साहित्य-संसार में अनेक ऐसी स्तुत्य विभूतियाँ हुई हैं, जिन्हें पर्याप्त औपचारिक शिक्षा के अवसर नही मिले, किंतु उन्होंने स्वाध्याय और चिंतन से वह विभूति पायी, जिससे संसार को विपुल प्रकाश प्राप्त हुआ। उन्हीं विभूतियों में, बिहार के साधु साहित्यकार, पत्रकार और प्रकाशक प्रणम्य पुरुष मदन मोहन पाण्डेय का नाम भी परिगणित होता है। गांधीवाद के जीवंत प्रतीक के रूप में चर्चित रहे पाण्डेय जी, ‘सादा-जीवन और उच्च विचार’ के भारतीय ‘आर्ष-वाक्य’ के भी जीवंत-विग्रह थे। नियम, सिद्धांत, संकल्प और आत्म-निर्भरता के ऐसे पक्के कि अपने वस्त्र ही नहीं धोते थे, बल्कि अपना भोजन भी स्वयं पकाते थे। अपने स्वाध्याय, सेवा और परिश्रम से जो कुछ भी अर्जित किया था, साहित्य-देवता को अर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी कारयत्री प्रतिभा से साहित्य-सृजन, पत्रकारिता, प्रकाशन और संपादन के सारस्वत क्षेत्रों को संवलित किया। वे, प्रौढ़, गुरु-गंभीर चितन और दर्शन परोसने वाले ही नही, बाल-मानोविज्ञान की भी गहरी समझ रखने वाले विद्वान थे। उन्होंने अपने लेखन का तीन चौथाई अवदान बाल-साहित्य को दिया तथा १५ से अधिक ग्रंथ ‘बाल-साहित्य’ को अर्पित किए। ‘अनु-चिंतन’ (१९६२), ‘साहित्यिक अनुस्मृतियाँ’ (१९८७) और ‘अनुचित: जीवन-सूत्र’ (१९९३) उनके बहु-चर्चित और समादृत ग्रंथ हैं, जिनमे भारतीय साहित्य, दर्शन और बिहार के साहित्यिकों के अवदानों की विशद चर्चा मिलती है। उन्होंने पटना में ‘ज्ञानपीठ प्रा0 लि0’ नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की थी, जहाँ से हिन्दी के अनेक मानक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। यही से ‘पुस्तक-जगत’ नामक साहित्यिक-आलोचना की बहु-चर्चित मासिक पत्रिका उन्हीं के संपादन में प्रकाशित होती रही। हिन्दी विद्यापीठ, देवघर, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, बिहार पुस्तक व्यवसायी संघ, अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ को दी गई सेवाओं के लिए भी वे सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे।
बिहार के भोजपुर जिले में, गंगा और सोन नदियों के संगम की साक्षी ‘बबुरा’ नामक ग्राम में, १३ जुलाई १९०९ को इस धरा पर अवतरित हुए पाण्डेय जी की औपचारिक शिक्षा केवल ‘प्रवेशिका’ (वर्ष-१९३४) तक हो पाई। यह वही वर्ष था, जब संपूर्ण बिहार भीषण-भूकंप की विभीषिका झेल रहा था। भूकंप से भयानक रूप से काँप उठी धरती अनेक स्थानों पर फट पड़ी थी। जन-धन की भीषण क्षति हुई थी। अनेकों बच चुके लोग भी अपने घर और संपत्ति से वंचित हो चुके थे। अनेकों चोट-ग्रस्त लोग विभिन्न अस्पतालों में जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे, जिन्हें सहायता देने वाले भी उनके सगे बचे न थे। इस हृदय-विदारक और चिंतनीय काल में चेतना संपन्न अनेक समाजसेवी और स्वतंत्रता-सेनानी कांग्रेसियों ने प्राणापान से पीड़ितों की सेवा की। उन्हीं सेवा-कर्मियों में पाण्डेय जी भी सम्मिलित हो चुके थे। इसी सेवा कार्य में उन्हें महात्मा गांधी के सहयोगियों और गांधीजी के विचारों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यही उनके जीवन के एक नई दिशा में बढ़ने का ‘प्रस्थान-बिन्दु’सिद्ध हुआ और मन में जन-सेवा, साहित्य-सेवा और स्वाध्याय के महान संकल्प ने जन्म लिया।
अपने इसी संकल्प को पूरा करने के लिए १९३७ में उन्होंने मुंगेर में ‘पब्लिशिंग हाउस’ नाम से एक प्रकाशन संस्थान और पुस्तक विक्रय केंद्र की स्थापना की। १९३८ में यही से ‘प्रभाकर’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन भी आरंभ किया। वे ‘प्रभाकर-प्रेस’ नामक अपना छापाखाना भी स्थापित कर चुके थे। वर्ष १९४९ तक वे मुंगेर में रह कर प्रकाशन, संपादन और लेखन के कार्य करते रहे। उनके रचनात्मक, विनम्र और प्राणमय-प्रज्ञा से युक्त व्यक्तित्व की प्रबुद्ध-समाज में समादरणीय प्रतिष्ठा हो चुकी थी। किंतु उन्हें यह प्रतीत हुआ कि उनके कार्यों को व्यापक वितान और अवसर तब मिलेगा जब वे प्रदेश की राजधानी में होंगे।
वर्ष १९५० में पाण्डेय जी पटना आ गए और यहीं उन्होंने ‘ज्ञानपीठ प्रा०लि०’ नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की, जिसने उन्हें साहित्य-सेवियों के बीच में महनीय स्थान प्रदान किया। अगले १५ वर्षों तक इस प्रकाशन संस्थान की धूम मची रही। ‘पुस्तक-जगत’ नामक साहित्य और साहित्यालोचन की एक मासिक पत्रिका आरंभ की, जो समकालीन साहित्यकारों के विमर्श का सारस्वत केंद्र बन गई। अपने विद्वतापूर्ण संपादकीय, निबंधों और समालोचनाओं से उन्होंने सिद्ध किया कि शिक्षा और ज्ञान की प्राप्ति केवल विश्वविद्यालयों के परिसर में ही नही होती, बल्कि जीवनानुभूति और संसार की कार्यशाला से ही उत्तम रीति से प्राप्त होती है। स्वाध्याय और श्रम से जो अर्जित किया जा सकता है, वह किसी विश्वविद्यालय से भी नही मिल सकता।
पाण्डेय जी का व्यक्तित्व बहु-आयामी था। उन्हें ‘मिथिला पेंटिंग्स’ में भी महारत हासिल थी। वे, पं छविनाथ पाण्डेय की भाँति ‘मुद्रण-कला’ के भी विशिष्ट विद्वान माने जाते थे। डा मधुकर गंगाधर के कहानी-संग्रह ‘तीन रंग, तेरह चित्र’ के प्रकाशन के लिए, भारत सरकार ने उन्हें मुद्रण-कला में विशिष्ट अवदान के लिए ‘सम्मान-पत्र’ (१९६४) से विभूषित किया था। उनके प्रकाशन संस्थान ‘ज्ञानपीठ’ को भी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
प्रकाशन और संपादन की तीन दशक की अनवरत और कठोर साधना से थक चुके देह को विश्रांति देने के लिए उन्होंने वर्ष १९६९ में, प्रकाशन के कार्य से अवकाश ले लिया और अपना सारा ध्यान सृजन पर केंद्रित किया। स्वतंत्र और रचनात्मक लेखन के लिए, उनके अंतर में विशाल सामग्री तैयार पड़ी थी। ‘साहित्यिक अनुस्मृतियाँ’ (१९८७) और ‘अनुचित: जीवन-सूत्र’ (१९९३) जैसे अत्यंत महनीय ग्रंथ उसके प्रमाण हैं। ‘साहित्यिक अनुस्मृति’ पर अपनी भूमिका लिखते हुए, हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार क्षेमचंद्र सुमन ने सत्य ही कहा था कि “संस्मरणों का इतिहास’ का बोध करानेवाली यह कृति वास्तव में, बिहार की साहित्यिक-साधना को समझने की दिशा में एक अमूल्य निधि कही जा सकती है। साहित्य-कर्म के अविश्रांत पथिक पाण्डेय जी ने अपने कर्म-संवलित जीवन का प्रारंभ जहाँ एक उत्कृष्ट पत्रिका के प्रकाशन के रूप में किया था, वहाँ मुद्रण तथा प्रकाशन के क्षेत्र में भी उन्होंने एक नई दिशा का निर्माण किया है”।
नव-लेखकों ने उनका बड़ा ही मोह-भंग किया था। इस संबंध में भी उन्होंने अपने मन की कह ही डाली। इसी पुस्तक में लिखे अपने एक चर्चित निबंध ‘संक्रान्ति-काल और बिहार के साहित्यकार’ में, उन्होंने बिहार के नए साहित्यकारों की चर्चा करते हुए लिखा कि – “सरकारी तंत्र के आते ही, साहित्यकार भी अधिकांशतः नौकरशाही प्रवृत्ति के हो गए हैं। विलास, वैभव, यौनाचार की मादकता आदि से पूर्ण, भ्रष्टाचार और अपराध की कथाओं का समय-चित्रण द्वारा, जन्तर धारण की रुचि का व्यावसायिक उपयोग कर अधिकांश नए हिन्दी लेखकों और प्रकाशकों ने प्रचूर धनार्जन किया है। साहित्य के पाठकों की संख्या में ह्रास हुआ है और उत्तेजक साहित्य के पाठकों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है”।
स्मरणीय है कि यही लेखक अपनी इसी पुस्तक के अपने एक अलग निबंध ‘हिन्दी संस्थाएँ और बिहार’ में, हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन के निमित्त, बिहार की हिन्दी-सेवी संस्थाओं के महान-संघर्ष की मर्म-स्पर्शी आख्यान भी लिखा है। वे कहते हैं कि “बिहार की हिन्दी-संस्थाएँ,राजनीति और साहित्य के सहज सनातन पारस्परिक वैमनस्य और विरोध के बीच अपने सारस्वत अस्तित्व की रक्षा के लिए, सतत संघर्षरत रहने की करुण-कथा प्रस्तुत करती हैं।” इस पुस्तक पर अपना ‘विनियोग’ लिखते हुए, प्रख्यात साहित्यकार आचार्यवर्य डा श्रीरंजन सूरिदेव, जो बाद में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री भी हुए और इस पद पर रहते हुए ही, ९२ वर्ष की आयु में अपना लौकिक देह छोड़ा, ने भी कितना सत्य लिखा कि “इसमें (पुस्तक ‘साहित्यिक अनुस्मृतियाँ’) एक सतर्क एवं तटस्थ काल-दृश्य की भाँति, पाण्डेय जी ने अपने अनुभव-पक्व प्रौढ़-लेखन से, २०वीं शताब्दी के तृतीय दशक से वर्तमान दशक तक के स्वातंत्र्य-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर-काल की, बिहार की साहित्यिक प्रगति का ऐतिहासिक सिंहावलोकन उपन्यस्त किया है, जो उनके भोगे हुए यथार्थ की सहज आत्माभिव्यक्ति से संवलित होकर, मार्मिक आत्म-संस्मरण के रूप में हिन्दी के पाठकों के समक्ष उपस्थित है।
१९९३ में, ‘हिन्दी प्रचारक संस्थान’, वाराणसी से प्रकाशित अपने ग्रंथ ‘अनुचिंतन: जीवन-सूत्र’, जिसमें महात्मा गांधी, रूसो, बर्नाड शॉ, रवींद्र नाथ ठाकुर, रूसो, वाल्टर, महर्षि अरविन्द, आस्कर बाइल्ड, प्लेटो, गोल्ड स्मिथ, स्पेनहोमर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मदर टेरेसा, लोकनायक जय प्रकाश, प्रेमचंद्र, महादेवी, सुमित्रानंदन पंत, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, मुक्त आदि अनेक चिंतकों और मनीषियों पर उनके विचार हैं, अपना’निवेदन’ लिखते हुए, उन्होंने विचार की महत्ता पर अत्यंत सारगर्भित मत व्यक्त किया है। वे मानते हैं कि “विचार किसी की बपौती नहीं है, उसका स्वतंत्र विकास होता रहता है। फूल मुरझा जाते हैं, पर विचार मुरझाते नही। हर विचार का श्रोत मनुष्य के मस्तिष्क की उपज है, जिसका आधार ईश्वर और जीवन है। प्रकृति में ही जीवन के वे सभी पहलू अंतर्निहित हैं।’
४ फरबरी १९९६ को, ८९ वर्ष की आयु में पाण्डेय जी ने अपनी लौकिक इहलीला सँवरण कर ली। जीवन-पर्यन्त निराश्रित और सादगी-पूर्ण जीवन जीते हुए निरंतर तप-साधना में लिप्त रहने का जो आदर्श उन्होंने स्थापित किया, वह न केवल प्रणम्य, अपितु अनुकरणीय भी है। उनको स्मरण करते हुए, हृदय को किसी देवस्थान की यात्रा की भाँति पावन और सुख-दायक प्रतीत होता है।