अद्भुत और अनुकरणीय व्यक्तित्व था उनका! ९२ वर्ष की आयु में भी ७२ वर्ष के लगते थे! कुर्ता-पायज़ामा के ऊपर बंडी पहने हुए, साक्षात जीवंतता की दीप्ति से चमकते और मुस्कुराते हुए! उन्होंने भारतीय वांगमय के सूत्र-ग्रंथ ‘गीता’ का न केवल महनीय हिन्दी भाष्य लिखा, बल्कि उसे अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया था। सादा, अनुशासित और कर्मनिष्ठ उनका जीवन एक देवोपम उदाहरण था। वे एक कुशल प्रशासक, अध्यवसायी, चिंतक, लोक-शिक्षक और स्तुत्य साहित्यकार थे। वस्तुतः वे ‘गीता’ के जीवंत विग्रह थे। उनके स्वस्थ और दीर्घायुष्य का रहस्य भी यही था। आप थे अपर समाहर्ता के पद से अवकाश ले चुके सुप्रतिष्ठ साहित्यकार जगत नारायण प्रसाद ‘जगतबंधु’ ! अपने नाम का अक्षरशः अनुवाद ! ‘जगत-नारायण’ के अंशावतार और ‘जगत-बंधु’ भी! उनके ग्रंथ; ‘गीता : सर्वोपयोगी’ और ‘प्रसून’ न केवल प्रशंसित हुए, बल्कि एक साहित्यकार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित भी किया। वे एक वैचारिक संस्था संस्कृति स्वाध्याय मंच के सचिव और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन समेत अनेक सारस्वत संस्थाओं के सदस्य व अधिकारी थे। महाकवि पं रामदयाल पाण्डेय स्मृति-ग्रंथ, महाकवि रमण स्मृति-ग्रंथ तथा सच्चिदानंद सहाय अभिनंदन-ग्रंथ के प्रकाशन में उनकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वे ‘शशीधर स्वर-लहरी’ और ‘संस्कृति-संवाद’के संपादक भी रह चुके थे। साहित्य, समाज और संसार सदैव उनके लिए प्रथम प्रणम्य रहा। वे जीवन में आनंद, उत्साह और सात्विक सकारात्मकता के पक्षधर और उपदेशक थे।
जगतबंधु जी का जन्म वेतिया (पश्चिम चंपारण) जिले के बैरिया प्रखंड के अंतर्गत स्थित भेड़िहारी ग्राम में एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में २२ जुलाई १९२७ को हुआ था। उनके पिताश्री ब्रह्मदेव प्रसाद लाल एक ख़ुशहाल किसान थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव के पाठशाला में ही हुई। प्रवेशिका की शिक्षा वेतिया से तथा उच्च शिक्षा पटना विश्व विद्यालय से पूरी हुई। वर्ष १९४८ में वे वाणिज्य-स्नातक हुए और उसके पश्चात स्नातकोत्तर, फिर विधि-स्नातक और श्रम एवं कल्याण विषय में स्नातकोत्तर डिप्लोमा की शिक्षा भी ग्रहण की।
अपनी लौकिक वृति का आरंभ, वर्ष १९४९ में, बिहार सरकार में, ‘ऑडिटर’ के रूप में अपनी सेवा से किया। अगस्त १९५४ से बिहार प्रशासनिक सेवा में आ गए तथा अपनी कर्तव्यनिष्ठ सेवा देते हुए अपर समाहर्ता के पद से १९८७ में अवकाश लिया।
साहित्य और अध्यात्म में उनकी अभिरूचि किशोर वय से ही थी, किंतु अवकाश के पश्चात ये प्रच्छन्न प्रवृत्तियाँ संपूर्ण उत्साह के साथ प्रकट होने लगी। वे अपना सारा समय स्वाध्याय और रचनात्मक कार्यों में लगाने लगे। इन्हीं अवधि में उन्हें बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, राजेंद्र साहित्य परिषद, चिन्मय मिशन, संस्कृत समाज, राजेंद्र स्मृति संग्रहालय, दि टेम्पल ऑफ अंडरस्टैंडिंग और संस्कृति स्वाध्याय मंच आदि सारस्वत संस्थाओं से जुड़ने का अवसर मिला। अपनी अविराम सक्रियता और लेखन से वे शीघ्र ही पटना के साहित्यिक और बौद्धिक समाज में लोकप्रिय हो गए। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ‘निर्वाची अधिकारी’ भी रहे।
वे एक गहन गंभीर अध्येता भी थे और भारतीय वांगमय का प्रचुर अध्ययन किया था। ‘गीता’ ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया और उनके मन में इसका भाष्य लिखने की प्रेरणा जागी। परिणामतः ‘गीता : सर्वोपयोगी’ नामक प्रांजल ग्रंथ का प्रणयन हुआ। यह पुस्तक सच्चे अर्थों में अपने नाम के अनुसार सर्व-सामान्य के लिए पठनीय और सर्वोपयोगी है। इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष २००८ में हुआ। इसके पूर्व उनके निबंधों का संग्रह ‘प्रसून’ २००१ में ही प्रकाशित हो चुका था।
इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुए संस्कृत, प्राकृत, पाली और हिन्दी समेत अनेक भाषाओं के यशस्वी विद्वान आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव ने पुस्तक की भूरिभूरि प्रशंसा की और सत्य ही लिखा – “गीता को साहित्यिक महाकाव्य भी कहा गया है, और इसे ‘प्रस्थान-त्रयी;- ‘गीता, उपनिषद और ब्रह्म-सूत्र’ का प्रमुख ग्रंथ भी माना गया है। गीता के मर्मज्ञ अधीती जगतबन्धुजी ने नवीन उदबोध और प्रासंगिक दृष्टि की व्यापकता के निमित्त अपना जो भाष्य प्रस्तुत किया है, यह सम-सामयिक है और उससे इनकी गीता-विषयक समृद्ध आन्वीक्षिकी संकेतित होती है। सच्ची भारतीय संस्कृति का सात्त्विक संदेश सुनाने और आधुनिक स्वेच्छाचारी युग में उस संदेश को सर्वजनसुलभ बनाने की अनिवार्य आवश्यकता को अनुभव कर प्रबुद्ध लेखक ने गीता का यह भाष्य सरल हिन्दी में उपन्यस्त किया है। इसीलिए, इस कृति का व्यापक स्तर पर सर्वजन- संप्रेषण सहज संभावित है। इस पुस्तक पर विद्वान समीक्षक डा शिववंश पाण्डेय, डा कृष्ण कुमार विद्यार्थी, महाकवि डा योगेश्वर प्रसाद सिंह ‘योगेश’ तथा संस्कृत के महापंडित आचार्य आद्याचरण झा ने भी अपनी सम्मतियाँ लिखी थी।
इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि यह सिर्फ़ गीता का भाष्य और अनुवाद ही नही है, इसमें लेखक का, धार्मिक रूढ़िवाद से भिन्न एक स्वतंत्र चिंतन भी अभिव्यक्त हुआ है। जगतबंधु जी ने प्रसंगानुसार भारतीय वांगमय से अनेक उद्धरण लेकर, भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों की विवेचना भी की है। इसमें गीता के अतिरिक्त अनेक ऐसे ब्रह्मवादी तत्त्वगत विषयों का अध्ययन भी किया गया है, जिसका संबंध भारत की महान संस्कृति और तपः साधना से जुड़ा हुआ है। ‘गीता’ पर हिन्दी में लिखी इनकी यह पुस्तक, इनके विशद आध्यात्मिक ज्ञान, चिंतन और लेखन-सामर्थ्य का हीं परिचय नहीं देती, पाठकों को गीता के सार को समझने की भूमि भी प्रदान करती है।
जगतबंधु जी मानव-जीवन को, गीता के संदेश की भाँति ही, अत्यंत मूल्यवान मानते थे। वे प्रायः ही कहा करते थे कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने हाथ में है कि वह कैसे जीता है! जो व्यक्ति, स्वयं को गीता के अनुसार ढाल ले और हर अवस्था में, प्रभु की सदिच्छा मान कर सदैव प्रसन्न रहे, तो दुःख उसे छू भी नही सकता। ऐसा व्यक्ति सदैव निरोग और ज़िंदा दिल बना रहता है। गीता, जीवन से व्यक्ति को दूर नही करती,अपितु जीवन के प्रति सात्विक राग उत्पन्न करती है, जिसके कारण मनुष्य का जीवन गुणवत्तापूर्ण और कल्याणकारी हो जाता है। यही कारण था कि वे सबके प्रति शुभ और कल्याण की भावना रखते थे। यथा साध्य सबकी, विशेष कर साहित्यकारों की सहायता किया करते थे। वे कभी बीमार भी नही पड़ते थे।
जगतबंधु जी अपना जन्मोत्सव भी बड़े उत्साहपूर्वक मनाते थे। अपने परिजनों और साहित्यकारों को बुलाया करते थे। कवि-गोष्ठी और साहित्य चर्चा हुआ करती थी। ‘केक’ के साथ भोजन कर ही सभी विदा होते थे। मेरे प्रति उनका भाव आध्यात्मिक प्रेम और श्रद्धा का होता था। साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के कारण तो हमारा परिचय पुराना था, किंतु आत्मीयता के धरातल पर, हम २००८ के बाद ही जुड़े। लेकिन जब से जुड़े, उनके सभी जन्मोत्सवों का उद्घाटन-कर्ता अथवा अध्यक्ष मैं ही होता था। मेरे आध्यात्मिक व्याख्यानों से वे प्रभावित रहा करते थे और कहा करते थे – “आयु में मैं आपसे ‘बहुत बड़ा’ हूँ, पर ज्ञान में आप मुझसे ‘बहुत बड़े’ हैं।” यह वस्तुतः उनकी विद्वता जनित विनम्रता और मेरे प्रति उनका विशिष्ट प्रेम ही था,जो शब्दों में प्रकट होता था।
हमने उनका अंतिम जन्मोत्सव २२ जुलाई १९१९ को मनाया था। पूर्व की भाँति, पटेल नगर स्थित उनके दोमंज़िले आवास में। यह उनका ९२वाँ जन्मोत्सव था। उन्हें देख कर कोई भी यह नही कह सकता था कि यह व्यक्ति अपने जीवन के १०वें दशक में है। युवाओं की तरह, ज़रा भी न झुके हुए, मंझोले काठी पर स्थित दीप्त मुख-मण्डल! सबका खड़े होकर स्वागत कर रहे थे। मैंने अपने मंगल उद्गार में कहा भी कि ‘कौन आँखों वाला इन्हें देखकर कहेगा कि ये ९१ शरद,वसंत और ग्रीष्म देख चुके हैं। आज भी ये देखने में ७१ के ऊपर के नही लगते। लगता है, कुछ वर्षों पूर्व ही सेवा से अवकाश लिए हों, और विश्राम के दिन आनंद से विता रहे हों। अपने जीवन को किस प्रकार मूल्यवान और गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सकता है, इसके जीवंत उदाहरण और प्रेरणा-पुरुष हैं, ‘जगतबंधु’ जी। इनका अनुशासित और कल्याणकारी जीवन स्वयं हीं एक ऐसा ग्रंथ है, जिसका अध्ययन कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को मूल्यवान और सार्थक बना सकता है। ९२ वर्ष की अवस्था में भी, श्री जगतबंधु ७० वर्ष के किसी व्यक्ति से अधिक स्वस्थ, सक्रिय और ज़िंदादिल हैं। इन्हें देखकर इनकी आयु का अनुमान करना कठिन है। इनके लंबे जीवन का रहस्य यह है कि ये सामान्य वेश-भूषा में एक साधु-पुरुष हैं। जीवन से सात्विक-प्रेम रखने वाले और सबके लिए कल्याण की सदकामना रखने वाले कर्म-योगी हैं जगतबंधु, जिनसे अनेक लोग प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं।”
यही सब कुछ अगले दिन पटना के समाचार पत्रों में छपा भी था। यह जीवन के प्रति उनके सकारात्मक सोंच, अनुशासित खान-पान और नियमित योग-प्राणायाम एवं ध्यान का प्रतिफल था। उन्होंने इसी दिन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा भी- “अपने छात्र-जीवन में आचार्यों तथा माता-पिता से जो सीखा उसे जीवन में उतारा। हर वस्तु का मूल्य समझता हूँ, इसलिए अपव्यय से बचा। जीवन को सदैव अनुशासित रखा। निष्ठा से सभी काम किए। कर्तव्य और दायित्व के महत्त्व को समझा और उसे उच्च प्राथमिकता दी। कभी कुछ ग़लत नहीं किया। जितना बना, सबके लिए अच्छा किया। आज भी कमसेकम एक घंटे आसान-प्राणायाम करता हूँ। गीता को समझने की चेष्टा की और उसे जीवन में उतारने का प्रयास किया। जीवन को सरल, सहज और कल्याणकारी बनाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता हूँ। अपना सबकुछ स्वयं करता हूँ। करने में सक्षम हूँ। सब ईश्वर की कृपा है।”
उनकी अभिलाषा थी कि वे अपना १००वाँ जन्मोत्सव भी अवश्य मनाएँ। उन्हें यह विश्वास भी था । किंतु ईश्वर की इच्छा पर किसी की अभिलाषा कब चली है! १२ नवम्बर, २०१९ को, सूर्योदय के पूर्व ही उनके पुत्र श्री अरविंद का फ़ोन आया – “पिता जी नही रहे!” यह मेरे लिए हतप्रभ करने वाला दुखद समाचार था, जो मुझे गहरी चोट दे गया था। मैं, सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय, वरीय उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त, अर्थमंत्री योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, प्रचारमंत्री राज कुमार प्रेमी आदि कुछ ही देर में उनके आवास पर पहुँचे और उनके पार्थिव शरीर पर पुष्प-पंखुरियाँ अर्पित कर भावभीनी श्रद्धांजलि दी। संध्या में उनके निधन पर साहित्य सम्मेलन भवन में शोक-सभा भी हुई। १३वें दिन उनके आवास पर सम्मेलन की ओर से श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन हुआ। उस दिन भी वे सबलोग उपस्थित थे, जो उनके अंतिम जन्मोत्सव पर उपस्थित थे। उनके जमाता-द्वय;- भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी श्री रमण कुमार और हाईटेक इंडिया से प्रबंध निदेशक के पद से अवकाश प्राप्त श्री सुमन कुमार, पुत्र श्री अरविंद, पुत्रियाँ श्रीमती प्रतिभा एवं श्रीमती सुनीति, पुत्रवधु नमिता, भ्रातृजा डा सुभद्रा, पाण्डेय सुमन्त और साहित्य सम्मेलन के अधिकारीगण! अन्य अनेक साहित्यकार भी! किंतु अंतर कितना बड़ा था। पिछली बार सभी हर्ष के साथ उद्भासित थे, आज शोक और श्रद्धा से अश्रुपुरित ! हमने एक महान कर्मयोगी साहित्य-सेवी को खो दिया था, जो मरणशील इस संसार में एक जीवित-प्रेरणा थे ! एक ज़िंदा आदमी !