डा दीनानाथ शरण हिन्दी के कुछ उन थोड़े से मनीषी साहित्यकारों में थे, जो यश की कामना से दूर, जीवन पर्यन्त साहित्य और पत्रकारिता की एकांतिक सेवा करते रहे। वे कवि का एक विराट हृदय रखते थे। मनुष्यता और जीवन-मूल्यों की कविताएँ रचीं और एक सजग कवि के रूप में पीड़ितों को स्वर दिए। शोषण तथा पाखंड के विरुद्ध कविता को हथियार बनाया। शरण जी की ख्याति उनके द्वारा प्रणीत आलोचना-ग्रंथ’हिन्दी काव्य में छायावाद’ से हुई। वे ‘नेपाली-साहित्य’ के इतिहास-लेखक के रूप में भी जाने गए । उन्होंने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं;कविता, कहानी, संस्मरण, उपन्यास, ललित निबंध, भेंट-वार्ता तथा शोध-निबंध में भी, अधिकार पूर्वक लिखा। वे देश के प्रथम हिन्दी-सेवी थे, जिन्हें भारत की सरकार ने नेपाल में हिन्दी-अध्यापन का दायित्व सौंपा था। उन्होंने एक प्रयोगधर्मी कवि की भाँति अनेक वरेण्य कवियों का जीवन परिचय काव्य में ही लिखा। यह दूसरी बात है कि अपने समय के इस कर्मठ और जीवंत साहित्यकार को वह मूल्य नही मिल सका,जिसके वे अधिकारी थे।
शरण जी का जन्म एक निम्न मध्यम-वर्गीय, किंतु सारस्वत और राष्ट्रीय चेतना रखने वाले, कुलीन परिवार में, पटना के क़दमकुआं मुहल्ले में २६ जून १९३८ को हुआ था। उनके आदरणीय पिता माधव शरण अधिवक्ता थे और उनकी माता पूज्यनीयाँ राधा देवी भी शिक्षिता (बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल की छात्रा) और विदुषी लेखिका थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता-संग्राम में भी अपनी भागीदारी दी थीं तथा ‘साइमन-कमीशन’ के विरुद्ध हुए देश-व्यापी जनांदोलन में प्रदर्शन भी किया था। उन्होंने अपनी आत्म-कथा भी लिखी थी, जिसका प्रकाशन शरण जी ने ‘माँ की आत्म-कथा’ शीर्षक से कराया था।
शरण जी बाल्यकाल से ही परिश्रमी तथा मेधावी थे। सन १९५२ में पटना कौलेजिएट स्कूल से प्रवेशिका (मैट्रिक) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात १९५४ में, उन्होंने पटना महाविद्यालय से प्रतिष्ठा सहित हिन्दी में स्नातक और फिर १९५८ में पटना विश्वविद्यालय से प्रथम-श्रेणी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इसी विश्वविद्यालय से उन्हें १९६९ में ‘प्रसाद के नाटकों के नारी पात्र’ विषय पर पी एच डी की उपाधि भी प्राप्त हुई।
अपनी लौकिक-वृति का आरंभ उन्होंने १९५९ में, देवघर महाविद्यालय में हिन्दी के व्याख्याता के रूप में किया। किंचित काल के लिए टी एन बी कालेज, भागलपुर के हिन्दी-विभाग में भी अपनी सेवाएँ दी। १९६१ में उन्हें पटनासिटी स्थित गुरु गोविंद सिंह कालेज में हिन्दी-व्याख्याता के रूप में योगदान देने का अवसर प्राप्त हुआ। आगे चलकर वे इसके हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हुए तथा १९७७ से १९७९ तक प्रभारी प्राचार्य भी रहे। यहीं से वे ३० जून १९९८ को सेवा-निवृत भी हुए।
अपनी विदुषी माता के संस्कारवश उन्हें भी बाल्य-काल से ही साहित्य से अगाध प्रेम हो गया। वे जब पटना कौलेजिएट के छात्र थे, तभी से कविता, कहानी और निबंध लिखने लगे थे। उनकी रचनाएँ विद्यालय की पत्रिका ‘अरुणोदय’ (१९५०-५१) में छपा करती थी। जब वे पटना महाविद्यालय में आए तो महाविद्यालय पत्रिका में भी प्रमुखता पाने लगे। किसी साहित्यिक-पत्रिका में छपने की इनकी इच्छा १९५४ में पूरी हुई, जब उनकी काव्य-रचना ‘प्रसून के प्रति’ देवघर की साहित्यिक पत्रिका ‘प्रकाश’ में प्रकाशित हुई। पटना कालेज में उन्हें हिन्दी के विद्वान आचार्य प्रो शिवनंदन प्रसाद का विशेष सान्निध्य, स्नेह और मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ। उनके प्रोत्साहन से शरण जी का प्रच्छन्न कवि और लेखक मुखर हुआ और वे सृजन में प्राणापान से लिप्त हो गए। इसी वर्ष उन्होंने विद्वानों के लिए भी दुष्कर विषय ‘हिन्दी काव्य में छायावाद’ पर एक समालोचनात्मक ग्रंथ का प्रणयन कर डाला। छात्र-जीवन में हीं किसी बड़े साहित्यिक कार्य से, साहित्य-समाज में यथेष्ठ प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले वे कुछ अंगुलीगण्य साहित्यकारों में गिने जाते हैं। इस ग्रंथ का प्रकाशन १९५७ में हुआ, जब उनकी आयु मात्र १९ वर्ष की थी। जब वे स्वयं स्नातकोत्तर के छात्र थे, उसी समय उनकी यह पुस्तक राजस्थान विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर ( एम ए) के पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जा चुकी थी। स्वाभाविक रूप से तब उनकी रचनाओं को पर्याप्त मूल्य दिया जाने लगा और उनकी कविताएँ और कहानियाँ प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने लगी। वे अपने समय का पूरा उपयोग करते थे। यहाँ तक कि महाविद्यालय में जो कक्षा किसी कारण से नही हो पाती थी, उस समय का सदुपयोग वे कविता-कहानी लेखन के लिए किया करते थे। उनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘नयी दृष्टि नया आलोक’, १९५८ में प्रकाशित हो चुका था। उनका प्रथम उपन्यास ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’, १९५९ में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा उपन्यास ‘अधूरे सपनों का देश’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ।
उनकी साहित्यिक प्रतिभा और हिन्दी के प्रति गहरी श्रद्धा को मूल्य देते हुए, संघ लोक सेवा आयोग की अनुशंसा पर भारत सरकार ने उन्हें, ‘भारतीय सहयोग मिशन’ के अंतर्गत, नेपाल में हिन्दी अध्यापन के लिए प्रतिनियुक्त किया। उन्होंने नेपाल के ‘त्रीभुवन विश्वविद्यालय’ तथा पद्म कन्या महाविद्यालय में प्रतिनियुक्ति की पूरी अवधि (१९६५ से ६८) तक हिन्दी का अध्यापन किया। त्रीभुवन विश्वविद्यालय में, हिन्दी विभाग की स्थापना का श्रेय भी डा शरण को जाता है। नेपाल में अपने कार्यकाल का भी उन्होंने उत्साह पूर्वक रचनात्मक उपयोग किया। ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रंथ ‘नेपाली साहित्य का इतिहास’ के प्रणयन के साथ ही, उन्होंने अनेक नेपाली साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी किया। इनमे नेपाल के चर्चित उपन्यासकार ‘डायमंड शमशेर राणा’ की पुस्तक ‘देती बाग़’ का हिन्दी अनुवाद सम्मिलित है, जो ‘वासंती’ नाम से प्रकाशित हुई। ‘नेपाली साहित्य का इतिहास’ को त्रीभुवन विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी) पाठ्यक्रम में तथा ‘पुनर्मूल्यांकन’ स्नातक पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था। मगध विश्वविद्यालय के स्नातक (प्रतिष्ठा) के पाठ्यक्रम में भी उनकी पुस्तक ‘उदयराज सिंह और उनका साहित्य’ सम्मिलित थी। इन कृतियों के अतिरिक्त उनके काव्य-संग्रह ‘शैला के प्रति’ का भी व्यापक स्वागत हुआ। यह पुस्तक और इसकी कविताएँ,सात्विक प्रेम की, मोहित करने वाली सरल और तरल परिभाषा, प्रस्तुत करती है। यह एक प्रेमी-पति के विशाल हृदय-घट से निकले ऐसे भावोदगार हैं, जो ‘प्रेमिका-सी’ आनंदोन्मत करने वाली पत्नी के सभी भावों और प्रतिक्रियाओं की सूक्ष्मता से पहचान करते हैं। ‘शैला’ ( शैलजा सक्सेना ‘जयमाला’ ) कोई और नहीं, उनकी अर्द्धांगिनी ही थी। ‘शैला’ (अपने पुकार का) तथा ‘जयमाला’ (साहित्यिक उपनाम), दोनों ही शरण जी का ही दिया हुआ है। जयमाला जी स्वयं भी काव्य-प्रतिभा से संपन्न विदुषी थीं और बच्चन जी पर लिखे गए उनके संस्मरण को पर्याप्त प्रशंसा प्राप्त हुई थी।
हर पुरुषार्थी की कड़ी परीक्षा होती है। जितनी बड़ी उपलब्धि, उतनी कड़ी परीक्षा! शरण जी के जीवन में भी अभाव, कठिनाई और गहन पीड़ा के काल आए। यह वह समय था, जब उनके महाविद्यालय (गुरूगोविंद सिंह कालेज, पटना सिटी) में, आंतरिक-स्पर्द्धा के कारण उनका वेतन रोक दिया गया था। आय का स्रोत बंद हो चुका था। घर का ख़र्च, बच्चों की पढ़ाई, यहाँ तक कि भोजन की समस्या भी खड़ी हो गई। ऐसे आड़े समय में ‘हिन्दी’ काम आई, उन्होंने परीक्षार्थियों के लिए ‘कुंजिका’ लिखी, संभावित प्रश्न-पुस्तिकाएं बनाई, उनके उत्तर लिखे, यदा-कदा कथा-कहानी, कविताओं के पारिश्रमिक मिले तो जीवन की गाड़ी चलती रही। शरण जी यह मानते थे कि ‘हिन्दी’ ने ही उन्हें जीवन दिया और जीवन-रक्षा भी की। अनेक वर्षों तक इनके घर में चूल्हे ‘हिन्दी’ के कारण जले और परिवार का भरण-पोषण हुआ। ‘हिन्दी’ के प्रति उनकी श्रद्धा और निष्ठा का यह भी एक बड़ा कारण रहा।
संभवतः कठिनाइयों के इन्ही क्षणों में उनका मुझसे भी प्रगाढ़ परिचय हुआ। यह कोई १९८४-८५ का वर्ष रहा होगा। तब मैं अपना प्रकाशन स्थापित कर चुका था। अपना छापाखाना (प्रेस) भी था। ‘पाटलिपुत्र क्रोनिकल’ नाम से एक सांध्य-दैनिक का प्रकाशन भी हो रहा था। उसमें एक पृष्ठ ‘साहित्य’ के लिए भी हुआ करता था। शरण जी उसके लिए लिखा करते थे। उनका सौम्य और निष्ठावान व्यक्तित्व हमारे आत्मीय संबंध का सुदृढ़ आधार था। छोटा प्रकाशन था, इसलिए उनकी सेवाओं का आर्थिक प्रतिदान तो नगण्य माना जाएगा, फिर भी मुझे इस बात का परितोष है कि कठिन समय में हम एक दूसरे के साथ रहे। यह उनकी विशिष्टता थी कि, उन्होंने अपने आर्थिक अभावों को कभी प्रकट नही होने दिया।
शरण जी की माता के हृदय से जो साहित्य का स्रोत फूटा था, उससे उनकी अगली तीन पीढ़ियाँ साहित्य-रस से भीगती रही हैं। स्वयं शरण जी, उनकी पत्नी शैलजा सक्सेना ‘जयमाला’ जी, उनकी पुत्री डा वंदना वीथिका, पौत्री आल्बा रजनीबाला, पौत्र आयुष्य अमिताभ ( दोनों श्री शंभु अमिताभ की संतानें) भी। डा वंदना वीथिका वर्तमान पीढ़ी में एक स्थापित नाम है। रजनीबाला को हिन्दी कविता और संस्मरणों के संकलन ‘मेरी आँखों से’ के लिए न्यू जर्सी (अमेरिका) की प्रतिष्ठित संस्था ‘एडूकेटर्स सोसाइटी फ़ौर हेरिटेज औफ़ इंडिया’ ने ‘बेस्ट मेंशन अवार्ड’ से पुरस्कृत किया है। आयुष्य को भी उसकी अंग्रेज़ी कविता ‘सुपरफिसियलिटी’ के लिए विश्वप्रसिद्ध प्रकाशन संस्था ‘पेग्विन रैंडम हाउस’ ने पुरस्कृत किया है। शरण जी के पुत्र श्री शंभु अमिताभ एरेवान में भारत के राजदूतावास में द्वितीय सचिव और चांसरी के प्रमुख हैं। वे रोम, डकार, अबूजा और न्यूयौर्क के भारतीय दूतावासों में भी सेवा दे चुके हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी भाषा के उन्नयन में अत्यंत मूल्यवान योगदान दे रहे हैं।
शरण जी सात्विक प्रेम और जीवन-मूल्यों के कवि थे। उनकी कविताएँ, पर्वतों से झमाझम उतरती, सरिताओं की तरह, सागर से मिलने की अकुंठ आतुरता के साथ तीव्रता से बहती हुई निकलती हैं। जहाँ-जहाँ भूमि पर वह गहरी होती है, वहाँ स्थिरता भी दिखाई देती है और पूर्णता भी। किंतु उनमें एक लोमहर्षक गति और आनंद है;
“तुम्हारी ज़िद है केवल, किनारों से अलग बहना!
हमारी ज़िद है इतनी, लहर के बीच ही रहना!
बग़ावत है यौवन का, बग़ावत है कि मौसम से!
शिकायत है यही तुमको, शिकायत कुछ नही तुम से!”
प्रेम और सौंदर्य को कवि किस दृष्टि से देखता है, इसकी झलक इन पंक्तियों में मिलती है;-
ओ निर्मम सुंदरता ! तुमसे, भय है इतना प्यार न हो!
उफन पड़ा है मन का सागर, पूनम की है चंद्र किरण!
ओ एकांत रहस्य, बताओ! होती यह कैसी धड़कन!
मदिरिम मौसम में जीवन के, जलता कोई ज्वार न हो!
२ दिसम्बर, २०१७ को, ७९ वर्ष की आयु में डा शरण ने अपने इहलौकिक कर्तव्यों को पूरा कर, निजधाम के लिए विदा हो गए। हिन्दी की भावी पीढ़ियों के लिए थाती के रूप में पर्याप्त सामग्री और आशाएँ छोड़ कर गए हैं। आनेवाली पीढ़ियों पर यह निर्भर है कि उनके द्वारा सौंपे गए पाथेय का वे कितना लाभ उठाती हैं। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष एक हिन्दीसेवी को ‘डा दीनानाथ शरण स्मृति सम्मान’ से विभूषित करता है। इस वर्ष से उनकी पत्नी शैला जयमाला जी के नाम से भी सम्मान आरंभ किया जा रहा है, जो प्रतिवर्ष नवोदित लेखिकाओं को प्रदान किया जाएगा। आज उनकी पावन जयंती पर उनकी ही इन पंक्तियों से श्रद्धा के दो पुष्प समर्पित करता हूँ;-
“जो संवेदन शील हृदय हों, समझेंगे यह गीत!
त्याग-समर्पण-सेवा-संचित, जीवन का संगीत !”