अपने समय के अत्यंत आदरणीय कवि दामोदर सहाय ‘कविकिंकर’ एक प्रणम्य और ऋषि-तुल्य कवि थे। एक ऐसे स्वनाम-धन्य कवि, जिनके ‘कवि’ का उद्भव पीड़ा के सागर से ‘कमल’ सदृश हुआ था। इनकी माँ तब चल बसी जब इन्होंने ‘माँ का दूध’ भी न छोड़ा था! सात महीने के अबोध शिशु थे। और, पिता तब चल बसे, जब उन्होंने पाठशाला जाना आरंभ हीं किया था। मात्र ११ वर्ष की आयु में माता-पिता, दोनों को खो चुके, बालक दामोदर सहाय ने अपने जीवन नौका को, संसार-सागर में कैसे खेया होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है! ममत्त्व और पितृत्व के घोर अभाव ने उनके बाल-मन को किस अवर्चनीय पीड़ा में डाला होगा और किन-किन झंझावातों से वह तरुण जूझा होगा, इसकी कल्पना भर से, कोई भी संवेदनशील हृदय सिहर उठेगा! इसी पृष्ठ-भूमि में, अपने कोमल-भावों को सहेजकर, अदम्य धैर्य और विपुल साहस का परिचय देते हुए, कविकिंकर जी ने न केवल अपने जीवन को मूल्यवान बनाया, बल्कि बाल्य-काल से ही अपनी अद्भुत मेधा और काव्य-प्रतिभा का भी परिचय देना आरंभ किया। उनका संपूर्ण जीवन तपः-साधना और उदात्त, किंतु मधुर-जीवन का एक आदर्श उदाहरण है। उन्होंने अपनी मेधा और दृढ़ इच्छा-शक्ति से यह सिद्ध किया कि, वे लोग जो मानव-जीवन को कोई निरुद्देशय घटना मात्र नहीं, बल्कि नियति की सोद्देश्य रचना मानते हैं, वे ‘अभावों’ को भी अपने महान लक्ष्य की पूँजी और पाथेय बना लेते हैं। वे प्रेम, करुणा और आध्यात्मिक-चिंतन के कवि थे, जिनसे भारतीय-दर्शन टपकता था। उनके लिए दुःख, दुःख न था, क्योंकि दुःख की परिभाषा उनकी वह नही थी, जो आज के सामान्य लोगों की होती है। उन्होंने उन दुःखों को जीत लिया था, जिनसे आज के लोग दुखी रहा करते हैं। क्योंकि ऐसे दुखों को वे ‘दुःख’ की श्रेणी में गिनते ही न थे। किंतु जब उन्हें वह दुःख भी मिल जाता था, जो उनकी परिभाषा के अंतर्गत ‘दुःख’ थे, तब भी उनके हृदय से चित्कार नही निकलते थे, बल्कि वे काव्य के रूप में प्रेम, करुणा और दर्शन बनकर उनकी लेखनी की आँखों से झड़ने लगते थे। हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में उनका अत्यंत मूल्यवान अवदान है। विद्यालयी शिक्षा में हिन्दी भाषा और देवनागिरी लिपि का प्रचलन हो, इस आंदोलन की अगुआई करनेवालों में अग्र-पांक्तेय है। वे हिन्दी के प्रथम व्याकरण-कार भी माने जाते हैं।
कविकिंकर जी का जन्म बिहार के सारण जिला के मुख्यालय-नगर छपरा में,१४ दिसम्बर १८७५ को हुआ था। उनके पिता मुंशी शिवशंकर सहाय सिंह स्थानीय कचहरी में ‘मुख़्तार’ और नगर के सुप्रतिष्ठ पुरुष थे। ११ वर्ष की आयु में ही माता और पिता को सदा के लिए खो देने वाले दामोदर को, चचेरे बड़े भ्राता मुंशी हीरालाल साह का संरक्षण मिला। अनाथ बालक के लिए, यह सहारा, डूबते हुओं के लिए ‘तिनका’ ही था, पर यह उनकी अद्भुत मेधा, अदम्य साहस और परिश्रमी जीवटता के लिए एक बड़ा ‘बल’ था। उन्होंने अपनी मेधा-शक्ति से, १४ वर्ष की आयु में ही ‘छात्र-वृत्ति’ के साथ ‘मिडिल-वर्नाकुलर’ की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। १८९४ में छपरा ज़िला स्कूल से ‘एंट्रेंस’ तथा १८९७ में, बी एन कालेज, पटना से ‘एफ ए’ करने में सफल रहे। किंतु, इसके पश्चात निरंतर बढ़ती जा रही, घरेलू समस्याओं के कारण, बी ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी परीक्षा नही दे सके और उच्च-शिक्षा का स्वप्न, ‘स्वप्न’ ही रह गया।
कविकिंकर जी जीवट के मनुष्य थे। परिस्थितियां उन पर निरंतर प्रहार करती है, पर उनको जीत न सकी। अपितु वे सदा परिस्थियों को जीतते रहे। आजीविका हेतु सन १९०० में, छपरा के रिविलगंज मिडिल इंग्लिश स्कूल में अध्यापक की सेवा आरंभ की। कुछ दिनों तक छपरा ज़िला स्कूल में भी शिक्षक रहे। लगभग तीन वर्षों के अध्यापन-सेवा के पश्चात वे ‘विद्यालय उपनिरीक्षक’ हो गए। १९०३ में मुंगेर से विद्यालय उपनिरीक्षक की सेवा आरंभ करने वाले कविकिंकर जी गया, आरा, दरभंगा आदि जिलों में इस पद का आदरणीय दायित्व निभाते हुए, छपरा ज़िला के विद्यालय निरीक्षक के रूप में प्रोन्नत हुए। इस रूप में भी उन्होंने, अपने स्वभावानुसार निष्ठापूर्वक शिक्षा-जगत की सेवा की। अपने सघन दायित्वों सनिष्ठ निर्वहन के क्रम में भी, उन्होंने ‘साहित्य’ को पीछे नही होने दिया, जो उनके बाल-मन में ही अंकुरित हो गया था।
मात्र १३ वर्ष की आयु में अपनी प्रथम काव्य-रचना करने वाले कविकिंकर जी किस काव्य-प्रतिभा के साहित्यकार थे, उसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे अपने असाहित्यिक पाठ्य-विषयों, यथा- भूगोल और इतिहास के पाठ्यों को भी शीघ्र-स्मरणीय बनाने के लिए, काव्य का रूप दे देते थे। इसका उपयोग वे अपने सहपाठी मित्रों के मनोरंजन तथा ज्ञान-वर्द्धन के लिए भी किया करते थे। अपने मित्रों के मध्य, मनो-विनोद के काव्य-सृजन करने के कारण, वे पर्याप्त लोक-प्रिय थे। उनकी काव्य-प्रतिभा पर मोहित होकर,तबके विद्यालय उपनिरीक्षक पं शिव नारायण त्रिवेदी ने उन्हें पुरस्कृत किया था और मुक्त-कंठ से प्रशंसा की।
किंतु साहित्य-सेवा का महनीय अनुराग उनमे तब उत्पन्न हुआ, जब वे छपरा ज़िला स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य कर रहे थे, जहाँ उन्हें साहित्यालंकार पं अंबिकादत्त व्यास ‘सुकवि’ जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ, जो उसी विद्यालय में वरीय शिक्षक थे। एक साहित्यिक-अग्रज पा जाने से उनके अंतर का कवि परिमार्जित और परिष्कृत होकर साहित्य के विराट क्षितिज पर छा गया। उनकी काव्य-कृतियाँ तब की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं, ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘मर्यादा’ आदि में छपने लगी थी।
तब हिन्दी-काव्य में ब्रजभाषा की अनिवार्यता अपरिहार्य थी। वे कविगण भी, जिनकी मातृ-भाषा ‘ब्रजभाषा’ नही थी, काव्य-सृजन उसी में किया करते थे। कविकिंकर जी ने भी उसी पारंपरिक कवित्त-शैली में रचना आरंभ की और अपनी प्रतिभा से यह सिद्ध कर दिया कि वे ब्रजभाषा के अधिकारी कवि हैं। उनकी रचनाओं में सुर, रहीम और रसखान के स्वर और तेवर दिखाई देते थे। उनकी रचनाओं में, पाठकों और श्रोताओं को वही आस्वाद प्राप्त होता था, जो उन महान कवियों के रस-सृजन से पाया जाता था। ‘सुधा-सरोवर’ उनकी ऐसी ही एक काव्य-कृति थी जिसमें ब्रजभाषा का समस्त माधुर्य और सौंदर्य समाहित था। इसका प्रकाशन १९२८ में, ‘पुस्तक भंडार’ , लहेरिया सराय से हुआ था। हिन्दी के महान कीर्ति-स्तम्भ आचार्यवर्य शिवपूजन सहाय ने, इस पुस्तक पर, अपनी भूमिका लिखते हुए कहा कि- “पुस्तक पढ़ते समय पाठक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अनेक सरस एवं चित्ताकर्षिणी उक्तियाँ पावेंगे, और तब सहज ही अनुमान कर सकेंगे कि आपकी रचनाओं में किस हद तक और किस ख़ूबी के साथ स्वाभाविकता, भाव-प्रवणता, शब्द-सौष्टव एवं माधुर्य का निर्वाह हुआ है। कई कविताओं में आपकी सुरुचि,भावुकता, रसज्ञता, सामयिकता और मार्मिकता स्पष्ट झलकती है। मेरा पूर्ण विश्वास है कि कविता-प्रेमी सज्जन इसका समुचित सत्कार करेंगे”।
तब के एक अन्य आदरणीय कवि पं राम नरेश त्रिपाठी ने सत्य ही लिखा कि – “दामोदर सहाय जी ने अपना हृदय निचोड़ कर ‘सुधा-सरोवर’को भरा है। कितने ही भाव तो ऐसे हैं, जो ब्रजभाषा के अच्छे से अच्छे कवि के भावों के जोड़ के हैं। कोई-कोई कविता तो बहुत सुंदर हैं और पुराने कवियों का स्मरण कराती हैं”। उनकी रचनाओं में प्रच्छन्न ऋंगार और भक्ति-पक्ष को भी स्वर मिला। मानव-धर्म पर आपके विचारों के उदात्त-पक्ष पर प्रकाश डालने वाली निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है;-
“खायो कराई अन्न दान देइ कछु जाँचक कौं।
न्हायो कराई गंग-धार माहिं प्रातकाल को।
‘दामोदर’ दायो करै दीन दारिदी जन पै,
नायो करै सीस साधु-सन्त महिपाल को!”
‘सुधा-सरोवर’ से एक यह पद भी अवलोकनीय है ;-
“छिन में छिन कम्प करै तन में, पट छोरि शरीर सवार करे!
कच फेरि बिखेरे, ‘दामोदर’ त्यों, सब हीअ सिंगार सिंगार करै!”
कविकिंकर जी का कवि जैसे-जैसे परिपक्व हुआ, वैसे-वैसे हिन्दी के प्रति उनकी श्रद्धा बढ़ती गई। आधुनिक हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्य को निश्चित करने में उन्होंने बहुत देरी नही की और हिन्दी (खड़ी-बोली) की सेवा में पूरे मन-प्राण से लल्लीन हो गए। उनकी शलाघ्य कृतियाँ;- ‘संधि-संदेश’, ‘कविता-कुसुम’, ‘श्रीहरि गीतिका’, ‘नृप-सूर्यास्त’, ‘काल पचीसा’, ‘रसाल अंगूर’, ‘चाटक-चालीसा’, ‘निगम और आगमन’, ‘भ्रातृ-भाव’, ‘भक्ति’, ‘बाल-सितारे’, ‘बाल-संकीर्तन’, ‘धार्मिक वार्तालाप’ आदि हिन्दी साहित्य की अक्षय-निधि हैं। विद्यालयों में शिक्षा की भाषा हिन्दी और लिपि ‘देवनागिरी’ हो, इस आंदोलन का सूत्रपात करने वालों में कविकिंकर जी का नाम अग्र-पांक्तेय है। तब शिक्षा की भाषा अंग्रेज़ी और फ़ारसी थी। हिन्दी का कोई व्याकरण उपलब्ध नही था। पं अंबिकादत्त व्यास ‘सुकवि’ जी तथा पं राखाल दास बंधोपाध्याय की प्रेरणा से उन्होंने ‘हिन्दी-व्याकरण’ का सृजन किया। यह पुस्तक कविकिंकर जी तथा बंधोपाध्याय जी के नाम से प्रकाशित हुई। बंधोपाध्याय जी राज्य सरकार के शिक्षा-विभाग में उच्चाधिकारी थे। तब बिहार, बंगाल और ओडिशा एक हीं प्रांत था। प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत-सरकार ने कविकिंकर जी को अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर (पेशावर), ‘सेंसर-औफिस’ का प्रभारी नियुक्त किया था। वे समाचारों, सूचनाओं, पत्रों आदि का सूक्ष्म-निरीक्षण किया करते थे। सरकार ने १९१९ में उन्हें ‘युद्ध-पदक’ भी प्रदान किया था। वे नागरी प्रचारिणी सभा से भी संबद्ध रहे। उनकी एक पुस्तक ‘निगम आगमन’ का प्रकाशन प्रचारिणी सभा,काशी से हुआ था।
‘संधि-संदेश’ (भगवान कृष्ण के संधि-प्रसंग पर केंद्रित खंड-काव्य) उनकी अंतिम कृति मानी जाती है, जिसका प्रकाशन १९५३ में, उनके निधन के पश्चात, उनकी स्वयं की स्थापित संस्था ‘हिन्दी-मंदिर’, शीतलपुर, बरेजा,सारण द्वारा हुआ था। खड़ी-बोली की यह काव्य-कृति का समकालीन हिन्दी-काव्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दी काव्य-साहित्य की एक बड़ी निधि और धरोहर है। यह स्मरणीय है कि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन-चरित पर हिन्दी के अनेक महान कवियों ने कृतियाँ रची हैं, किंतु उनके ‘शांति-दूत’ के महनीय स्वरूप पर, तब तक किसी की दृष्टि नही जा सकी थी। कविकिकर जी ने श्रीकृष्ण के उसी मानवीय पक्ष की महान अवधारणा को, अपने काव्य-विवेक में अंगीकार कर, ‘संधि-संदेश’ में अभिव्यक्त किया। हिन्दी काव्य की यह एक महान और मौलिक उपलब्धि है। उनकी काव्याभिव्यक्ति की यह सरल और तरल भाषा सहज ही ध्यान खिंचती है;-
“जग में असाध्य कुछ है नही, यत्न सिद्धि का मूल है।
उद्योग संधि का है उचित, संशय करना भूल है।”
इसी कृति के द्वितीय सर्ग में उन्होंने प्रकृति का भी कितना जीवंत चित्रण खींचा है!
“बहती शीतल वायु, स्फूर्ति तन में लाई है।
कमल कोष से मुक्ति, भ्रमर दल ने पाई है।
तारे धीमे पड़े, प्रभा क्षिति पर छाई है,
चकई-चकवा मिलन हेतु, सुख से आई है।”
कविकिंकर जी का हिन्दी प्रेम कितना स्तुत्य है, इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने शिक्षा-सेवा से अवकाश ग्रहण करते ही अपने ग्राम (शीतलपुर)में ही ‘हिन्दी-मंदिर’ नामक एक बहु-आयामी संस्था की स्थापना की, जिसमें एक बहुत ही महनीय पुस्तकालय तो था ही, पुस्तकों का प्रकाशन एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोहों के आयोजन भी हुआ करते थे। यह संस्था, अपने नाम के अनुरूप ही साहित्य के ‘मंदिर’ का स्थान ले चुकी थी, जिसके विशाल मंडप का स्वर्ण-कलश कोई अन्य नही, बल्कि स्वयं कविकिकर जी ही थे।
५७ वर्ष की ही अपूर्ण आयु में, कविकिंकर जी ८ जून १९३२ को इस असार-संसार को छोड़ गए! किंतु अपने पीछे जो कृतियाँ भी छोड़ीं, वह साहित्य-संसार की अमर धरोहर है, जिससे पीढ़ियाँ उपकृत होती आई हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी तीन पीढ़ियों ने हिन्दी और साहित्य की सेवा की। उनके पुत्र पाण्डेय जगन्नाथ प्रसाद सिंह और तीन पौत्र पाण्डेय कपिल, पाण्डेय सुरेंद्र और पाण्डेय चंद्र विनोद, साहित्य-जगत में प्रतिष्ठित नाम सिद्ध हुए। अब तो, पाण्डेय कपिल भी,जो हिन्दी और भोजपुरी के बड़े साहित्यिक हस्ताक्षर थे, स्मृति-शेष हो चुके।
कौशलेन्द्र पाण्डेय, संवाददाता.