव रामकृष्ण परमहंस से पूछा कि “कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैैं ? तब रामकृष्ण परमहंस का जवाब था – कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती। अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो। जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या नहीं है, जिसे तुम्हें सुलझाना है।“
प्रार्थना हमारे भीतर सकारात्मकता संचारित करता है। जब हम कभी भी अपने जीवन से परेशान होते हैं या कोई रिक्तता महसूस करते हैं तब प्रार्थना एक संबल बनता है। इससे मानसिक स्तर पर खुशहाली आती है। इतना ही नहीं प्रार्थना में उपचारक क्षमता भी होती है। आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति के प्रवाहित होने से प्रार्थी नकारात्मक विचारों से दूर हो जाता है और उसका अंतर्मन जाग्रत हो जाता है। जब हम सतत् प्रार्थना करते हैं तब मन की अशुद्धियां धीरे-धीरे दूर हो जाती हैं, मन पवित्र हो जाता है, शोर से भरा दिमाग शांत हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने श्री मद्भगवत गीता के अठ्टारहवें अध्याय में प्रार्थना का महात्मय बताते हुए अर्जुन से कहा है कि “यदि तुम्हें असफलता मिले तो तुम संपूर्ण हृदय से मुझ में शरणागत होके तुम केवल मेरी शरण में आओ, तब मैं तुम्हारे लिए सबकुछ करूंगा।“ भगवान बुद्ध नें भी कहा है कि “यदि हम अपने मन के पापों को पहचानने और उन्हें उखाड़ फेंकने योग्य बनाना चाहते हैं तो उसके लिए मानसिक शक्ति प्राप्त करें, प्रार्थना अपनाएं।“ महात्मा गांधी ने भी इसकी महत्ता के बारे में कहा है कि “प्रार्थना तो धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति है। यह हृदय के भीतर चलने वाले अनुसंधानों का नाम है। मैं कोई भी काम बिना प्रार्थना के नहीं करता हूँ। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतना ही अनिवार्य है जितना शरीर के लिए भोजन।“
इसलिए हमें प्रार्थना सदैव अपनाना चाहिए क्योंकि प्रार्थना तो हमारे पुरूषार्थ को अंतरिम सहायता प्रदान करती है जो हमारे विश्वास को और भी दृढ़ बनाती है और यही विश्वास की दृढ़ता हमें अव्यक्त, अदृश्य बातों को देख व सुन सकने की अद्भुत क्षमता प्रदान करती है और यही वो पल होता है जब हम सम भाव से परमात्मा एवं गुरू कृपा की बारिश में भींगते रहते हैं चाहे वो दुःख की घड़ी हो या सुख के पल। इसलिए आइए हम सब भी इस सुरक्षा-कवच को अपनाएं और अपने आंतरिक अध्यात्मिक शक्ति के प्रवाहित होने के बाद नकारात्मक विचारों से दूर और दूर होते चले जाएं एवं अंतर्मन को जाग्रत करें।