महात्मा गांधी के ऐतिहासिक चंपारण-सत्याग्रह की गूँज के बीच अपनी आँखें खोलने वाले और संघर्षों में पगे महान स्वतंत्रता-सेनानी विंध्याचल प्रसाद गुप्त उतने ही महान कवि और साहित्यकार भी थे। वे उसी पावन भूमि के वीर सपूत थे, जहाँ से भारत की स्वतंत्रता का निर्णायक और महान संग्राम आरंभ हुआ था। वे गांधी जी द्वारा स्थापित विद्यालय के निष्ठावान विद्यार्थी और सत्य के उत्साही आग्रही होने के साथ एक ऐसे स्वातंत्र्य-वीर थे जिन्हें, गांधी जी द्वारा चलाए गए, चंपारण-सत्याग्रह, नामक-सत्याग्रह और ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन’ अर्थात अगस्त-क्रांति समेत भारत की स्वतंत्रता के लिए आहूत अनेक आंदोलनों में भाग लेने का अवसर मिला। वे क्रांति और परिवर्तन के कवि थे। उनकी रचनाओं में चंपारण का भोलापन, आंदोलन का प्रखर स्वर और नव-निर्माण का मृदुल गान व्यंजित हुआ। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता के लिए समर्पित रहा। वे पहले साहित्यकार थे, जिन्होंने विश्व-विश्रुत चंपारण-सत्याग्रह के ‘सूत्रधार’ परम श्रद्धेय पं राज कुमार शुक्ल के त्यागमय-जीवन पर लेखनी उठाई और ‘चंपारण: नील के धब्बे’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक का प्रणयन किया। स्वतंत्रता आंदोलन ने उनके मन और लेखनी को जो ऊर्जा और प्रेरणा दी, वह उन्हें कभी विश्राम करने नही दिया। तरुणाई में ही, देश और समाज के लिए जो अग्नि उनके अंतर में जल उठी थी, वह चिता की अग्नि के साथ ही बुझी। उनकी लेखनी ने भी तभी विराम लिया। और इस अवधि में, साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में साधनारत हो, उन्होंने ६८ से अधिक अत्यंत मूल्यवान पुस्तकों से माँ भारती की अर्चना की। देश की सर्वतोभावेन सेवा करने वाले वे एक विरल व्यक्तित्व और भावितात्मा साहित्यकार थे। देवोपम गुणों से युक्त एक वन्दनीय महापुरुष !
गुप्त जी का आविर्भाव पश्चिम चंपारण (वेतिया) जिले के चनपटिया कस्बे में २६ अक्टूबर १९१५ को, एक निम्न मध्यम वर्गीय वैश्य परिवार में हुआ था। पिताश्री बनारसी साह, नील की खेती करनेवाले अन्य किसानों की भाँति एक किसान थे और उनका एक छोटा वस्त्र-व्यवसाय भी था। यह वह काल था जब चंपारण के किसान, नील की खेती के लिए विवश करने वाले ‘अंग्रेज़-ज़मींदारों’ से त्रस्त और उससे बचने के लिए, वेचैनी से किसी उद्धारक मसीहा की बाट जोह रहे थे। किसानों की पीड़ा से द्रवित और व्यथित किसान-नेता पं राज कुमार शुक्ल के भगीरथ प्रयास से गांधी जी चंपारण आए थे। सत्याग्रह का बीज वपन हुआ था और संत्रास की ज्वाला-मुखी से अंतर हीं अंतर धधक रहा चंपारण एक महाविस्फोट के लिए तैयार हो चुका था। इसी पृष्ठ-भूमि में जन्म लिए बालक विंध्याचल की प्रारंभिक शिक्षा, गांधी जी द्वारा चनपटिया में स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में हुई। पुत्र के प्रति सजग पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेज दिया। वहाँ से वे अयोध्या गए, जहाँ उन्होंने ‘संस्कृत विद्यालय’ से इसी विषय में भाषा और साहित्य में उपाधि प्राप्त की। कालांतर में ( १९३९ ) में तिरुपति,मद्रास (अब चेन्नई) से ‘साहित्य भूषण’ की भी उपाधि प्राप्त की।
जब तक वे तरुणावस्था को प्राप्त हुए, चंपारण-सत्याग्रह भी युवा-ऊर्जा को प्राप्त कर चुका था। चंपारण का सामान्य किसान तक उस आंदोलन में कूद पड़े थे, तो विंध्याचल जैसा राष्ट्र-धर्मी तरुण कैसे अछूते रह सकते थे। वे भी आंदोलन में सक्रिए हो गए। उनका संबंध चंपारण के प्रायः सभी प्रमुख आंदोलन कारियों से नैकट्य का हो चुका था,उनमे गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रही नेता तो थे हीं, रक्त-क्रांति में विश्वास रखने वाले युवा क्रांतिकारी कमलनाथ तिवारी, केदारमणि शुक्ल, गुलाब चंद्र गुप्त ‘गुलाली’ तथा कपिलदेव राय जैसे वलिदानी भी सम्मिलित थे। उन्होंने वर्ष १९२८ में, गुलाब चंद्र के सहयोग से चनपटिया में, देश के महान सपूत और वालिदानी स्वतंत्रता सेनानी ‘लाला लाजपत राय’ की स्मृति में, ‘लाजपत पुस्तकालय’ की भी स्थापना की थी, जिसमें आंदोलन-संबंधी पुस्तकें एवं साहित्य संग्रहित थे, जिस पर अंग्रेज़ी सरकार की कुदृष्टि पड़ी और छापे पड़े तो उसका नाम परिवर्तित कर ‘वैदिक पुस्तकालय’ कर दिया गया।
क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ पुस्तकालय के संचालन और आंदोलन साहित्य के अध्ययन ने उन्हें लेखन के प्रति प्रेरित किया। उन पर कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र और बंगला-साहित्यकार बंकिम चंद्र चटोपाध्याय और शरत चंद्र का भी गहरा प्रभाव था। प्रेमचंद्र की एक कहानी ‘आज़ाद-कथा’ से अनुप्राणित होकर, उन्होंने अपनी पहली कहानी १९३७ में लिखी, जिसका प्रकाशन ‘ग़रीब किसान’ शीर्षक से, सुप्रसिद्ध साप्ताहिक-पत्र’योगी’ (पटना) में हुआ। इस कथा को साहित्य-समाज में व्यापक स्वीकृति मिली, जिससे उत्साहित होकर उन्होंने लेखन को अपना अभीष्ट बना लिया और जीवन पर्यन्त लिखते रहे। गद्य और पद्य साहित्य की प्रायः सभी प्रचलित विधाओं में लिखा। कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,नाट्य-रूपक, काव्य, गीति-रूपक, व्यंग्य, संस्मरण, जीवनी और बाल-साहित्य भी। ‘मुस्कान’, ‘बिखरे आँसू’ ( कहानी संग्रह ), ‘शीश-दान’ (नाटक), ‘अमिट रेखाएँ’ (एकांकी-संग्रह), ‘आँधी पानी’, ‘नई किरण’, ‘सूरज चाँद सितारें’, ‘कजरारे बादल’ ( सभी काव्य-संग्रह), ‘भीगी आँखें’, ‘लहरों के बीच’, हँसती आँखें’, ‘आधी रात’, ‘राह का पत्थर’, ‘किनारे की ओर’, ‘नीली साड़ी’, ‘आग और आँसू’, ‘तूफ़ान के तिनके’ , ‘शमा जलती रही’, ‘सीमा और उड़ान’, छोटे बड़े लोग’ (सभी उपन्यास), ‘पकौड़ी साह ज़िंदाबाद’, ‘ऊँची नाक’, उल्टा अस्तुरा’, ‘बोतलानंद’, पाँचों अंगुलियाँ घी में’, ‘ओटीआर अमर हो’, ‘नया ज़माना नया रंग’ (सभी व्यंग्य-साहित्य), ‘परियों की रानी’, सोने की बुलबुल’, सोने का पेड़’, जादू का पलंग’, ‘जादू की नगरी’, ‘राजा का बेटा’ ( सभी बाल-साहित्य ), ‘चंपारण : नील के धब्बे’, ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ तथा ‘क्रांति-यात्रा’ ( सभी संस्मरण-साहित्य)समेत ६८ पुस्तको से उन्होंने हिन्दी साहित्य का भण्डार भरा। ‘क्रांति-यात्रा’, जो उनकी अंतिम कृति रही, का प्रकाशन उनके निधन के पश्चात हो सका। उनके एक उपन्यास ‘लहरों के बीच’ का तमिल भाषा में अनुवाद भी हुआ था।
‘चंपारण : नील के धब्बे’ उनके द्वारा लिखित निलहे किसानों की दर्दभरी कहानी का जीवंत दस्तावेज़ और उनके प्रथम-उद्धारक पं राज कुमार शुक्ल की प्रतीकार-कथा है। निलहे ज़मींदारों से मुक्ति के लिए पं शुक्ल के महान उद्योग और उनके जीवन पर लिखी यह प्रथम कृति है, जिसकी प्रशंसा देश के प्रथम राष्ट्रपति तथा चंपारण-सत्याग्रह में महात्मा गांधी के प्रमुख सहयोगी रहे देश-रत्न डा राजेंद्र प्रसाद ने भी की। उन्होंने राष्ट्रपति भवन से, १५ अक्टूबर १९५९ को, पत्र लिखकर गुप्त जी के प्रति इन शब्दों में साधुभाव प्रकट किया कि, “मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि स्वर्गीय श्री राज कुमार शुक्ल की स्मृति में आपने ‘चंपारण और नील के धब्बे’ नामक पुस्तक लिखी है। पुस्तक की एक प्रति मुझे भी देखने को मिली। चंपारण-सत्याग्रह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है और श्री राज कुमार शुक्ल उन व्यक्तियों में थे, जिन्होंने इस सत्याग्रह में प्रमुख (रूप से) भाग लिया। मुझे उनके काफ़ी निकट आने का अवसर मिला था और इसलिए मुझे यह पुस्तक देखकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इस प्रकार से उनकी स्मृति सदा ताज़ा रहेगी। मैं आपके इस प्रयास को स्तुत्य समझता हूँ और आपको बधाई देता हूँ।”
गुप्त जी पटना में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना के काल से ही जुड़ गए थे। आकाशवाणी से उनके काव्य-पाठ और उनके द्वारा रचित ‘रेडियो-रूपक’ का भी प्रसारण होता रहा। वाग्देवी उन पर सर्वतोभावेन कृपालु बनी रही। न केवल उन्हें कोमल भावनाओं और कवित्त-शक्ति से ही परिपूर्ण किया, अपितु उन्हें मधुर कंठ भी प्रदान किए। गुप्त जी का काव्य-पाठ भी, गीत-शिरोमणि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के मधुर गान की भाँति ही मनोहारी होता था। वे ‘चंपारण के कोकिल’ कहे जाते थे। यही कारण था कि वे देश भर के कवि-सम्मेलनों में न केवल मंच की शोभा, अपितु श्रोताओं के कंठ-हार भी बन जाते थे। काव्य-मंचों के आदरणीय और लोकप्रिय कवि के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आरंभ की उनकी रचनाएँ जहाँ क्रांति का आह्वान करती हुआ करती थीं, तो स्वतंत्रता के पश्चात समाज की अकुलाहट और वेचैनी का प्रतिनिधित्व भी। जब देश ने क्रांतिकारियों को भूलना आरंभ कर दिया तब उन्होंने ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ लिख कर देश की स्मृति को ताज़ा किया और जब उन्हें लगा कि भारत एक बार फिर छल-प्रपंच’ का शिकार हो रहा है तो अपने व्यंग्य-साहित्य से, ऐसे पाखंडियों और भ्रष्टाचारियों पर अग्नि-वाण भी छोड़े। उन्होंने अपने गीत की इन पंक्तियों से युवाओं का आह्वान किया कि :”हमें शहीदों के सपने को सत्य बनाना है/ हर घर में आज़ादी का सूरज पहुँचाना है/ प्राण-प्राण में मानवता का दीप जलाना है/ हमें देश को, अपनी मिहनत से चमकाना है।”
वे बच्चों को देश का भविष्य मानते हुए, और कि वे संस्कारी बनें, अनेक बाल-साहित्य का सृजन किया। उनकी भाषा अत्यंत सरल, आकर्षक और प्रेरणादायक होती थी। उनके बाल-साहित्य की विशेषता यह थी कि उनमे कहीं भी संयुक्ताक्षर का प्रयोग नही हुआ। इसीलिए बच्चों में उनका साहित्य अत्यंत लोकप्रिय हुआ। उनके बाल साहित्य ‘चंदामामा’ जैसी बालोपयोगी पत्रिकाओं में भी छपा करती थी।
गुप्त जी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन समेत अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे। चंपारण ज़िला हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उनका अभिनंदन भी किया था। उनकी दीर्घ क़ालीन साहित्य-सेवा के लिए राजभाषा विभाग (बिहार सरकार) ने १९७७ में पुरस्कृत किया। चनपटिया में २६ अक्टूबर १९८२ को, उनके ६७वें जन्म दिवस पर एक बड़ा समारोह आयोजित कर उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। १९८७ में उनके जन्म दिवस पर, उनपर केंद्रित एक साहित्यिक पत्रिका ‘दर्शन-मंथन’ का मुज़फ़्फ़रपुर में प्रकाशन किया गया। यह सब उस तपस्वी-साधक की अविराम साधना की सामाजिक स्वीकृति की दिशा में एक आदर-पुष्प ही तो था। यों उनका देश के प्रति और साहित्य के प्रति जो अवदान रहा है, वह कुछ और बड़े की अपेक्षा रखता था।
उनके कोमल भावों में प्रकृति, प्रेम और ऋंगार के लिए भी पर्याप्त स्थान था। तभी तो उन्होंने ‘पंचमी वसंत की’ और ‘झूम रहा वृंदावन’ जैसी प्रेम और श्रींगार की रचनाएँ की। उनकी ये पंक्तियाँ;- “छलकाती अमृत की धार/ आई-आई वसंत बहार/ माथे पर चंदा की विंदा लगाकर/नयनों में जीवन के सपने जगाकर/ फूलों का करके ऋंगार/ आई-आई वसंत बहार” काव्य-लालित्य पर उनके अधिकार का सहज परिचय देती हैं।
२४ जुलाई, १९९२ को गुप्त जी, ७७ वर्ष की आयु में अपने पार्थिव देह का त्याग कर ‘गोलोक’ के लिए विदा हो गए। किसी को सेवा का अवसर नहीं दिया। जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन सुधारे, उसी प्रकार ‘मृत्य’ भी सुधार ली, और अपने साहित्य-संस्कार को अगली पीढ़ियों को भी दे कर विदा हुए। उनके बड़े पुत्र स्व चंद्र किशोर गुप्त भी एक लोकप्रिय कवि हुए और उनके दो पौत्र श्री दीपक कुमार गुप्त और श्री अजित कुमार गुप्त ( दोनों चंद्र किशोर गुप्त के पुत्र) अपने साहित्य-संस्कार को परिमार्जित कर रहे हैं। साहित्य-समाज में इन दोनों की ‘सुकवि’के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है।
पुण्यतिथि (२४ जुलाई ) पर विशेष
स्वातंत्र्य योद्धा साहित्यकार थे विंध्याचल प्रसाद गुप्त
डा अनिल सुलभ
महात्मा गांधी के ऐतिहासिक चंपारण-सत्याग्रह की गूँज के बीच अपनी आँखें खोलने वाले और संघर्षों में पगे महान स्वतंत्रता-सेनानी विंध्याचल प्रसाद गुप्त उतने ही महान कवि और साहित्यकार भी थे। वे उसी पावन भूमि के वीर सपूत थे, जहाँ से भारत की स्वतंत्रता का निर्णायक और महान संग्राम आरंभ हुआ था। वे गांधी जी द्वारा स्थापित विद्यालय के निष्ठावान विद्यार्थी और सत्य के उत्साही आग्रही होने के साथ एक ऐसे स्वातंत्र्य-वीर थे जिन्हें, गांधी जी द्वारा चलाए गए, चंपारण-सत्याग्रह, नामक-सत्याग्रह और ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन’ अर्थात अगस्त-क्रांति समेत भारत की स्वतंत्रता के लिए आहूत अनेक आंदोलनों में भाग लेने का अवसर मिला। वे क्रांति और परिवर्तन के कवि थे। उनकी रचनाओं में चंपारण का भोलापन, आंदोलन का प्रखर स्वर और नव-निर्माण का मृदुल गान व्यंजित हुआ। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता के लिए समर्पित रहा। वे पहले साहित्यकार थे, जिन्होंने विश्व-विश्रुत चंपारण-सत्याग्रह के ‘सूत्रधार’ परम श्रद्धेय पं राज कुमार शुक्ल के त्यागमय-जीवन पर लेखनी उठाई और ‘चंपारण: नील के धब्बे’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक का प्रणयन किया। स्वतंत्रता आंदोलन ने उनके मन और लेखनी को जो ऊर्जा और प्रेरणा दी, वह उन्हें कभी विश्राम करने नही दिया। तरुणाई में ही, देश और समाज के लिए जो अग्नि उनके अंतर में जल उठी थी, वह चिता की अग्नि के साथ ही बुझी। उनकी लेखनी ने भी तभी विराम लिया। और इस अवधि में, साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में साधनारत हो, उन्होंने ६८ से अधिक अत्यंत मूल्यवान पुस्तकों से माँ भारती की अर्चना की। देश की सर्वतोभावेन सेवा करने वाले वे एक विरल व्यक्तित्व और भावितात्मा साहित्यकार थे। देवोपम गुणों से युक्त एक वन्दनीय महापुरुष !
गुप्त जी का आविर्भाव पश्चिम चंपारण (वेतिया) जिले के चनपटिया कस्बे में २६ अक्टूबर १९१५ को, एक निम्न मध्यम वर्गीय वैश्य परिवार में हुआ था। पिताश्री बनारसी साह, नील की खेती करनेवाले अन्य किसानों की भाँति एक किसान थे और उनका एक छोटा वस्त्र-व्यवसाय भी था। यह वह काल था जब चंपारण के किसान, नील की खेती के लिए विवश करने वाले ‘अंग्रेज़-ज़मींदारों’ से त्रस्त और उससे बचने के लिए, वेचैनी से किसी उद्धारक मसीहा की बाट जोह रहे थे। किसानों की पीड़ा से द्रवित और व्यथित किसान-नेता पं राज कुमार शुक्ल के भगीरथ प्रयास से गांधी जी चंपारण आए थे। सत्याग्रह का बीज वपन हुआ था और संत्रास की ज्वाला-मुखी से अंतर हीं अंतर धधक रहा चंपारण एक महाविस्फोट के लिए तैयार हो चुका था। इसी पृष्ठ-भूमि में जन्म लिए बालक विंध्याचल की प्रारंभिक शिक्षा, गांधी जी द्वारा चनपटिया में स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में हुई। पुत्र के प्रति सजग पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेज दिया। वहाँ से वे अयोध्या गए, जहाँ उन्होंने ‘संस्कृत विद्यालय’ से इसी विषय में भाषा और साहित्य में उपाधि प्राप्त की। कालांतर में ( १९३९ ) में तिरुपति,मद्रास (अब चेन्नई) से ‘साहित्य भूषण’ की भी उपाधि प्राप्त की।
जब तक वे तरुणावस्था को प्राप्त हुए, चंपारण-सत्याग्रह भी युवा-ऊर्जा को प्राप्त कर चुका था। चंपारण का सामान्य किसान तक उस आंदोलन में कूद पड़े थे, तो विंध्याचल जैसा राष्ट्र-धर्मी तरुण कैसे अछूते रह सकते थे। वे भी आंदोलन में सक्रिए हो गए। उनका संबंध चंपारण के प्रायः सभी प्रमुख आंदोलन कारियों से नैकट्य का हो चुका था,उनमे गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रही नेता तो थे हीं, रक्त-क्रांति में विश्वास रखने वाले युवा क्रांतिकारी कमलनाथ तिवारी, केदारमणि शुक्ल, गुलाब चंद्र गुप्त ‘गुलाली’ तथा कपिलदेव राय जैसे वलिदानी भी सम्मिलित थे। उन्होंने वर्ष १९२८ में, गुलाब चंद्र के सहयोग से चनपटिया में, देश के महान सपूत और वालिदानी स्वतंत्रता सेनानी ‘लाला लाजपत राय’ की स्मृति में, ‘लाजपत पुस्तकालय’ की भी स्थापना की थी, जिसमें आंदोलन-संबंधी पुस्तकें एवं साहित्य संग्रहित थे, जिस पर अंग्रेज़ी सरकार की कुदृष्टि पड़ी और छापे पड़े तो उसका नाम परिवर्तित कर ‘वैदिक पुस्तकालय’ कर दिया गया।
क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ पुस्तकालय के संचालन और आंदोलन साहित्य के अध्ययन ने उन्हें लेखन के प्रति प्रेरित किया। उन पर कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र और बंगला-साहित्यकार बंकिम चंद्र चटोपाध्याय और शरत चंद्र का भी गहरा प्रभाव था। प्रेमचंद्र की एक कहानी ‘आज़ाद-कथा’ से अनुप्राणित होकर, उन्होंने अपनी पहली कहानी १९३७ में लिखी, जिसका प्रकाशन ‘ग़रीब किसान’ शीर्षक से, सुप्रसिद्ध साप्ताहिक-पत्र’योगी’ (पटना) में हुआ। इस कथा को साहित्य-समाज में व्यापक स्वीकृति मिली, जिससे उत्साहित होकर उन्होंने लेखन को अपना अभीष्ट बना लिया और जीवन पर्यन्त लिखते रहे। गद्य और पद्य साहित्य की प्रायः सभी प्रचलित विधाओं में लिखा। कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,नाट्य-रूपक, काव्य, गीति-रूपक, व्यंग्य, संस्मरण, जीवनी और बाल-साहित्य भी। ‘मुस्कान’, ‘बिखरे आँसू’ ( कहानी संग्रह ), ‘शीश-दान’ (नाटक), ‘अमिट रेखाएँ’ (एकांकी-संग्रह), ‘आँधी पानी’, ‘नई किरण’, ‘सूरज चाँद सितारें’, ‘कजरारे बादल’ ( सभी काव्य-संग्रह), ‘भीगी आँखें’, ‘लहरों के बीच’, हँसती आँखें’, ‘आधी रात’, ‘राह का पत्थर’, ‘किनारे की ओर’, ‘नीली साड़ी’, ‘आग और आँसू’, ‘तूफ़ान के तिनके’ , ‘शमा जलती रही’, ‘सीमा और उड़ान’, छोटे बड़े लोग’ (सभी उपन्यास), ‘पकौड़ी साह ज़िंदाबाद’, ‘ऊँची नाक’, उल्टा अस्तुरा’, ‘बोतलानंद’, पाँचों अंगुलियाँ घी में’, ‘ओटीआर अमर हो’, ‘नया ज़माना नया रंग’ (सभी व्यंग्य-साहित्य), ‘परियों की रानी’, सोने की बुलबुल’, सोने का पेड़’, जादू का पलंग’, ‘जादू की नगरी’, ‘राजा का बेटा’ ( सभी बाल-साहित्य ), ‘चंपारण : नील के धब्बे’, ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ तथा ‘क्रांति-यात्रा’ ( सभी संस्मरण-साहित्य)समेत ६८ पुस्तको से उन्होंने हिन्दी साहित्य का भण्डार भरा। ‘क्रांति-यात्रा’, जो उनकी अंतिम कृति रही, का प्रकाशन उनके निधन के पश्चात हो सका। उनके एक उपन्यास ‘लहरों के बीच’ का तमिल भाषा में अनुवाद भी हुआ था।
‘चंपारण : नील के धब्बे’ उनके द्वारा लिखित निलहे किसानों की दर्दभरी कहानी का जीवंत दस्तावेज़ और उनके प्रथम-उद्धारक पं राज कुमार शुक्ल की प्रतीकार-कथा है। निलहे ज़मींदारों से मुक्ति के लिए पं शुक्ल के महान उद्योग और उनके जीवन पर लिखी यह प्रथम कृति है, जिसकी प्रशंसा देश के प्रथम राष्ट्रपति तथा चंपारण-सत्याग्रह में महात्मा गांधी के प्रमुख सहयोगी रहे देश-रत्न डा राजेंद्र प्रसाद ने भी की। उन्होंने राष्ट्रपति भवन से, १५ अक्टूबर १९५९ को, पत्र लिखकर गुप्त जी के प्रति इन शब्दों में साधुभाव प्रकट किया कि, “मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि स्वर्गीय श्री राज कुमार शुक्ल की स्मृति में आपने ‘चंपारण और नील के धब्बे’ नामक पुस्तक लिखी है। पुस्तक की एक प्रति मुझे भी देखने को मिली। चंपारण-सत्याग्रह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है और श्री राज कुमार शुक्ल उन व्यक्तियों में थे, जिन्होंने इस सत्याग्रह में प्रमुख (रूप से) भाग लिया। मुझे उनके काफ़ी निकट आने का अवसर मिला था और इसलिए मुझे यह पुस्तक देखकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इस प्रकार से उनकी स्मृति सदा ताज़ा रहेगी। मैं आपके इस प्रयास को स्तुत्य समझता हूँ और आपको बधाई देता हूँ।”
गुप्त जी पटना में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना के काल से ही जुड़ गए थे। आकाशवाणी से उनके काव्य-पाठ और उनके द्वारा रचित ‘रेडियो-रूपक’ का भी प्रसारण होता रहा। वाग्देवी उन पर सर्वतोभावेन कृपालु बनी रही। न केवल उन्हें कोमल भावनाओं और कवित्त-शक्ति से ही परिपूर्ण किया, अपितु उन्हें मधुर कंठ भी प्रदान किए। गुप्त जी का काव्य-पाठ भी, गीत-शिरोमणि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के मधुर गान की भाँति ही मनोहारी होता था। वे ‘चंपारण के कोकिल’ कहे जाते थे। यही कारण था कि वे देश भर के कवि-सम्मेलनों में न केवल मंच की शोभा, अपितु श्रोताओं के कंठ-हार भी बन जाते थे। काव्य-मंचों के आदरणीय और लोकप्रिय कवि के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आरंभ की उनकी रचनाएँ जहाँ क्रांति का आह्वान करती हुआ करती थीं, तो स्वतंत्रता के पश्चात समाज की अकुलाहट और वेचैनी का प्रतिनिधित्व भी। जब देश ने क्रांतिकारियों को भूलना आरंभ कर दिया तब उन्होंने ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ लिख कर देश की स्मृति को ताज़ा किया और जब उन्हें लगा कि भारत एक बार फिर छल-प्रपंच’ का शिकार हो रहा है तो अपने व्यंग्य-साहित्य से, ऐसे पाखंडियों और भ्रष्टाचारियों पर अग्नि-वाण भी छोड़े। उन्होंने अपने गीत की इन पंक्तियों से युवाओं का आह्वान किया कि :”हमें शहीदों के सपने को सत्य बनाना है/ हर घर में आज़ादी का सूरज पहुँचाना है/ प्राण-प्राण में मानवता का दीप जलाना है/ हमें देश को, अपनी मिहनत से चमकाना है।”
वे बच्चों को देश का भविष्य मानते हुए, और कि वे संस्कारी बनें, अनेक बाल-साहित्य का सृजन किया। उनकी भाषा अत्यंत सरल, आकर्षक और प्रेरणादायक होती थी। उनके बाल-साहित्य की विशेषता यह थी कि उनमे कहीं भी संयुक्ताक्षर का प्रयोग नही हुआ। इसीलिए बच्चों में उनका साहित्य अत्यंत लोकप्रिय हुआ। उनके बाल साहित्य ‘चंदामामा’ जैसी बालोपयोगी पत्रिकाओं में भी छपा करती थी।
गुप्त जी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन समेत अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे। चंपारण ज़िला हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उनका अभिनंदन भी किया था। उनकी दीर्घ क़ालीन साहित्य-सेवा के लिए राजभाषा विभाग (बिहार सरकार) ने १९७७ में पुरस्कृत किया। चनपटिया में २६ अक्टूबर १९८२ को, उनके ६७वें जन्म दिवस पर एक बड़ा समारोह आयोजित कर उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। १९८७ में उनके जन्म दिवस पर, उनपर केंद्रित एक साहित्यिक पत्रिका ‘दर्शन-मंथन’ का मुज़फ़्फ़रपुर में प्रकाशन किया गया। यह सब उस तपस्वी-साधक की अविराम साधना की सामाजिक स्वीकृति की दिशा में एक आदर-पुष्प ही तो था। यों उनका देश के प्रति और साहित्य के प्रति जो अवदान रहा है, वह कुछ और बड़े की अपेक्षा रखता था।
उनके कोमल भावों में प्रकृति, प्रेम और ऋंगार के लिए भी पर्याप्त स्थान था। तभी तो उन्होंने ‘पंचमी वसंत की’ और ‘झूम रहा वृंदावन’ जैसी प्रेम और श्रींगार की रचनाएँ की। उनकी ये पंक्तियाँ;- “छलकाती अमृत की धार/ आई-आई वसंत बहार/ माथे पर चंदा की विंदा लगाकर/नयनों में जीवन के सपने जगाकर/ फूलों का करके ऋंगार/ आई-आई वसंत बहार” काव्य-लालित्य पर उनके अधिकार का सहज परिचय देती हैं।
२४ जुलाई, १९९२ को गुप्त जी, ७७ वर्ष की आयु में अपने पार्थिव देह का त्याग कर ‘गोलोक’ के लिए विदा हो गए। किसी को सेवा का अवसर नहीं दिया। जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन सुधारे, उसी प्रकार ‘मृत्य’ भी सुधार ली, और अपने साहित्य-संस्कार को अगली पीढ़ियों को भी दे कर विदा हुए। उनके बड़े पुत्र स्व चंद्र किशोर गुप्त भी एक लोकप्रिय कवि हुए और उनके दो पौत्र श्री दीपक कुमार गुप्त और श्री अजित कुमार गुप्त ( दोनों चंद्र किशोर गुप्त के पुत्र) अपने साहित्य-संस्कार को परिमार्जित कर रहे हैं। साहित्य-समाज में इन दोनों की ‘सुकवि’के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है।
महात्मा गांधी के ऐतिहासिक चंपारण-सत्याग्रह की गूँज के बीच अपनी आँखें खोलने वाले और संघर्षों में पगे महान स्वतंत्रता-सेनानी विंध्याचल प्रसाद गुप्त उतने ही महान कवि और साहित्यकार भी थे। वे उसी पावन भूमि के वीर सपूत थे, जहाँ से भारत की स्वतंत्रता का निर्णायक और महान संग्राम आरंभ हुआ था। वे गांधी जी द्वारा स्थापित विद्यालय के निष्ठावान विद्यार्थी और सत्य के उत्साही आग्रही होने के साथ एक ऐसे स्वातंत्र्य-वीर थे जिन्हें, गांधी जी द्वारा चलाए गए, चंपारण-सत्याग्रह, नामक-सत्याग्रह और ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन’ अर्थात अगस्त-क्रांति समेत भारत की स्वतंत्रता के लिए आहूत अनेक आंदोलनों में भाग लेने का अवसर मिला। वे क्रांति और परिवर्तन के कवि थे। उनकी रचनाओं में चंपारण का भोलापन, आंदोलन का प्रखर स्वर और नव-निर्माण का मृदुल गान व्यंजित हुआ। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता के लिए समर्पित रहा। वे पहले साहित्यकार थे, जिन्होंने विश्व-विश्रुत चंपारण-सत्याग्रह के ‘सूत्रधार’ परम श्रद्धेय पं राज कुमार शुक्ल के त्यागमय-जीवन पर लेखनी उठाई और ‘चंपारण: नील के धब्बे’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक का प्रणयन किया। स्वतंत्रता आंदोलन ने उनके मन और लेखनी को जो ऊर्जा और प्रेरणा दी, वह उन्हें कभी विश्राम करने नही दिया। तरुणाई में ही, देश और समाज के लिए जो अग्नि उनके अंतर में जल उठी थी, वह चिता की अग्नि के साथ ही बुझी। उनकी लेखनी ने भी तभी विराम लिया। और इस अवधि में, साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में साधनारत हो, उन्होंने ६८ से अधिक अत्यंत मूल्यवान पुस्तकों से माँ भारती की अर्चना की। देश की सर्वतोभावेन सेवा करने वाले वे एक विरल व्यक्तित्व और भावितात्मा साहित्यकार थे। देवोपम गुणों से युक्त एक वन्दनीय महापुरुष !
गुप्त जी का आविर्भाव पश्चिम चंपारण (वेतिया) जिले के चनपटिया कस्बे में २६ अक्टूबर १९१५ को, एक निम्न मध्यम वर्गीय वैश्य परिवार में हुआ था। पिताश्री बनारसी साह, नील की खेती करनेवाले अन्य किसानों की भाँति एक किसान थे और उनका एक छोटा वस्त्र-व्यवसाय भी था। यह वह काल था जब चंपारण के किसान, नील की खेती के लिए विवश करने वाले ‘अंग्रेज़-ज़मींदारों’ से त्रस्त और उससे बचने के लिए, वेचैनी से किसी उद्धारक मसीहा की बाट जोह रहे थे। किसानों की पीड़ा से द्रवित और व्यथित किसान-नेता पं राज कुमार शुक्ल के भगीरथ प्रयास से गांधी जी चंपारण आए थे। सत्याग्रह का बीज वपन हुआ था और संत्रास की ज्वाला-मुखी से अंतर हीं अंतर धधक रहा चंपारण एक महाविस्फोट के लिए तैयार हो चुका था। इसी पृष्ठ-भूमि में जन्म लिए बालक विंध्याचल की प्रारंभिक शिक्षा, गांधी जी द्वारा चनपटिया में स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में हुई। पुत्र के प्रति सजग पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेज दिया। वहाँ से वे अयोध्या गए, जहाँ उन्होंने ‘संस्कृत विद्यालय’ से इसी विषय में भाषा और साहित्य में उपाधि प्राप्त की। कालांतर में ( १९३९ ) में तिरुपति,मद्रास (अब चेन्नई) से ‘साहित्य भूषण’ की भी उपाधि प्राप्त की।
जब तक वे तरुणावस्था को प्राप्त हुए, चंपारण-सत्याग्रह भी युवा-ऊर्जा को प्राप्त कर चुका था। चंपारण का सामान्य किसान तक उस आंदोलन में कूद पड़े थे, तो विंध्याचल जैसा राष्ट्र-धर्मी तरुण कैसे अछूते रह सकते थे। वे भी आंदोलन में सक्रिए हो गए। उनका संबंध चंपारण के प्रायः सभी प्रमुख आंदोलन कारियों से नैकट्य का हो चुका था,उनमे गांधी जी के अहिंसक सत्याग्रही नेता तो थे हीं, रक्त-क्रांति में विश्वास रखने वाले युवा क्रांतिकारी कमलनाथ तिवारी, केदारमणि शुक्ल, गुलाब चंद्र गुप्त ‘गुलाली’ तथा कपिलदेव राय जैसे वलिदानी भी सम्मिलित थे। उन्होंने वर्ष १९२८ में, गुलाब चंद्र के सहयोग से चनपटिया में, देश के महान सपूत और वालिदानी स्वतंत्रता सेनानी ‘लाला लाजपत राय’ की स्मृति में, ‘लाजपत पुस्तकालय’ की भी स्थापना की थी, जिसमें आंदोलन-संबंधी पुस्तकें एवं साहित्य संग्रहित थे, जिस पर अंग्रेज़ी सरकार की कुदृष्टि पड़ी और छापे पड़े तो उसका नाम परिवर्तित कर ‘वैदिक पुस्तकालय’ कर दिया गया।
क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ पुस्तकालय के संचालन और आंदोलन साहित्य के अध्ययन ने उन्हें लेखन के प्रति प्रेरित किया। उन पर कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र और बंगला-साहित्यकार बंकिम चंद्र चटोपाध्याय और शरत चंद्र का भी गहरा प्रभाव था। प्रेमचंद्र की एक कहानी ‘आज़ाद-कथा’ से अनुप्राणित होकर, उन्होंने अपनी पहली कहानी १९३७ में लिखी, जिसका प्रकाशन ‘ग़रीब किसान’ शीर्षक से, सुप्रसिद्ध साप्ताहिक-पत्र’योगी’ (पटना) में हुआ। इस कथा को साहित्य-समाज में व्यापक स्वीकृति मिली, जिससे उत्साहित होकर उन्होंने लेखन को अपना अभीष्ट बना लिया और जीवन पर्यन्त लिखते रहे। गद्य और पद्य साहित्य की प्रायः सभी प्रचलित विधाओं में लिखा। कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,नाट्य-रूपक, काव्य, गीति-रूपक, व्यंग्य, संस्मरण, जीवनी और बाल-साहित्य भी। ‘मुस्कान’, ‘बिखरे आँसू’ ( कहानी संग्रह ), ‘शीश-दान’ (नाटक), ‘अमिट रेखाएँ’ (एकांकी-संग्रह), ‘आँधी पानी’, ‘नई किरण’, ‘सूरज चाँद सितारें’, ‘कजरारे बादल’ ( सभी काव्य-संग्रह), ‘भीगी आँखें’, ‘लहरों के बीच’, हँसती आँखें’, ‘आधी रात’, ‘राह का पत्थर’, ‘किनारे की ओर’, ‘नीली साड़ी’, ‘आग और आँसू’, ‘तूफ़ान के तिनके’ , ‘शमा जलती रही’, ‘सीमा और उड़ान’, छोटे बड़े लोग’ (सभी उपन्यास), ‘पकौड़ी साह ज़िंदाबाद’, ‘ऊँची नाक’, उल्टा अस्तुरा’, ‘बोतलानंद’, पाँचों अंगुलियाँ घी में’, ‘ओटीआर अमर हो’, ‘नया ज़माना नया रंग’ (सभी व्यंग्य-साहित्य), ‘परियों की रानी’, सोने की बुलबुल’, सोने का पेड़’, जादू का पलंग’, ‘जादू की नगरी’, ‘राजा का बेटा’ ( सभी बाल-साहित्य ), ‘चंपारण : नील के धब्बे’, ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ तथा ‘क्रांति-यात्रा’ ( सभी संस्मरण-साहित्य)समेत ६८ पुस्तको से उन्होंने हिन्दी साहित्य का भण्डार भरा। ‘क्रांति-यात्रा’, जो उनकी अंतिम कृति रही, का प्रकाशन उनके निधन के पश्चात हो सका। उनके एक उपन्यास ‘लहरों के बीच’ का तमिल भाषा में अनुवाद भी हुआ था।
‘चंपारण : नील के धब्बे’ उनके द्वारा लिखित निलहे किसानों की दर्दभरी कहानी का जीवंत दस्तावेज़ और उनके प्रथम-उद्धारक पं राज कुमार शुक्ल की प्रतीकार-कथा है। निलहे ज़मींदारों से मुक्ति के लिए पं शुक्ल के महान उद्योग और उनके जीवन पर लिखी यह प्रथम कृति है, जिसकी प्रशंसा देश के प्रथम राष्ट्रपति तथा चंपारण-सत्याग्रह में महात्मा गांधी के प्रमुख सहयोगी रहे देश-रत्न डा राजेंद्र प्रसाद ने भी की। उन्होंने राष्ट्रपति भवन से, १५ अक्टूबर १९५९ को, पत्र लिखकर गुप्त जी के प्रति इन शब्दों में साधुभाव प्रकट किया कि, “मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि स्वर्गीय श्री राज कुमार शुक्ल की स्मृति में आपने ‘चंपारण और नील के धब्बे’ नामक पुस्तक लिखी है। पुस्तक की एक प्रति मुझे भी देखने को मिली। चंपारण-सत्याग्रह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है और श्री राज कुमार शुक्ल उन व्यक्तियों में थे, जिन्होंने इस सत्याग्रह में प्रमुख (रूप से) भाग लिया। मुझे उनके काफ़ी निकट आने का अवसर मिला था और इसलिए मुझे यह पुस्तक देखकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इस प्रकार से उनकी स्मृति सदा ताज़ा रहेगी। मैं आपके इस प्रयास को स्तुत्य समझता हूँ और आपको बधाई देता हूँ।”
गुप्त जी पटना में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना के काल से ही जुड़ गए थे। आकाशवाणी से उनके काव्य-पाठ और उनके द्वारा रचित ‘रेडियो-रूपक’ का भी प्रसारण होता रहा। वाग्देवी उन पर सर्वतोभावेन कृपालु बनी रही। न केवल उन्हें कोमल भावनाओं और कवित्त-शक्ति से ही परिपूर्ण किया, अपितु उन्हें मधुर कंठ भी प्रदान किए। गुप्त जी का काव्य-पाठ भी, गीत-शिरोमणि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के मधुर गान की भाँति ही मनोहारी होता था। वे ‘चंपारण के कोकिल’ कहे जाते थे। यही कारण था कि वे देश भर के कवि-सम्मेलनों में न केवल मंच की शोभा, अपितु श्रोताओं के कंठ-हार भी बन जाते थे। काव्य-मंचों के आदरणीय और लोकप्रिय कवि के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आरंभ की उनकी रचनाएँ जहाँ क्रांति का आह्वान करती हुआ करती थीं, तो स्वतंत्रता के पश्चात समाज की अकुलाहट और वेचैनी का प्रतिनिधित्व भी। जब देश ने क्रांतिकारियों को भूलना आरंभ कर दिया तब उन्होंने ‘क्रांतिकारी भूले-बिसरे’ लिख कर देश की स्मृति को ताज़ा किया और जब उन्हें लगा कि भारत एक बार फिर छल-प्रपंच’ का शिकार हो रहा है तो अपने व्यंग्य-साहित्य से, ऐसे पाखंडियों और भ्रष्टाचारियों पर अग्नि-वाण भी छोड़े। उन्होंने अपने गीत की इन पंक्तियों से युवाओं का आह्वान किया कि :”हमें शहीदों के सपने को सत्य बनाना है/ हर घर में आज़ादी का सूरज पहुँचाना है/ प्राण-प्राण में मानवता का दीप जलाना है/ हमें देश को, अपनी मिहनत से चमकाना है।”
वे बच्चों को देश का भविष्य मानते हुए, और कि वे संस्कारी बनें, अनेक बाल-साहित्य का सृजन किया। उनकी भाषा अत्यंत सरल, आकर्षक और प्रेरणादायक होती थी। उनके बाल-साहित्य की विशेषता यह थी कि उनमे कहीं भी संयुक्ताक्षर का प्रयोग नही हुआ। इसीलिए बच्चों में उनका साहित्य अत्यंत लोकप्रिय हुआ। उनके बाल साहित्य ‘चंदामामा’ जैसी बालोपयोगी पत्रिकाओं में भी छपा करती थी।
गुप्त जी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन समेत अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े रहे। चंपारण ज़िला हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उनका अभिनंदन भी किया था। उनकी दीर्घ क़ालीन साहित्य-सेवा के लिए राजभाषा विभाग (बिहार सरकार) ने १९७७ में पुरस्कृत किया। चनपटिया में २६ अक्टूबर १९८२ को, उनके ६७वें जन्म दिवस पर एक बड़ा समारोह आयोजित कर उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। १९८७ में उनके जन्म दिवस पर, उनपर केंद्रित एक साहित्यिक पत्रिका ‘दर्शन-मंथन’ का मुज़फ़्फ़रपुर में प्रकाशन किया गया। यह सब उस तपस्वी-साधक की अविराम साधना की सामाजिक स्वीकृति की दिशा में एक आदर-पुष्प ही तो था। यों उनका देश के प्रति और साहित्य के प्रति जो अवदान रहा है, वह कुछ और बड़े की अपेक्षा रखता था।
उनके कोमल भावों में प्रकृति, प्रेम और ऋंगार के लिए भी पर्याप्त स्थान था। तभी तो उन्होंने ‘पंचमी वसंत की’ और ‘झूम रहा वृंदावन’ जैसी प्रेम और श्रींगार की रचनाएँ की। उनकी ये पंक्तियाँ;- “छलकाती अमृत की धार/ आई-आई वसंत बहार/ माथे पर चंदा की विंदा लगाकर/नयनों में जीवन के सपने जगाकर/ फूलों का करके ऋंगार/ आई-आई वसंत बहार” काव्य-लालित्य पर उनके अधिकार का सहज परिचय देती हैं।
२४ जुलाई, १९९२ को गुप्त जी, ७७ वर्ष की आयु में अपने पार्थिव देह का त्याग कर ‘गोलोक’ के लिए विदा हो गए। किसी को सेवा का अवसर नहीं दिया। जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन सुधारे, उसी प्रकार ‘मृत्य’ भी सुधार ली, और अपने साहित्य-संस्कार को अगली पीढ़ियों को भी दे कर विदा हुए। उनके बड़े पुत्र स्व चंद्र किशोर गुप्त भी एक लोकप्रिय कवि हुए और उनके दो पौत्र श्री दीपक कुमार गुप्त और श्री अजित कुमार गुप्त ( दोनों चंद्र किशोर गुप्त के पुत्र) अपने साहित्य-संस्कार को परिमार्जित कर रहे हैं। साहित्य-समाज में इन दोनों की ‘सुकवि’के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है।