आज बरामदे में मां तुलसी और मेरे आराध्य शिव पर जलाभिषेक करते समय बारिश की रिमझिम फुहारों ने जब तन को स्पर्श किया तो मन मयूर नृत्य कर उठा और ऐसा प्रतीत हुआ कि पिछले कुछ दिनों से जो सभी का जीवन तपते रेगिस्तान सा बना हुआ था , प्रभु भास्कर के प्रकोप से सर्वत्र निराशा व्यथा और उदासी का माहौल था। उनके रौद्र रूप ने जीवन के तापमान को इतना उत्तल पुथल कर दिया था कि उनका सामना करने की हिम्मत जगत के किसी भी प्राणी में नहीं थी । बस उपाय था तो स्वविवेक से अपने बचाव का या यूं कहा जाए कि संपूर्ण जगत अनकही बंदिशों में गिर गया था। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी मगर आज तो प्रभु से हमें दया और वात्सल्य का मिलाजुला भाव आशीर्वाद के रूप में मिलता प्रतीत हुआ
और फलस्वरूप हमने अनकही बंदिशों के घेरे को तोड़ते हुए घर के सभी दरवाजे खिड़कियों को खोल दिया , समृद्धि का परिचायक माने जाने वाली कीमती पर्दो को भी किनारे हटा दिया ताकि आज हमें भास्कर देव के इस वात्सल्य रूप के जो दर्शन हुए हैं, इन क्षणों को हम भरपूर जी सके
क्योंकि हम मानो तो वह काठ की पुतली हैं जो बिना सोचे समझे और सोच समझ कर भी गलतियां करते ही जाते हैं चाहे वह प्रकृति से खिलवाड़ हो या मृग मरीचिका के वशीभूत होकर अन्य अक्षम्य अपराध, तो ना चाहते हुए हमें भी जीवन के बदलते तापमानो के लिए खुद को हमेशा तैयार रखना ही होगा
पर आज यह बातें बिल्कुल नहीं क्योंकि आज तो हमें प्रकृति के , प्रभु के , खूबसूरत मौसम का रसपान करना है और मन मयूर को जी भर कर नृत्य करने देना है।
अंजू चौबे