पटना,९ जुलाई। राजनैतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नेताओं के कारण, देश की राजभाषा के रूप में अंगीकार की गई भाषा ‘हिन्दी‘ को उसका स्थान और सम्मान आज तक नहीं मिला और विदेश की एक भाषा आज भी हमारे ऊपर शासन कर रही है। आश्चर्य होता है कि, देश की किसी भाषा के स्थान पर विदेशी भाषा के ज्ञान पर लोगों को गर्व होता है, और अपने देश की भाषा नही बोल सकते तो उन्हें शर्म नही आती। समस्त देश–वासियों के मन में ‘हिन्दी‘ के प्रति वही सम्मान का भाव आना चाहिए, जो भाव हमारे राष्ट्र–ध्वज के लिए है।
यह बातें गुरुवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में साहित्यिक समाचारों की त्रैमासिक पत्रिका ‘नया भाषा भारती संवाद‘ के २०वें वर्ष के ४थे अंक का लोकार्पण करते हुए, सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने पत्रिका के दुर्घायु होनेपर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, राष्ट्र–भाषा हिन्दी के प्रति पूरे देश में जागृति फैलाने में इसकी भूमिका की सराहना की। उन्होंने कहा कि देश में एक राष्ट्र–ध्वज और एक राष्ट्र–चिन्ह की तरह एक ‘राष्ट्र–भाषा‘ होनी चाहिए। प्रांतों की भाषाएँ अलग–अलग हों, तो कोई बात नहीं पर देश की भाषा एक ही होनी चाहिए!
इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत करते हुए, पत्रिका के संपादक सह–संपादक बाँके बिहारी साव ने पत्रिका के पाठकों के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट किया। उन्होंने कहा कि, जिस प्रकार देश भर के हिंदी प्रेमी पाठकों ने, विशेष कर दक्षिण–भारत के हिंदी–प्रेमियों ने इस पत्रिका का हृदय से स्वागत किया है और अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया दी है,उससे पत्रिका परिवार को बड़ा हीं प्रोत्साहन और उत्साह प्राप्त हुआ है। यह पत्रिका विदेशों में भी जाने लगी है और उनकी चेष्टा रही है कि, दश भर में जहाँ भी हिंदी के लिए कार्य हो रहे हैं, उन्हें पत्रिका में स्थान मिले। इसलिए भी इसकी लोकप्रियता बढ़ी है। यह एक अत्यंत शुभकारी और सुखद संदेश है, जो यह भी संकेत देता है कि, हिंदी के प्रति कहीं भी अब दुराग्रह नही है।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, कुमार अनुपम, डा मनोज कुमार, डा विनय कुमार विष्णुपुरी तथा कृष्ण रंजन सिंह ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर सच्चिदानंद शर्मा, कुमारी मेनका, अमरेन्द्र झा, निशिकांत मिश्र आदि हिंदी–प्रेमी और प्रबुद्धजन उपस्थित थे।।
कौशलेन्द्र पाण्डेय