स्मृति-दिवस ( २९ जुलाई ) पर विशेष छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि थे डा माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ डा अनिल सुलभ.छंद-शास्त्र के मनीषी आचार्य और तेजस्वी साहित्यकार डा माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ छायावादोत्तर काल के अति विशिष्ट और प्रणम्य कवि थे। काव्य-प्रतिभा से दीप्त और विद्या-जनित विनम्रता से स्निग्ध उनका देवोपम मुखमंडल सदा ही मृदुलता से उद्भासित रहा। उन्हें कोलकता विश्वविद्यालय में आरंभ होने वाले हिन्दी-स्नातकोत्तर का प्रथम छात्र होने का गौरव प्राप्त था। उन्होंने अपनी पी एच डी की उपाधि लंदन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, बिहार हिन्दी प्रगति समिति, भारतीय हिन्दी परिषद समेत अनेक साहित्यिक संस्थाओं को अपनी मूल्यवान सेवाएँ देने वाले महेश जी भागलपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के लोकप्रिय प्राध्यापक और कोशी स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से बिहार विधान परिषद में सदस्य भी रहे। बहुमुखी प्रतिभा से विभूषित उनका व्यक्तित्व भी बहु-आयामी था। जीवन भर मृदुभावों को जीने वाले और प्रेमामृत परोसने वाले इस कवि के विचारों में क्रांति का कम्पन और साँसों में हाहाकार का झंझा रहा। उनकी छंद-निपुण रचनाएँ, प्रकाश-पूँज की भाँति अंधकार भरे जीवन-पथ को आलोकित करती हैं।पद्य और गद्य के दसाधिक पुस्तकों से हिन्दी का भण्डार भरने वाले महेश जी का जन्म भागलपुर (अब बाँका) जिले के शंभुगंज थानांतर्गत पकड़िया ग्राम में १६ दिसम्बर १९०८ को हुआ था। उनके पिताश्री लक्खी प्रसाद सिंह एक निम्न माध्यम वर्गीय किसान थे। महेश जी की प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में ही हुई। वर्ष १९२९ में प्रवेशिका उत्तीर्ण कर उन्होंने १९३३ में टी एन बी कौलेज, भागलपुर के छात्र के रूप में पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तब बिहार में केवल एक ही पटना विश्वविद्यालय था। स्नातकोत्तर की शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (अब कोलकाता) गए जहाँ उसी वर्ष से हिन्दी में स्नातकोत्तर की शिक्षा आरंभ हुई थी। यह एक रोचक प्रसंग है कि वे कोलकाता विश्वविद्यालय के इस पाठ्यक्रम के प्रथम सत्र के प्रथम और इकलौते विद्यार्थी थे। १९३६ में संपन्न हुई परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। ‘प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान’ प्राप्त करने वाले छात्र! (कक्षा में वे अकेले छात्र थे, इसलिए किसी अन्य स्थान के लिए कोई आशंका ही न थी।) लोग इस प्रसंग में उनसे परिहास भी किया करते थे। किंतु उन्होंने कभी इसका बुरा नही माना, अपितु सदा आनंद ही लिया।
स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात वर्ष १९३७ में वे टी एन बी कालेज, भागलपुर में व्याख्याता नियुक्त हो गए। अध्यापन और लेखन का कार्य निर्विघ्न और निर्बाध चलने लगा! १९३७ से १९४० के बीच उनकी प्रखर और निरंतर गतिमान लेखनी से ४ काव्य-कृतियाँ प्रकाश में आईँ। ‘अनल वीणा’ (१९३९), ‘सुहाग’, ‘युगवाणी’ और ‘मालिका’ ( सभी १९४०)। उनके मुक्तकों के संग्रह ‘बीज और अणु’ का प्रकाशन एक बड़े अंतराल के पश्चात १९६५ में हुआ। इस संग्रह के साथ ही पूर्व प्रकाशित उपरोक्त ४ काव्य-संग्रहों का भी पुनर्प्रकाशन हुआ। महेश जी ने भागलपुर में भीखनपुर मुहल्ले में, जहाँ वे स्वयं रहा करते थे अपना एक प्रकाशन संस्थान (महेश प्रकाशन) भी स्थापित कर रखा था। यहीं से उपरोक्त सभी पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था। ‘मालिका’ के नवीन संस्करण को उन्होंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को समर्पित किया था, जो उन दिनों भागलपुर विशविद्यालय के कुलपति भी थे। दिनकर जी ने ही नव-प्रकाशित और पुनर्प्रकाशित उन पाँचों पुस्तकों का लोकार्पण किया। दिनकर जी के वे सदैव स्नेह भाजन बने रहे तथा मार्ग-दर्शन भी पाते रहे।
‘सुहाग’ एक प्रेम और ऋंगार प्रधान कविताओं का अत्यंत स्वागतेय संकलन है, जिसमें कवि ने अपने प्रेम में पगे और डूबे मनोभावों को मृदुल-लालित्य से व्यंजित किया है। इस संग्रह में संकलित कविता की इन पंक्तियों में लास्य की पराकाष्ठा देखी जा सकती है;-
“लजौती लतिका-सी सुकुमार/ झुकी थी पर लज्जा गुरुभार
बज उठे हृतन्त्री तार / बही थी मादकता की धार ।
चाँद का मुख चूमती चाँदनी, मदन का मतवाला वह वाण
हाय ! कैसे भूलेंगे प्राण, अरे ! मोहन की मीठी तान ।”
कवि का यह संग्रह इतना लोक प्रिय हुआ की १९६५ में इसका चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य काव्य-कृतियाँ; ‘अनल वीणा’, ‘बीज और अणु’, ‘मालिका’ तथा ‘युगवाणी’ का दूसरा संस्करण था। ‘सुहाग’ के इस चौथे संस्करण में अपना ‘अंतरदर्शन’ लिखते हुए स्तुत्य मनीषी डा लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी ने कितना सत्य कहा कि “सुहाग के कवि की नायिका ‘नवोढा’ है और इसी कारण से उसमें मुग्धता भी है। नवीन शिक्षा पद्धति में पली हुई नवोढा में हाव की चेष्टा चाहे जितनी हो, पर उसमें मुग्धत्व के भाव का सौंदर्य अधिकांशतः विनष्ट हो जाता है”।
‘मालिका’ के कवि अपनी वैचारिक और भावनात्मक उत्कर्ष को पा चुके थे। इसीलिए इस संग्रह की रचनाओं में शालीनता और औदार्य स्थान-स्थान पर अभिव्यंजित होता है। इस संग्रह में ‘शांतिदूत’, ‘भारत-वंदना’, ‘विद्यामंदिर’, ‘नया वर्ष’ जैसी माँगलिक कविताएँ हैं। ‘शांतिदूत’ कविता में वे पं जवाहरलाल नेहरु को स्मरण करते हुए, शांतिमयी क्रांति का भाव रखते हुए, क्रांतिमयी शांति का आग्रह करते है;
“वाणी में आग लिए, मन में अनुराग लिए/
छलकता अंतर में सुधा पारावार है/ यह तो जवाहर है।”
‘बीज और अणु’ उनकी एक ऐसी कृति है,जिसमें एक ही लम्बी कविता ४९ पृष्ठों में पूरी होती है। यह वस्तुतः कवि की अपनी जीवनानुभूति और जीवन के प्रति उनकी उच्च आकांक्षा को शब्द देती है। इस सुदीर्घ रचना में, जीवन के सारस्वत और शाश्वत मूल्य और दर्शन की स्मृति होती है। वे कहना चाहते हैं कि “व्यक्ति चला जाता है उसकी कीर्ति रह जाती है/ व्यक्ति चला जाता है, उसकी कृतियाँ संस्कृति गाती हैं”।’युगवाणी’ में कवि का युगबोध अभिव्यंजित हुआ है। इसमें कवि का अंतर्दाह ही नही भारत के दैन्य-दारिद्र और वैषम्य की पीड़ा भी अभिव्यक्ति पाई है। उनकी ये पंक्तियाँ समाज की पीड़ा से विदग्ध कवि के आंतर के हाहाकार के विस्फोट की तरह है;-
“माँ ! पी पी कर विष की प्याली, कब तक रो रो हाय मरूँगा!
इस अनंत वैषम्य अग्नि में कब तक घुलघुल जला मरूँगा?
निर्दयता का नग्न-नृत्य होता मनुष्यता के मज़ार पर
क्रूर बची मानवता हँसती, भूखों की रोटी पुकार पर ।”
महेश जी की अन्य पद्य-संग्रह ‘पतंजलि’, ‘सूरज हँस रहा’, ‘नव-स्वर’, ‘नव-वाणी’ तथा ‘विजयश्री’ को भी पर्याप्त प्रशंसा प्राप्त हुई। वर्ष १९५० में महेश जी ने अवकाश लेकर लंदन की यात्रा की, जहाँ उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में अपना निबंधन करा कर, ‘द हिस्टोरिकल डेवलपमेंट औफ़ मेडिएवल हिन्दी पोएट्री’ विषय पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत कर १९५३ में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। इस शोध प्रबंध के हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन ‘मध्यकालीन छंद शास्त्र’ शीर्षक से भागलपुर विश्व विद्यालय द्वारा किया गया।
पी एच डी की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात वे कुछ वर्षों के लिए राँची महाविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग (हिन्दी) में अपनी सेवाएँ दी और १९५६ में पुनः टी एन बी कौलेज भागलपुर आ गए, जहाँ से १९७३ में अवकाश लिया। अवकाश लेने से पूर्व ही वे कोशी स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से बिहार विधान परिषद के लिए सदस्य चुने जा चुके थे। अवकाश लेने के पश्चात वे स्थाई रूप से पटना ही रहने लगे। यहाँ का व्यापक साहित्य क्षितिज उनके सारस्वत व्यक्तित्व को और भासित करने में सहायक सिद्ध हुआ। उन्हें बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार हिन्दी प्रगति समिति, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी आदि महत्त्वपूर्ण संस्थाओं और राजधानी के वरेण्य साहित्यकारों से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ।
महेश जी पद्य ही नही गद्य साहित्य में भी अत्यंत महनीय अधिकार रखते थे। उन्होंने अपने मौलिक चिंतन को ‘निबंध निकुंज’, ‘स्वावलंबन’ ‘हिन्दी पत्रिकाओं का विकास’, ‘आलोचना और उदय’ ‘अंगिका भाषा और साहित्य’ जैसे लोकोपयोगी और छात्रोपयोगी ग्रंथों में अभिव्यक्त किया। भारतीय दर्शन और सांस्कृतिक परंपराओं का भी उन्हें गहरा अध्ययन था। ‘हमारे सांस्कृतिक पर्व त्योहार’ और ‘दक्षिण भारत के कुछ प्रमुख पर्व-त्योहार’ नामक उनके दो ग्रंथ, जिनका प्रकाशन ‘पारिजात प्रकाशन’, पटना से क्रमशः १९८२ ऑअ १९८७ में हुआ था, उनकी शास्त्रीय और सम्यक् दृष्टि का परिचय देते हैं। इन पुस्तकों में महेश जी ने सभी माहों के ‘पूर्णिमा’ का बहुत ही विशद और रोचक वर्णन किया है। ‘राम नवमी’ के विषय में लिखते हुए वे कहते हैं कि ” यह भारतीय संस्कृति में मानव-जीवन का, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व का सबसे बड़ा पर्व है। ‘जन्माष्टमी’ के संबंध में लिखते हुए वे कहते हैं कि “भगवान कृष्ण का प्रादुर्भाव निराशा में आशा का संचार के लिए होता है। ‘दीपावली’ को वे नवोत्थान, नवयुगारंभ तथा नव-साफल्य दिवस मानते हैं। उन्होंने छात्रोपयोगी ‘हिन्दी भाषा-व्याकरण’ की भी रचना की, जिसका प्रकाशन ‘पुस्तक भवन, राँची’ ने किया था।
महेश जी अपनी मातृ-भाषा ‘अंगिका’ के अनन्य भक्त रहे। उनके लेखन की भाषा भले हिन्दी रही, पर वार्तालाप की भाषा ‘अंगिका’ ही थी। शायद ही किसी ने उन्हें अंगिका के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में बात करते हुए सुना हो। महेश जी के जीवन में अनेक दुर्लभ संयोग और विचित्रताएँ जुड़ी हुई थी। यह भी उनकी विचित्रताओं में ही सम्मिलित है कि कक्षाओं में भी वे ‘हिन्दी’ का अध्यापन ‘अंगिका’ में करते थे। इसीलिए उन्हें ‘अंगिका का मजनूँ’ कहा जाने लगा था। यह भी अत्यंत रोचक ही है कि अंगिका के प्रति इतनी गहरी श्रद्धा होने के बाद भी अंगिका में उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नही हुई। राष्ट्र भाषा परिषद द्वारा १९६० में, जब बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष आचार्य शिवपूजन सहाय उसके निदेशक थे, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जी के संपादन में ‘पंचदश लोक भाषा निबंधावली’ का प्रकाशन हुआ था। उसमें अंगिका पर उनका एक बहुचर्चित आलेख प्रकाशित हुआ था।
पारिजात प्रकाशन, पटना द्वारा महेश जी की अंतिम काव्य-कृति ‘ज्योति जयती’ वर्ष १९९२ में प्रकाशित हुई। यही वर्ष उनके जीवन का अंतिम वर्ष भी सिद्ध हुआ। २९ जुलाई १९९२ को पटना में, महेश जी ने इस नश्वर जगत से विदा ली। उनका यह पुण्य दिवस उनके वैविध्यपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की भाँति अनंत काल तक स्मरणीय बना रहेगा।