बहुभाषाविद विद्वान और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा, बीसवीं शताब्दी के आकाश के एक ऐसे सारस्वत नक्षत्र थे, जिन पर बिहार को ही नही संपूर्ण भारतवर्ष को गर्व हो सकता है। वे संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, गुजराती, मराठी, बंग्ला, मैथिली और भोजपुरी जैसी भारतीय भाषाओं के निष्णात विद्वान ही नही, अंग्रेज़ी, रूसी, फ़्रेंच, जर्मन, ग्रीक और लैटिन जैसी पारदैशिक भाषाओं के भी स्तुत्य ज्ञाता थे। एक महान भाषा वैज्ञानिक के रूप में तथा रचनात्मक और आलोचनात्मक साहित्य में चमत्कृत करने वाला उनका अवदान, उनकी कारयत्री प्रतिभा का अनुपमेय दृष्टांत है। उनके काव्य-शास्त्रीय चिंतन तथा प्रज्ञा की ऊँचाई, संस्कृत काव्य-शास्त्र के सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ, भामह के ‘काव्यालंकार’ पर लिखा गया उनका भाष्य, ‘भाषा विज्ञान की भूमिका’ तथा ‘पाश्चात्य काव्यशास्त्र’ आदि ग्रंथों में देखी जा सकती है। वे एक ऐसे विलक्षण विद्वान थे, जिन्हें भारत के प्राचीन पाणिनीय व्याकरण-शास्त्र पर भी अधिकार था और पाश्चात्य काव्यशास्त्र पर भी। उन्हें इंग्लैंड के महान भाषाशास्त्री प्रो जे आर फ़र्थ के सान्निध्य में कार्य करने और उनकी प्रशंसा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बहुआयामी सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी आचार्य जी विद्वता के जीवंत विग्रह थे। यदि ‘विद्वता’ को संज्ञा दी जा सके तो उसे ‘आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा कहा जा सकता है। वे पुरातन और नूतन ज्ञान के अद्भुत संगम थे !
अपने काव्य-शास्त्रीय ग्रंथों; ‘अलंकार मुक्तावली’ (१९४८), भामह विरचित काव्यालंकार (संस्कृत) का हिन्दी भाष्य (१९६२), ‘काव्य के उपादान’ (१९८१), पाश्चात्य काव्यशास्त्र (१९८४), भाषाशास्त्रीय ग्रंथ;- ‘राष्ट्र भाषा हिन्दी : समस्याएँ एवं समाधान’ (१९६५), ‘भाषाविज्ञान की भूमिका’ (१९६६), ‘हिन्दी भाषा और नागरी लिपि’ ( १९७२ ), समालोचना-ग्रंथ;- ‘ब्रजभाषा की विभूतियाँ’ ( १९४९ ), ‘साहित्य समीक्षा’ (१९५१), ‘हिन्दी कवियों का मूल्यांकन’ (१९५२), नाट्य-साहित्य ;- ‘पारिजात मंजरी’ (१९४९ ), बिखरी स्मृतियाँ’ ( १९५८ ), ‘शाहजहाँ के आँसू’ (१९६४ ), ‘मेरे श्रेष्ठ रंग एकांकी’ ( १९९० ), निबंध संग्रह; ‘खट्टा मीठा’ ( १९५० ), ‘आईना बोल उठा’ ( १९६४ ), ‘प्रणाम की प्रदर्शनी में’ ( १९८० ), अनुवाद-साहित्य; ‘एवेरेस्ट का आरोहण’ ( १९५५ ), ‘लौटरी का टिकट’ ( १९६४), मनो-विश्लेषण और साहित्यालोचन’ (१९६९), संपादित ग्रंथों;- ‘साहित्यिक निबंधावली’ (१९४६), ‘छायावाद और प्रगतिवाद’ (१९५०), ‘रिचर्ड्ज़ के आलोचना सिद्धांत’ (१९६८), ‘हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास- भक्तिकाल (सगुण भक्ति), ‘अमर भारती’ ( १९६७ ), ‘उपन्यास का शिल्प’ (१९७३) तथा ‘शैली’ (१९७३ ) जैसे महनीय ग्रंथों से साहित्य-संसार को समृद्ध करने वाले इस चमत्कारी मनीषी के लिए और कोई दूसरी संज्ञा हो भी क्या सकती है!
जब हम आचार्य जी के संपूर्ण सारस्वत व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन करते हैं तो हमें उनका ‘बाल-कांड’ ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है, क्योंकि इसी काल में उनके अंतर में प्रज्ञा की वह अलौकिक ज्योति जली थी, जिसके प्रकाश में उन्होंने जीवन के समस्त उज्ज्वल पक्षों को गहरी दृष्टि से देखा। आपका जन्म ७ जुलाई, १९१८ को, सारण ( अब गोपालगंज ) ज़िला के कृतपुरा ग्राम में एक अत्यंत प्रतिष्ठित सारस्वत परिवार में हुआ था। आपके पूज्य पिता पं शिवनारायण शर्मा अपने समय के, रूढ़ि-भंजक और आधुनिक सोंच रखने वाले सुप्रतिष्ठ विद्वान तथा मोतिहारी धर्म समाज महाविद्यालय के प्राचार्य थे। आपकी माता समादरणीया क्षीरा देवी भी आध्यात्मिक-दृष्टि रखनेवाली एक विदुषी महिला थी। यह वह काल था जब महिलाओं की शिक्षा अनावश्यक ही नही निंदनीय मानी जाती थी। क्षीरा देवी के भीतर प्रच्छन्न ज्ञान-पिपासा को अपनी सूक्ष्म-दृष्टि से ताड़कर पण्डित जी ने स्वयं उनको शिक्षा प्रदान की थी।
ऐसी सारस्वत और उर्वरा पृष्ठ-भूमि में मेधा-संपन्न पुत्र का त्वरित और गुणात्मक विकास क्यों न होता! बालक देवेंद्र की प्रच्छन्न प्रतिभा शीघ्र ही मुखरित होने लगी। किंतु अबोध देवेंद्र को मिल सकने वाली माँ की ममता भरी छांव को आयु नही मिली। पाँच वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी पुत्र-वत्सला माँ को सदा के लिए खो दिया। आपकी एक मात्र बड़ी बहन रामसखी ने आपका लालन-पालन किया। पिताश्री ने, जो मोतिहारी धर्मसमाज महाविद्यालय में प्राचार्य थे, पुत्र को अपने सान्निध्य में ले आए । संस्कृत-शास्त्रों का अध्यापन स्वयं ही करते थे और आधुनिक शिक्षा के लिए, पुत्र का नामांकन मोतिहारी ज़िला स्कूल में करा दिया। बालक की कुशाग्र-बुद्धि, काल की गति के साथ और भी प्रखर होती गई। प्रज्ञा-प्रदान करने वाली वैदिक-ऋचाओं ने उनकी प्रतिभा का परिष्कार किया तथा वे शीघ्र ही, माँ के निधन के मानसिक क्लेश से निकलकर, माता सरस्वती की गोद में जा बैठे। उत्कृष्ट अंकों के साथ प्रवेशिका में सफल हुए तो पिता ने उच्च शिक्षा के लिए पटना भेज दिया। पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने संस्कृत में स्नातक और स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत में साहित्याचार्य तथा स्नातकोत्तर, दोनों की ही परीक्षाओं में उन्होंने अपनी दिव्य मेधा का परिचय दिया। संस्कृत-स्नातकोत्तर की इस परीक्षा (१९४०) के परिणाम में स्थापित किया गया उनका कीर्तिमान आगामी ३० वर्षों तक अविजित रहा।
आचार्यजी की विद्वता और संस्कृत-ज्ञान की उनकी पृष्ठभूमि उन्हें सदैव शीर्ष पर रखती रही। उन्होंने अपने अध्यापकीय जीवन का आरंभ संस्कृत के प्राध्यापक के रूप में ही किया। किंतु कुछ ही काल के पश्चात उन्होंने आंतरिक प्रेरणा से हिन्दी का मार्ग चुना। सबसे पहले वर्ष १९४२ में, हिन्दी विषय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इस परीक्षा में भी वे कीर्तिमान अंकों के साथ सफल हुए। वे शीघ्र ही पटना महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। तब बिहार में एक मात्र विश्वविद्यालय, ‘पटना विश्वविद्यालय’ ही था। जब मुज़फ़्फ़रपुर में’विहार विश्वविद्यालय’ की स्थापना की गई, तब आचार्य जी को, उसके हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित कर भेजा गया। यह १९५६ का वर्ष था और आचार्य जी मात्र ३८ वर्ष के थे। यहाँ उन्होंने सात वर्षों तक मूल्यवान सेवाएँ दी। फिर उन्हें १९६३ में पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक-सह अध्यक्ष के रूप में पटना बुला लिया गया। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग, संपूर्ण भारतवर्ष में प्रशंसित हुआ और उनके मार्ग-दर्शन में अनेको शोध हुए। वे अपने अधीनस्थ प्राध्यापकों को भी, शोधादि अन्य शैक्षणिक कार्यों की प्रेरणा देते रहे।
हिन्दी और संस्कृत के प्रति उनकी अगाध भक्ति थी और वे मानते थे कि जबतक संपूर्ण भारतवर्ष में हिन्दी को प्रेम से नहीं स्वीकार किया जाता तब तक हमें पूरी स्वतंत्रता नही मिल सकती। कभी कभी वे निराशा में यह भी कह बैठते थे कि भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्र होने में दो सौ वर्ष लगेंगे। उनका मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता नही है। वास्तविक स्वतंत्रता तो तब आती है जब देश का मानस स्वतंत्र हो। तभी देश का गौरव-बोध जागता है। हिन्दी के लिए और शैक्षणिक-कार्यों के निमित्त, उन्होंने इंग्लैंड,फ़्रांस, जर्मनी, इटली, स्विट्ज़रलैंड,सोवियतसंघ, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया, कोरिया, मौरिशस, नेपाल आदि विदेशों की भी अनेक यात्राएं की। १९५२ से ५४ तक वे लंदन विश्वविद्यालय में रहे। यहीं उन्हें प्रो जे आर फ़र्थ के सान्निध्य में भाषा-शात्र पर कार्य करने का अवसर मिला। प्रो फ़र्थ आचार्य जी की प्रतिभा और भाषिक-ज्ञान से चमत्कृत रहते थे।
आचार्य जी ‘हिन्दी’ के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ‘नेशनल फ़ेलोशिप’ दिया था। वे पटना विशविद्यालय और दरभंगा विशविद्यालय के कुलपति, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष, बिहार अंतर-विश्वविद्यालयबोर्ड के अध्यक्ष, संस्कृत अकादमी के अध्यक्ष, भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष, ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर समिति के सदस्य, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि सरकारों की पुरस्कार समिति के सदस्य, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के भारतीय भाषाओं के पैनल के अध्यक्ष, केंद्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे। वे इनके अतिरिक्त केंद्र और राज्य सरकारों की अनेक समितियों और ग़ैर सरकारी सारस्वत संस्थाओं से जुड़े रहे। वे पटना के एक महत्तवपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र ‘बिहार आर्ट थियटर के भी अध्यक्ष रहे। आचार्य जी के प्रताप और प्रयास से ही इस संस्था को पटना के हृदय-स्थल गांधी मैदान के सटे पूर्व में राज्य सरकार से भूमि प्राप्त हुई, जिसमें संस्था का कार्यालय और ‘कालिदास रंगालय’ नामक प्रेक्षागृह है। इसका नामकरण भी आचार्य जी ने ही किया था। आचार्य जी जिन संस्थाओं के अध्यक्ष रहे, उन सब पर उनके महान व्यक्तित्व की गहरी छाप रही।
उनकी ख्याति एक कुशल नाटककार के रूप में भी थी और उनके नाटक प्रायः ही मंचित किए जाते थे। नाट्य-कला से जुड़ी शायद ही कोई संस्था हो, जिसने आचार्य जी के नाट्य-साहित्य को मंच पर न उतारा हो। ‘शाहजहाँ के आँसू’ की अनेक प्रस्तुतियाँ, भिन्न-भिन्न संस्थाओं द्वारा, विभिन्न प्रेक्षागृहों में की जाती रही। अनेक मंचनों का साक्षी होने का सौभाग्य मुझे भी हुआ। उनकी एकांकियाँ पठनीयता और मंचीयता की प्रमाण सिद्ध हुईं।
आचार्य शर्मा के व्यक्तित्व और गुणों के इतने आयाम थे और उनका आभा-मण्डल इतना व्यापक था कि सबका उल्लेख भी एक आलेख में संभव नहीं है, चर्चा की तो बात ही और है। उनका निजी जीवन, उनकी मान्यताएँ, उनका चिंतन, उनका ज्ञान, रुचि और अनुशासन, सब कुछ एक आदर्श और हमारे लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत है। समय के प्रति उनकी निष्ठा अकुंठ थी। वे कहा करते थे कि ‘जो समय की क़द्र नही करता, समय भी उसकी क़द्र नही करता’। उनकी मान्यता थी कि उसी व्यक्ति का जीवन सफल है जो निराश्रित हुए अपना देह छोड़ता है। वे कहा करते थे कि, “मैं प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे जीवन में किसी की सेवा न लेनी पड़े, और मैं अपना काम करता हुआ, इस दुनिया से जाऊँ’।
परमात्मा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की। १७ जनवरी १९९१ को, स्टील औथोरिटी औफ़ इंडिया द्वारा होटेल चाणक्य, पटना में आयोजित एक सभा में अपने अविस्मरणीय व्याख्यान देने के पश्चात, जब वे अपने आसान पर बैठे, तो वहीं देह छोड़ दिया। वे उस सभा के मुख्यअतिथि थे। एक लोक-मंगलकारी विद्वान के लिए, इससे महान मृत्यु और क्या हो सकती थी ! किंतु उनके निधन से संपूर्ण विद्वत समाज अगले अनेक दिवस तक शोक में डूबा रहा! सबके हृदय से यही करुण-स्वर निकल रहा था -“आज एक प्राणवान व्यक्तित्व नही रहा!”
मेरी दृष्टि में भले ही आचार्य जी भौतिक देह से नही रहे, किंतु अपने विपुल साहित्य और कभी न मिटने वाली स्मृतियों में वे सदैव जीवित रहेंगे। उन्होंने अपनी विद्वत संतति भी छोड़ी। उनकी पुत्री प्रो दीप्ति शर्मा त्रिपाठी एक विदुषी प्राध्यापिका और लेखिका के रूप में, आचार्य जी की यश-ज्योति को घृत दे रही हैं। उनके ज्येष्ठ पुत्र डा विनयशील गौतम प्रबंधन-विज्ञान और साहित्य के प्रख्यात विद्वान और दूसरे पुत्र डा विजयशील गौतम लंदन में यशमान चिकित्सक हैं।