पटना, ३ जुलाई। राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित संस्कृत के महान आचार्य और दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति आचार्य आद्याचरण झा, संस्कृत को लोप-गह्वर से निकालने के लिए, जीवन भर संघर्ष करते रहे। अपने सामर्थ्य भर उन्होंने कोई यत्न नही छोड़ा। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों में ‘संस्कृत’ अनिवार्य किया जाए, इस हेतु भी उन्होंने समस्त उपक्रम किए। उनके प्रयासों का कुछ फल भी हमें मिला, किंतु वह जो अपेक्षित है, उसकी ओर हमारा ध्यान अब तक नहीं गया है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। आद्या बाबू का मानना था कि भारत को पीछे मुड़कर, अपने संस्कृत साहित्य की ओर देखना चाहिए, जिसमें हमारी बहुआयामी उन्नति के मार्ग हैं।
यह बातें शुक्रवार को, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में, आद्या बाबू की जयंती पर आयोजित पुष्पांजलि कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए,सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, आद्या बाबू का पूरा घर संस्कृतमय था। उनकी धर्म-पत्नी भी संस्कृत की विदुषी थी। उन्होंने राम-कथा से जुड़े संपूर्ण वांगमय का संस्कृत अनुवाद किया था। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा शंकर दयाल शर्मा आद्या बाबू की विद्वता से इतने प्रभावित थे की उन्होंने न केवल आद्या बाबू को राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित किया, बल्कि संस्कृत की सेवा के लिए दिए जाने वाले ‘राष्ट्रपति-सम्मान’ के लिए चयन करने वाली समिति का भी उन्हें सदस्य बनाया। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी, अनुवाद भी किए और एक पुस्तकालय की भी स्थापना की।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद कुमार अनुपम, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, कृष्णरंजन सिंह, प्रणब कुमार समाज़ेदार, बाँके बिहारी साव,अमित कुमार सिंह, सलोनी कुमारी, रूपेश शर्मा तथा अमरेन्द्र झा ने भी भावांजलि दी।
कौशलेन्द्र पाण्डेय.