शुक्रवार को औरंगाबाद के करमाड स्टेशन के पास पटरी पर सो रहे 16 मज़दूर मालगाड़ी की चपेट में आ गए और सबों की मौत हो गई। मैंने सुबह से शाम तक तीन- चार बार fb का अपना एकाउंट खंगाला, लेकिन घटना का कोई खास ज़िक्र नहीं था। जो लोग सुतते- जागते कांग्रेस को गलियाते रहते हैं और देश के हर मसले में पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम घसीटकर अपनी बुद्धिजीविता प्रमाणित करते रहते हैं, उनके पोस्ट भी नदारद रहे। दूसरे दिन भी इस दर्दनाक घटना पर किसी चर्चा से लोग बचते रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़हीन पत्रकारों की बात तो और निराली रही। वे इस समस्या की वजह और समाधान पर चर्चा करने की बजाय तबलीगी जमात समेत दूसरे विषयों पर चर्चा करने में मशरूफ रहे।
इतना ही नहीं, ट्रेड यूनियनों ने भी मज़दूरों की समस्याओं को लेकर कोई वाजिब सवाल सरकार से नहीं पूछे। देश में राष्ट्र स्तर से लेकर प्रदेश स्तर की 12154 रजिस्टर्ड मज़दूर संगठन हैं, जिनका जन्म ही हुआ है श्रमिकों की समस्याओं को लेकर जीने मरने केलिए। लेकिन, ये इतना सुविधाभोगी और सरकार के पिछलग्गू हो गए हैं कि इन्हें मज़दूरों की परवाह ही नहीं। लेकिन, जब लोकतंत्र में जवाबदेह संस्थाएं अपनी जवाबदारी से मुकरने लगती है, तो वह बड़े बदलाव को आमंत्रित करने लगती हैं।
कल तक मुम्बई, दिल्ली, सूरत, अहमदाबाद, जयपुर, इन्दौर आदि शहरों के भूखे- प्यासे प्रवासी मज़दूर नियमों को ताक पर रखकर घर को निकाल गए। उन्हें घर भेजने के नाम पर ना- नुकुर करने वाली सरकारों को अपनी जिद छोड़नी पड़ी। अब सरकार को चाहिए कि lockdown से उपजी बेरोजगारों की फौज के मद्देनजर नीति बना ले। क्योंकि, अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत 40 करोड़ लोग फंसेंगे। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक गाय राइडर के अनुसार कोरोना वायरस संकट दूसरे विश्वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा संकट है। मुम्बई जो देश के जीडीपी में 6 फीसदी हिस्सेदारी रखती है, उसका हाल अभी बेहद खराब है। साथ ही, देश के 726 ज़िलों में से जिन 130 ज़िले रेड जोन होने के कारण पूरी तरह बंद है, वे देश के जीडीपी में 40 फीसदी हाथ बंटाते हैं। ऐसे में यह तय है कि कोरोना महामारी बेरोजगारों की फौज खड़ी करेगी। दूसरा झटका अरबियन देशों की मंदी से लगने वाला है। पश्चिम एशिया में काम करने वाले 80 लाख भारतीयों में से 30 फीसदी भी लौटकर आने वाले हैं।