वर्ष का स्मरण नही है। संभवतः २००८ की सर्दियों के दिन थे। मेरे फ़ोन की घंटियाँ बजी! उधर से आवाज़ आई-
“ मैं जमुआर बोल रहा हूँ— सुरेंद्र प्रसाद जमुआर ! आप क्या सुलभ जी बोल रहे हैं?”
मैंने उत्तर दिया- ‘जी हाँ ! बोल रहा हूँ।’
“ आपसे मिलना चाहता हूँ। आपके पास आना चाहता था! — किंतु इधर अस्वस्थ रहता हूँ। यदि आप मेरे घर आ सकते तो, कृपा होती!— मैं अपनी कुछ पुस्तकें देना चाहता हूँ। मेरा घर दुजरा में, मुख्य सड़क के निकट ही है। आपको कोई असुविधा नही होगी”। उनके स्वर में मार्मिकता और विनम्रता का अद्भुत आकर्षण था।
मैंने कहा- “ आप से मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी। शीघ्र ही किसी दिन आपका दर्शन करूँगा।”
इसी वार्ता के साथ जमुआर जी से मेरा परिचय आरंभ हुआ। इसके पूर्व हम, एक दूसरे को, परोक्ष रूप से ही जानते थे। अपनी व्यस्तताओं के कारण मुझे अपना वचन स्मरण नही रहा, या यों कहें कि मुझे शीघ्रता बरतनी चाहिए थी, इसका बोध नही था। अगले सप्ताह उनका फ़ोन पुनः आ गया। फिर तो मुझे निकलना ही पड़ा। सुविधा के लिए, वे स्वयं सड़क पर आ गए थे। राजेंद्र बाबू ( देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद ) के समाधि-स्थल के निकट जमुआर जी अपनी पुस्तकों के साथ खड़े थे। शिष्टाचार आदि के पश्चात, वहीं मैदान में उनसे वार्ता हुई। वे घर चलने का आग्रह कर रहे थे, किंतु मेरा आग्रह स्वीकार कर वे वहीं बैठकर विमर्श के लिए राज़ी हो गए। एक-एक कर उन्होंने अपनी सभी पुस्तकें दिखाईं और कहा कि – ‘बिहार के दिवंगत साहित्यकारों पर लिख रहा हूँ। दो भागों का प्रकाशन हो चुका है। तीसरे पर कार्य चल रहा है। अनेक बाधाएँ हैं। बार-बार आग्रह करने पर भी लोग सामग्रियाँ उपलब्ध नही कराते हैं। आर्थिक अभाव अलग से रहता है। क्रय कर लोग पुस्तकें लेना नहीं चाहते! सभी चाहते हैं कि भेंट में ही पुस्तकें मिल जाएँ। आप ही कहें कि इस प्रकार कोई अभाव-ग्रस्त लेखक, साहित्य की सेवा करे तो कैसे करे?’ ये कुछ पुस्तकें मैं आपके लिए ले कर आया था! एक-एक प्रति आपके लिए भेंट स्वरूप हैं! कुछ प्रतियाँ यदि आप अपने पुस्तकालय के लिए ले लेते तो अच्छा होता!’ उनके स्वर में विनम्र आग्रह था।
मैंने उनसे वो सारी पुस्तकें ले लीं, जो लेकर आए थे और उन सबका मूल्य उन्हें उसी समय दे दिया। वे सबकी एक-एक प्रति का मूल्य नही लेना चाहते थे। मैंने बल-पूर्वक उनके मूल्य भी दे दिए और आश्वासन दिया कि इन सबकी और प्रतियाँ भी ले लेंगे।
तब मैंने उन पुस्तकों का क्रय, एक साहित्यकार की सहायता करने के विनम्र भाव से ही किया था, इसे पढ़कर कुछ लाभ होगा, यह सोंच कर नहीं। किंतु जब एक दिन अवकाश के किसी क्षण में उनकी पुस्तकों को उलट-पलट कर देखा, तब मुझे ज्ञात हुआ कि जिन पुस्तकों को साधारण समझ कर यों रख छोड़ा था, वे अत्यंत श्रम पूर्वक, अपना हृदय निचोड़ कर लिखी गईं, अत्यंत मूल्यवान पुस्तकें हैं। फिर मैं उन्हें पढ़ता गया और मेरे विचार और दृढ़ होते गए। उनको पढ़ने के बाद ही मुझे यह बोध हुआ कि, जो नाम आकाश में उछले हुए होते हैं, मात्र वे ही बड़े लेखक-कवि नही हैं, अनेक बड़े कवि-लेखक तो अलक्षित और अचर्चित ही रह जाते हैं।
उन्हीं अलक्षित और अचर्चित साहित्यकारों में डा सुरेंद्र प्रसाद जमुआर भी हैं, जिन्होंने जीवन-पर्यन्त साहित्य ही नही साहित्यकारों की भी साधना की, अनेकों अलक्षित साहित्यकारों को प्रकाश में लाया। साहित्य का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है, कि उन्हीं पर किसी समालोचक की दृष्टि नही गई, जबकि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती और कतिपय समकालीन, पर दिवंगत हो गए, अनेक समालोचकों पर भी कलाम तोड़कर कर लिखा था। दिवंगत साहित्यकारों को जीवित रखने का जो महान कार्य उन्होंने किया, वैसा कार्य बहुत थोड़े लोग कर सके हैं। स्तुत्य लेखक क्षेमचंद्र ‘सुमन’ जिन्होंने ‘दिवंगत हिन्दी सेवी’ नामक ग्रंथ लिखा और साँवलिया बिहारी लाल वर्मा (गद्य चंद्रोदय तथा गद्य चन्द्रिका के लेखक) के बाद इस ऐतिहासिक कार्य के लिए जिस अण्वेषक साहित्यकार का नाम आदरपूर्वक लिया जा सकता है, तो वह जमुआर जी के अतिरिक्त और कोई नही हो सकता। यों तो अनेक विद्वान समालोचकों और लेखकों ने ‘स्मृति-तर्पण’ के निमित्त अपने चहेते साहित्यकारों पर लिखे। किंतु वे नाम प्रायः ही ‘बड़े और चर्चित’ थे। जमुआर जी ने उन सैकड़ों अलक्षित लेखकों को भी ‘प्रकट’ किया, जो न जाने विस्मृति के किन अंधेरी गुफ़ाओं और खोहों में खो चुके थे।
अपने अध्ययन और फिर बाद में अनुशीलन के क्रम में मैंने यह अवश्य पाया कि जमुआर जी के निबंधों में, उन साहित्यकारों के संबंध में कतिपय पक्ष छूट गए, किंतु उन्हें साहित्यकारों के संबंध में सामग्रियाँ कितनी और कितनी कठिनाइयों से मिली होगी, इसका अनुमान मैं कर सकता हूँ। अपने स्वार्थ में अपने पिता को भूलते जा रहे समाज में अपने पूर्वजों को स्मरण रखने वाले और उनकी स्मृतियों को संजोने वाले भला कितने लोग ही मिलते हैं? कौन अपने पूर्वजों की स्मृति को पीढ़ियों तक बचा कर रखता है? कौन उनकी कीर्ति को आगे लाना चाहता है। ऐसे में कोई दूसरों की स्मृति को जीवित करने का प्रयास कौन करता है? ऐसे कार्य जमुआर जी जैसे विनम्र, अनुशीलन-व्यसनी और भावितात्मा साहित्यकार ही कर सकते हैं।
जमुआर जी बाल्य-काल से ही प्रतिभा-संपन्न अण्वेषण-प्रिय और संकल्प के धनी व्यक्ति रहे। उनका जन्म १ जुलाई, १९३९ को, पटना के दुजरा मुहल्ले में हुआ था। उनके पिता श्री यदुनाथ सहाय, जो मूल रूप से नालंदा जिले के रहुई प्रखंड स्थित उत्तरनामा ग्राम के वासी थे, सन १९२८ में यहाँ अपना घर बना लिया था। वे राज्य सरकार के निबंधन-विभाग में उपनिबंधक हुआ करते थे। १९५३ में, पटना के मीलर स्कूल (अब शहीद देवीपद चौधरी उच्च विद्यालय) से प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात जमुआर जी आरा चले गए। तब उनके पिता वहीं पदस्थापित थे। १९५७ में हरिप्रसाद दास जैन कालेज, आरा से प्रतिष्ठा के साथ हिन्दी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। पुनः पटना वापस आकर १९५९ में पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर हुए।
जीविका की खोज में लगे तो लोक निर्माण विभाग में सहायक का कार्य मिला। यह उनकी प्रकृति के प्रतिकूल था। साहित्य की कोमल-भावनाओं और उससे निःसृत रस में डूबा रहने वाला व्यक्ति, एक नीरस और विलोम मुद्रा में कितने दिनों तक रह सकता था! उनके भीतर साहित्य और लेखन के प्रति जो आकूलता थी, वह उन्हें निरंतर मथती रहती थी। उन्होंने व्याकुलता और त्रास के कुछ वर्ष किसी तरह बिताए! दो-तीन वर्षों की तपस्या-पूर्ण प्रतीक्षा के पश्चात उन्हें उनके घाम-त्रस्त मन को साहित्य-वट की छांव और मलयांचल की शीतल सुगंधित वायु मिली। वे बिहार सरकार के राजभाषा विभाग में ‘राजभाषा अधिकारी’ हो गए। इस प्रकार, जीवन-यापन की समस्या भी समाप्त हुई, और प्रवृति के अनुरूप वृति भी मिली।
जीवन-यापन की समस्या से निश्चिन्त होते ही, जमुआर जी अपने साहित्यिक अभीष्ट की सिद्धि हेतु प्राणापान से संलग्न हो गए। अपने अध्ययन काल में ही इन्होंने यह अनुभव किया था कि, हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में, बिहार के साहित्यकारों ने अमूल्य योगदान दिए हैं, किंतु ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में उनका कहीं नाम नही है। जिनके नाम भी आए हैं वे बड़े ‘गौण’ रूप में हैं। यह बात जमुआर जी के मन को सदा व्यथित करती रही थी। इसी व्यथा से एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी संकल्प का जन्म हुआ। उन्होंने निश्चित किया कि वे बिहार के साहित्यकारों पर लिखेंगे। ‘बिहार के दिवंगत हिन्दी साहित्यकार’ का प्रथम खंड का प्रकाशन १९८७ में, ‘पारिजात प्रकाशन’, पटना द्वारा तथा द्वितीय खंड का प्रकाशन सन २००० में,’मेधा बुक्स’, नई दिल्ली द्वारा हुआ। इनके अतिरिक्त ‘बिहार के रचनाकर्मियों की साहित्य-यात्रा’ ( २००५ ) तथा ‘बिहारेत्तर रचनाकर्मियों की साहित्य यात्रा’ ( २००८ ) का प्रणयन भी उनके उसी संकल्प का महनीय सुफल है। इन पुस्तकों से होकर गुज़रना, बिहार के तीर्थ-मंडल की यात्रा की भाँति पावन और सुखदाई है। इन्हें पढ़कर ही हम समझ सकते हैं कि, उन्होंने बिहार के साहित्यिक अवदानों की कैसी प्रतिष्ठा दी है। आज हम यह कहने की स्थिति में हैं कि जमुआर जी ने भले हीं ‘साहित्य का इतिहास’ नही लिखा हो, पर उन्होंने ‘बिहार के साहित्यकारों का इतिहास’ अवश्य लिखा, जो आने वाली पीढ़ियों और शोधार्थियों के लिए ऐतिहासिक थाती और पाथेय सिद्ध होगा।
साहित्य में जमुआर जी की विशेष रुचि आलोचना विधा में रही और उन्होंने सैकड़ों पुस्तकों की आलोचनाएँ लिखीं, जिनका देश भर की पत्रिकाओं में प्रकाशन होता रहा। किंतु आलोचना-साहित्य में उनकी एक मात्र पुस्तक प्रकाशित हो पायी, उसका नाम है- ‘साहित्यिक-विधाएँ और राजभाषा’ । इसका प्रकाशन २००३ में ‘मेधा-बुक्स’, नई दिल्ली से हुआ था। ‘वन्दना कुटीर’ (जमुआर जी का आवास) का उनका कक्ष पुस्तकों और पांडुलिपियों से पटा रहता था। पूरी-अधूरी सामग्रियों के सैकड़ों बंडलों से उनका घर सितारों भरे आकाश की भाँति आच्छादित रहता था, जिनके बीच वे सप्त-ऋषियों में से एक ऋषि की भाँति लिपि-साधना में निमग्न रहा करते थे। यहीं से ‘भक्त-कीर्तन-मंडली’, ‘लोक साहित्य परिषद’, ‘भक्त बंधु पुस्तकालय’ तथा ‘केंद्रीय मगही परिषद’ जैसी साहित्यिक और सारस्वत संस्थाओं का संचालन किया करते थे। सरकार की सेवा में जाने से पूर्व तक, बिहार की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका ‘ज्योत्सना’ के संपादकीय विभाग तथा ‘हिंदुस्तान समाचार एजेंसी’ के लिए संवाद-लेखन का कार्य भी किया।
जमुआर जी ने मागधी होने का भी अपना कर्तव्य पूरा किया और ‘मगही’ में भी यथेष्ट रचनाएँ की। ‘पँचंगा’ उनके मगही में लिखे ललित-निबंधों का संग्रह है। केंद्रीय मगही परिषद’ के तत्त्वावधान में निरंतर साहित्यिक आयोजन करते रहे। उन्होंने ‘रहे अजेय हिमालय’ (काव्य-संकलन) का संपादन भी किया था।
७ अगस्त २०१७ को ये ऋषि-तुल्य साधक, अपने लौकिक शरीर का त्याग कर, सप्त-ऋषियों के तारा-मंडल में सुशोभित हो गए। किंतु उनके द्वारा प्रदत्त साहित्य-रश्मियाँ आने वाली पीढ़ियों को, अनुशीलन के अंधेरे मार्गों में सदा ही प्रकाश प्रदान करती रहेंगी। साहित्यिक चेतना से संपन्न, जमुआर जी के पुत्र डा ओम् प्रकाश जमुआर, उनकी उच्च साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाने की चेष्टा कर रहे हैं। इन्होंने जमुआर जी की अंतिम कृति ‘बिहार के दिवंगत हिन्दी साहित्यकार’ के तीसरे और अंतिम खंड का प्रकाशन (राष्ट्रभाषा परिषद,बिहार से) कराकर अपने पुत्र-धर्म का ही परिचय दिया है। किंतु मेरा विश्वास है कि उनके अनेक ललित और आलोचनात्मक-निबंध अप्रकाशित हैं, जिनका संग्रह कर प्रकाशन किया जाना चाहिए। यश की कामना से सर्वथा दूर रहे, साहित्य की एकांतिक साधना में लीन एक तपस्वी के प्रति, यही सच्ची-श्रद्धांजलि हो सकती है।