सही में पूछिये तो कभी- कभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ पत्रकारों की पत्रकारिता पर खीझ आती है और तरस भी। ये समझ में नहीं आता कि आखिर ये क्या दिखाना- बताना चाहते हैं। हमलोग भी ज़िले और प्रदेश स्तर की पत्रकारिता से ऊपर नहीं जा सके, लेकिन इतनी समझ ज़रूर रही कि किसी खास मौके पर चीजें क्या और किस तरीके की परोसनी है। कल देश के प्रधानमंत्री का सम्बोधन था। उनका फ़ोकस कोरोना संकट से उपजी आर्थिक बदहाली से निपटने के उपायों पर था। उन्होंने सभी श्रेणियों के उद्योगों के लिये पैकेज की घोषणा की। उसके बाद ‘ चलन’ के अनुसार debate का दौर शुरू हुआ। एक- दो चैनेलों को छोड़ दें, तो बाकी ने दो- तीन प्रमुख दलों के छुटभैये नेताओं को बिठा दिया और प्रतिक्रिया पूछनी शुरू कर दी। अब एंकर के सवालों से ये पता चल रहा था कि उसे प्रतिक्रिया स्वरूप क्या पूछना चाहिए, उसे खुद पता नहीं है। दूसरी बात यह है कि ऐसे मसले पर आपको किसे आमंत्रित करना चाहिए। अर्थ व्यवस्था पर इस विषय से जुड़े लोगों की राय लेनी चाहिए, कुछ काम की चीजें मिल सकती हैं। आमलोग भी कुछ जान सकेंगे। दलों के भीतर भी काबिल नेता होते हैं, जो आर्थिक मसले पर बढ़िया बोल सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक और बात यह कि जब पीएम ने पैकेज की घोषणा की और कहा कि यह जीडीपी का 10 फीसदी है, तो अपने पाठकों को यह भी बताना चाहिये था कि दूसरे बड़े देशों ने भी अपने यहां पैकेज की क्या घोषणा की है। तुलनात्मक अध्ययन से चीजें स्पष्ट होती हैं। चैनेल हेड को भी चाहिए कि ऐसे मौके पर सामान्य एंकरों की जगह विषय के जानकारों का उपयोग करें। सचमुच, कल बहुत निराशा हुई।