गुलामी की मानसिकता से हम निकल न सकें हैं..आयुष और इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च भी ..और वह भी मोदी जी के राज में ।आज बाबा रामदेव ने कोरोना की दवा की घोषणा क्या की…वे सभी आयुर्वेद और रामदेव जी के पीछे ही पड़ गए जिन्हें भारतीय पुरातन और वर्तमान में परिसंस्कृत आयुर्वेद ,योग आदि से गंभीर एलर्जी है।बाबा ने भी गंभीर गलती कर दी,ऐसा शायद लगता है। उन्हें क्लीनिक ट्रायल के पहले ट्रायल के प्रारूप,इंटरनल सब-इथिक्स समिति, एथिक्स कमिटी आदि से अनुमति लेनी चाहिये थी।इसे सार्वजनिक करना चाहिये था।पर क्या ऐसी इथकल समिति..सब इथिकल समिति आदि आयुर्वेद में होती है ? हाँ। इसे आयर्वेद विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकते हैं।तो पतंजलि को सीना ठोक कर इस समिति के क्लेरेंस को सामने लाना चाहिये जिससे उनके क्लेम को और मजबूती मिले।आयुष को भी इसपर सफाई देनी चाहिये कि क्या आयुष मंत्रालय से रामदेव जी ने अनुमति ली थी ?वैसे भारत मे हर मेडिकल चीज़ के रिसर्च में ICMR(इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च )की अनुमति लेनी पड़ती है।कोरोना के रिजल्ट(पॉजिटिव या नेगेटिव मरीज़ हुआ है,वह वाला) के इस्तेमाल की अनुमति भी आयुर्वेद ,एलोपथिक सहित सभी को अनुमति लेनी पड़ती है।तो क्या पतंजलि ने यह अनुमति ली है ?पर प्रश्न यह भी की ICMR से ही अनुमति क्यों ? ये तो आयुर्वेद ,योग आदि को अनुमति देंगे ही नहीं।ये तो काफी बायस्ड हैं।फिर उपाय क्या है ?भारत जैसे देश मे उपाय यह है कि ICMR को खत्म कर होलिस्टिक मेडिसिन रिसर्च समिति का गठन किया जाए।इसमे आयुष, एलोपैथिक, यूनानी, सिद्दा, योग और नेचरोपैथी, फिजियोथेरपी,होमियोपैथी, आदि सभी विधाओ के जानकार हों और ये आम आदमी के लिये हर विधा को जांचे परखें और फिर रिसर्च आदि को अनुमति दें।उंसके ट्रायल हों,फिर मार्किट में दवा या योग आदि आये।ये पूरे मानव जाति के लिये बेहद जरूरी है।अन्यथा आम लोग हर विधा से लूटते रहेंगे..वैसे जानकारी के लिये बताता चलूं की घुटने के दर्द(ऑस्टेओ आर्थराइटिस) की दुनिया मे कोई एलोपथिक दवा नहीं है पर ग्लूकोसामिन सहित सैकड़ों दवाएं खूब बिकती हैं..तब ICMR क्या करता है ? WHO क्या करता है ?क्यों नही करवाई करता..जबकि मरीज़ को फिजियोथेरपी से ही ठीक किया जा सकता है,( C. J lozada एंड Altmam का 1993 का रिसर्च पेपर पढ़ सकते हैं जिसमे साफ -साफ लिखा है..”Drug therapy has no role in disease progression in osteoarthritis ) जीवन भर व्यायाम, योग करने की जरूरत होती है।कुछ वर्षों पहले AIIMS दिल्ली के एक रिसर्च पेपर(टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार) 35 % घुटनों का रिप्लेसमेंट अनावश्यक होता है…मेरे अनुसार तो 90 % अनावश्यक यदि फिजियोथेरपी से समय से इलाज़ कराया जाए।यही नहीं मेडिकल के छात्र thailodamide दवा से भी अवगत होंगे जिसे 1960 के दशक में वंडर दवा के रूप में फ्रांस सहित पूरे विश्व मे प्रचारित किया गया था पर करीब 6 साल के बाद ही इसे पूरी तरह से बैन किया गया …क्यों किया गया ?क्योंकि इस दवा के इस्तेमाल से मछली जैसे पैर वाले बच्चे(फेकोमेलिया) पैदा होने लगे।फिर इसे क्यों वंडर ड्रग बताया गया ? क्यों यह वर्षो तक मार्केट में बिकता रहा ? तब ICMR और WHO कहाँ था ?यही हाल कुछ वर्षों पहले मोटापा घटाने वाली दवा का हुआ। जब इससे हृदय की बीमारियां होने लगी तब यह बैन हुआ। जबकि सत्य यही है कि व्यायाम और डाइट के अलावा कोई दवा आपके वजन को अपवाद छोड़(जैसे TB) कम नहीं कर सकता।कई एलोपैथिक दवाओं को रुकवाने के लिये खुद कई नैतिक रूप से ईमानदार एलोपथिक डॉक्टरों को कोर्ट तक जाना पड़ा।यही हाल डेंगू का भी है। डेंगू में बकरी का दूध, गिलोय,पपीता के पत्ते का जूस ,नारियल पानी से ही प्लेटलेट बढ़ता है, किसी मानव निर्मित दवा से नही।अभी कोरोना पर ICMR की बिना अनुमति के ही 15 अप्रील से दिल्ली के एक प्राइवेट अस्पताल ने प्लाज्मा थेरेपी की शुरुआत 2 मरीज़ों पर की। तब ICMR कहाँ था ? करीब 2 महीने के बाद प्लाज्मा थेरेपी की अनुमति मिली।तो क्या उनके विज्ञापनों या न्यूज़ पर रोक क्यों नहीं लगी ? अब फिर पतञ्जलि पर क्यों ? आप रामदेव को ठग कह सकते हैं तो मेरे अनुसार बड़ी-बड़ी दवा कंपनी उंसके ज्यादा ठग हैं।फिर आयुर्वेद पर ही सबकी नजर क्यों ? क्या उससे चोर दवा कंपनियों को नुकसान होगा ? क्या इससे आम लोगों को एलोपथिक से ठगे जाने पर रोक लग जायेगा ?जी..बिल्कुल लगेगा। इसलिय आयूर्वेद को टारगेट किया जाता है। आप च्यवनप्राश या गिलोय न खाएं..हल्दी या तुलसी न लें.. बीमार हो अस्पतालों में लाखों-करोड़ों का बिल बनवाएं, घर-जमीन सब बिक जाएं, मूल रूप से ये यही चाहते हैं।पर आयुर्वेद वाले भी कम नहीं हैं। पटना के एक अयर्वेदिक HOD से मैने निवेदन किया कि वे पार्किन्स की अपनी विधा की दवा बताएं तो वे पंचकर्म को छोड़ कुछ बता नहीं पाए। फिर पैरालिसिस के विभिन्न प्रकारों (हेमिप्लेजिया) और पोलियो【UPPER MOTOR LESION और LOWER MOTOR LESION】 के बीच आयुर्वेद के इलाज़ में कैसे अंतर है,ये भी बता नहीं पाए..ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।इसका कारण यह है कि ज्यादातर अयर्वेदिक किताबें संस्कृत में हैं और छात्र इसे पढ़ते नहीं..दवाएं भी मरीज़ के अनुसार इसमें दी जाती हैं,खुद वैध जी को बनानी पड़ती हैं..पर वे बनाते नहीं..वे एलोपैथिक दवा लिखने लगते हैं..फिर आयूर्वेद बढेगा कैसे ?कहने का आशय यह है कि आम लोगों को समग्र(होलिस्टिक ) इलाज़ की जरूरत है न कि केवल झगड़ा-लड़ाई की। आपको एमरजेंसी में ,हड्डी टूटने, गोली लगने में एलोपथिक ही असली सहारा है। पर विभिन्न लाइफ स्टाइल बीमारियों में योग, नेचरोपैथी, फिजियोथेरपी, आयुर्वेद आदि बचाव और सहारा भी हैं।विभिन्न चमड़े के रोगों,पेट के रोगों आदि में होमियोपैथी का बहुत बड़ा रोल है।ये हमेशा याद रखना चाहिये कि आयूर्वेद का जन्म भारत मे हुआ है जहाँ ” सर्वे संतु निरामया ….न कश्चिड दुःख भाग भवेत ” का जीवन सिद्धान्त है..”वसुदैव कुटुम्बकम ” जैसे जीवन मूल्य हैं..और एलोपथिक पद्धति का आरंभ और विकास पूंजीवादी व्यवस्था में तेजी से हुआ है।इसलिय दोनों की सोच में अन्तर है।इसलिये दोनों के इलाज़ में अंतर है।इसलिये दोनों के अनुसंधान में अंतर है।पर आज के वैज्ञानिक युग और “एविडेंस बेस्ड मेडिसीन” में सबको सिध्द करना पड़ेगा कि वे ही क्यों बेहतर हैं, क्यों मानव के लिये ज्यादा उपयुक्त हैं।इसके लिये सभी को अनुसंधान न केवल करना चाहिए बल्कि इसके लिये प्रोत्साहन भी मिलना चाहिये।मानव कल्याण ही सर्वोच्च प्राथमिकता,
रजनीश कुमार साथ में कौशलेन्द्र पाण्डेय की रिपोर्ट.