मुजफ्फरपुर
ललित कुमार शाही उर्फ गोपाल शाही ने अपने दरवाजे के सामने एक बड़े भूखंड पर पॉली हाउस का निर्माण 2015 में कराया था। आज वह पॉलीहाउस बकरियों के चरागाह के रूप में दिखाई देता है। इस संबंध में गोपाल शाही ने बताया कि सरकारी असंवेदनशीलता के कारण लाखों की पूंजी बेकार हो गई। आमदनी और रोजगार दोनों हाथ से निकल गये। सरकारी योजना के तहत् 2015 में 15 लाख की लागत से इस पॉलीहाउस का निर्माण कराया गया था और इसके लिये जटोफा का पौधा कृषि बागवानी विभाग को उपलब्ध कराना था। जटोफा के पौधे की आपूर्ति को लेकर वह महीनों विभाग में दौड़ लगाते रहे लेकिन जटोफा का पौधा उपलब्ध नहीं कराया गया। जिसके चलते पॉलीहाउस के निर्माण का उद्देश्य हीं समाप्त हो गया। जबकि 80 दिनों के बाद जतोफा का प्रति फूल 7रूपये के हिसाब से बिक्री होती है। दिल्ली में फूल के व्यापारियों से भी उनकी बात हुई थी और वे 7रूपये प्रति फूल खरीदने को भी तैयार थे । व्यवस्था पूरी थी, बाजार उपलब्ध हो गया था बावजूद पौधा उपलब्ध नहीं कराने के कारण पूरी योजना बेकार हो गयी। जबकि अगर पौधा उपलब्ध कराया जाता तो 80 दिनों के बाद 4000रूपये प्रतिदिन के हिसाब से आमदनी होती और 8 से 10 मजदूरों को 365 दिन का रोजगार प्राप्त होता। श्री शाही के अनुसार फिर उन्होंने एक बार कमर कसी है और वह पॉलीहाउस को पुनर्जीवित कर इसमें काम करना चाहते हैं। पॉलीहाउस के पुनर्निर्माण और मरम्मती के लिए उन्होंने कृषि बागवानी विभाग को आवेदन भी दिया है। लेकिन आवेदन दिए भी महीनों बीत गये, अबतक कोई कार्यवाही नहीं हुयी है। यह तो एक बानगी है ऐसे एक नहीं सैकड़ों मामले में मिल जाएंगे जहां अगर किसानों ने कुछ करने का प्रयास भी किया तो कभी बैंकों द्वारा तो कभी सरकारी विभागों द्वारा हतोत्साहित कर दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी एक नारा दिया है कि लोकल को वोकल बनायें। घरलुे उत्पादों को आगे बढ़ाएं, कुटीर उद्योग और मध्यम उद्योग लगाई जाये जिससे अधिकाधिक रोजगार का सृजन हो। लेकिन सरकारी विभागों और नौकरशाहों के इस मानसिकता के साथ क्या यह संभव है? जिम्मेवारी तय करनी पड़ेगी कि अगर सारी व्यवस्था और लागत के बाद कोई उद्योग सफल नहीं हुआ तो आखिर उसके पीछे कारण क्या था और किसकी जिम्मेदारी थी । नीति आयोग ने भी अपने सिफारिशों में कृषी को बढावा देने और उद्योग के रूप् में विकसित करनें की सलाह दी है। बिहार में जितना गेहूं का उत्पादन होता है उसका 40 प्रतिशत देश के अन्य भागों में चला जाता है, जहां उसी गेहूं से बिस्कुट और अन्य चीजों का उत्पादन होता है। इसे तैयार करने वाले मजदूर और कारीगर भी बिहार, यूपी और अन्य राज्यों के होते हैं। ऐसे में अगर उस उत्पादन करने वाले उद्योगों को वहां स्थापित किया जाए जहां श्रम शक्ति भी है और कच्चा माल भी उपलब्ध है, तब इसका सही और ज्यादा लाभ हो सकेगा। उत्पादन का लागत खर्च कम होगा, रोजगार का सृजन होगा और लोगों की जिंदगी में खुशहाली आएगी, साथ हीं मजदूरों के पलायन पर भी अंकुश लगेगा। लेकिन इसके लिए एक दूरगामी योजना की जरूरत होगी। सरकार और सरकारी तंत्र की मानसिकता को बदलना होगा। जब तक कृषि को उद्योग का रूप नहीं दिया जाएगा और श्रम शक्ति को कृषि की ओर मोड़ने की कोशिश नहीं होगी, तब तक भारत जैसे देश में विकास को गति नहीं दी जा सकेगी।
सतीश कुमार मिश्र