सारस्वत प्रतिभा के अतुल बलधाम और बिहार की अस्मिता के महान संरक्षक श्री महेश नारायण, ‘बिहार‘ नाम से एक अलग राज्य की स्थापना के लिए गर्जना करने वाले एक महान और संघर्षशील राजनेता ही नही, खड़ी बोली हिन्दी की प्रथम पीढ़ी के ‘भारतेंदु यगीन‘ महाकवि भी थे। इनकी काव्य–प्रतिभा की विशाल–भूमि में न केवल आधुनिक हिन्दी के विशाल वट–वृक्ष के ही, अपितु छायावाद और प्रयोगवाद के बीज भी दिखाई पड़ते हैं। बिहारी स्वाभिमान के प्रश्न पर अनेक वलिदान देने वाले महेश बाबू राजनीति के जटिल और निरंतर क्षुब्ध करने वाले जंजाल में नही पड़े होते, तो हिन्दी काव्य का सागर उनके अवदानों से और अधिक परिपूर्ण हुआ होता। संघर्षमय सामाजिक और राजनैतिक जीवन ने उनके समक्ष इतने काँटे बोए और इतने कम अवकाश दिए कि वे इच्छा भर लिख नही पाए। उनकी लेखनी का जादू अंग्रेज़ों पर ख़ूब चला, बिहार की पुण्य–उर्वरा भूमि और भारत माता अपने ऐसे सपूत को पाकर तो आनंद से गदगद अवश्य हुई, पर माँ भारती (हिन्दी) का मन नही भर सका। महेश बाबू ने भारतेंदु बाबू की उस धारणा को ग़लत सिद्ध कर दिया था कि, खड़ी बोली में गद्य तो रचे जा सकते हैं, पर पद्य नही। वे हिन्दी काव्य–साहित्य में ‘मुक्त छंद‘ के जनक थे। हिन्दी मासिक पत्र ‘बिहार–बंधु‘ में १३ अक्टूबर १८८१ के अंक में, ‘स्वप्न–भंग‘ शीर्षक से प्रकाशित उनकी लम्बी कविता, मुक्त–छंद की प्रथम कविता है, जो निराला की ‘जूही की कली‘ से लगभग ३६ वर्ष पूर्व और ‘भारत मित्र‘ के १ सितम्बर १८८१ के अंक में प्रकाशित भारतेंदु की खड़ी बोली में प्रकाशित कविता के एक माह बाद प्रकाशित हुई थी। तब उनकी उम्र मात्र २३ वर्ष की थी। हिन्दी और अंग्रेज़ी में समान अधिकार रखने वाले महेश बाबू अंग्रेज़ी पत्र ‘बिहार‘ तथा ‘बिहार टाइम्स‘ के संस्थापक–सम्पादक थे। उनका संपूर्ण जीवन संघर्ष का पर्याय था। वे निस्संदेह सभी उत्तमगुणों से युक्त एक महान सांस्कृतिक–योद्धा और महान कवि थे।
महेश बाबू का जन्म राजमहल अनुमंडल (अब झारखंड) के बभनगामा ग्राम में, एक कुलीन सारस्वत परिवार में वर्ष १८५८ में हुआ था। उनके पिताश्री मुंशी भगवती चरण संस्कृत और फ़ारसी के सुप्रसिद्ध विद्वान थे। पिता की प्रेरणा से उनके हृदय और मानस में अनेक नूतन संकल्प पोषित हुए, जिसने उन्हें अपने समय के विस्तृत व्योम का चमकता नक्षत्र बना दिया। साहित्य, समाज और शिक्षा के लिए उनकी चेतना शैशव–काल में ही स्पंदित और झंकृत हो चुकी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में ही हुई। प्रवेशिका (इंट्रेंस) की परीक्षा में पटना विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होकर वे स्नातक की शिक्षा के लिए कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। वहाँ उन्होंने कलकत्ता विश्व विद्यालय में स्नातक–कला (बी.ए.)में नामांकन कराया, किंतु बिहारी छात्रों के साथ वहाँ हो रहे दुर्व्यवहार और भेदभाव ने उन्हें इतना व्यथित किया कि वे अध्ययन छोड़ कर अपने बड़े भ्राता श्री गोविंद चरण जी के पास पटना लौट आए और तभी से ‘बंग–भंग‘ का ध्वज और हूंकार के साथ राजनैतिक समरांगण में उतर आए। सबसे पहले महेश बाबू ने ही ‘बिहार‘ के लिए अलग राज्य की माँग की, जिसके समर्थन और सहयोग में बाबू सच्चिदानंद सिन्हा आदि प्रबुद्ध समाजसेवी और राजनेता आगे आए और एक बड़े तथा लम्बे संघर्ष के पश्चात १९१२ में बंगाल को विभाजित कर, ‘बिहार‘ को एक अलग राज्य बनाया गया। महेश बाबू अपनी प्रथम कविता ‘स्वप्न–भंग‘ की भाँति, अपने स्वप्न को साकार होते हुए नही देख पाए। पाँच वर्ष पूर्व ही १९०७ में उनका निधन हो चुका था।
महेश बाबू की वह प्रथम कविता ‘स्वप्न–भंग‘ एक मर्म–स्पर्शी काव्य–कल्पना पर आधारित है, जिसमें एक युवक और युवती की अधूरी प्रेम कथा है। युवती की विमाता, संपत्ति की लालच में, काव्य–नायिका का विवाह एक वृद्ध पुरुष से कर देती है तथा उस वृद्ध के निधन के पश्चात उसकी सारी सम्पत्ति पर अधिकार कर लेती है। विमाता की उपेक्षा और तिरस्कार से आहत वह विधवा अपने पूर्व प्रेमी की खोज में निकल पड़ती है। और ज्यों ही वह उसे प्राप्त करती है, त्यों ही उसका क्रूर पिता अपनी द्वितीया (पत्नी) द्वारा प्रेरित होकर, उसे घुमा कर फेंक देता है। नायिका का स्वप्न टूट जाता है और इस प्रकार कथा–रूप इस लम्बी कविता का नाटकीय अंत होता है। मुक्त छंद की इस प्रयोगवादी कविता ने, जिसमें तत्सम और फ़ारसी के शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है, काव्य–साहित्य में हलचल पैदा कर दी थी, जिसे बड़ी चतुराई से तत्कालीन दिग्गजों ने शांत किया था। ‘स्वप्न–भंग‘ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं, जो कवि के काव्य–सामर्थ्य, रंजना और व्यंजना शक्ति तथा सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहार की शैली को अभिव्यक्त करती है;-
“बिजली की चमक से रौशन हुआ चेहरा/ देखा तो परी है, ताजों से भरी है।
घुंघराले बाल , मख़मल से दो गाल/ तथा नाज़ुक उसका कुछ था मलाल।
इस लम्बी कविता को ‘बिहार बंधु‘ के १३ अक्टूबर,१८८१ से १५ दिसम्बर १८८१ के अंकों तक धारावाहिक प्रकाशित किया गया था। उनकी अन्य कविताएँ;- ‘थी अंधेरी रात‘, ‘पहाड़ी ऊँची एक दक्षिण दिशा में‘, ‘और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाक था‘, ‘ठनके की ठनक से‘, ‘वह राक्षसी उजाला‘, रात अंधेरी में पहाड़ी की डरावनी मूर्ति‘, ‘एक कुंज‘, ‘उस कोलाहल में ध्वनि उसकी‘, ‘बिजली की चमक में‘, मुख मलीन मृग लोचन सुख‘, ‘पानी पड़ने लगा वह मूसल धार‘, ‘सब्जे का बना था शामियाना‘, ‘पहाड़ी पर पत्थर के चट्टान बड़े‘, ‘रोने की आवाज़ आती है कहाँ से?’, ‘कभी मुँह ग़ुस्से से होता लाल‘, ‘दिल में उसके थी एक अजब हलचल‘, ‘थी वह अबला अकेली उस वन में‘, ‘क्या है यह अहा हिंद की ज़मीन‘, ‘अवश्य नयन स्वप्न ही में थी टेढ़ी‘, ‘दरख़्तों को फिर वह सुनाने लगी है‘, ‘यां तो बेवजह लड़ाई नही होतों होगी?’ ‘ज़िंदा मुर्दा की तरह पड़ी थी‘ आदि उनकी कविताएँ अपनी प्रभावोत्पादकता के कारण पर्याप्त चर्चा में रहीं और हृदय से पढ़ी–सुनी गईं। उनकी कविताएँ और आलेख भी ‘बिहार बंधु‘ में ससम्मान स्थान पाते रहे। ‘बंग–विच्छेद‘ नामक उनका गद्य, जो बिहार के स्वतंत्र विकास के लिए बंगाल के विभाजन को अनिवार्य सिद्ध करता था, बिहार के पक्ष में खड़े संपूर्ण प्रबुद्ध समाज और नौजवानों के लिए प्रेरणा का आलोक–स्तम्भ सिद्ध हुआ।
महेश बाबू की काव्य–भाषा तत्सम और फ़ारसी से युक्त मनोहर शब्दावली और भाव–लालित्य से परिपूर्ण थी। उनकी पद्य रचनाएँ प्रायः ही कथात्मक और चित्रात्मक हैं। उनमे अद्भुत सौंदर्य–बोध भी है और मार्मिक–वेदना की प्रांजल व्यंजना भी। इसीलिए उनमें काव्य–लालित्य से भरी कथा का आनंद मिलता है। ‘थी अंधेरी रात‘ नामक उनकी कविता की निम्न पंक्तियों से अवगत होता है कि वे किस सामर्थ्य के शब्द चित्रकार थे;
“थी अंधेरी रात और सुनसान था / और फैला दूर तक मैदान था,
जंगल भी वहाँ था, जानवर का गुमां था/बादल था गरजता, बिजली थी चमकती,
वो बिजली की चमक से रौशनी होती भयंकर सी,
ईश्वर के जमाल का नमूना वाँ था/ ईश्वर के कमाल का ख़ज़ाना वाँ था!
महेश बाबू की काव्य–प्रतिभा, शब्द सामर्थ्य एवं अनुभूतिप्रवणता के प्रमाण उनकी अनेक रचनाओं में मिलते हैं, किंतु उनमे ध्वनि की कितनी गहन समझ और सूक्ष्म बोध भी था, इसका उदाहरण निम्न पंक्तियाँ हैं;-
“ठनके की ठनक से, बिजली की चमक से/ वायु की लपक से, फूलों की महक से,
वह वन में दिख पड़ता था अजाएब सा भयानक हुस्न!
झरने की बड़बड़ाहट, पत्तों की सनसनाहट / कड़के की कड़कड़ाहट, करती थी हड़हड़ाहट
लड़तीं थी आपुस में ईश्वर की कीर्तियाँ सब !”
ध्वनि–बोध के साथ उनका सौंदर्य–बोध भी अप्रतिम है। अपनी कविता ‘वह राक्षसी उजाला‘ में वे प्रकृति का चित्रण करते हुए अपने अंतर का सौंदर्य मनोहारी ध्वनि में प्रकट करते हैं;
जुग़नूँ थे चमकते डालों पर/ जस मोती काले बालों पर।
जस चंदन बिंदु दीख पड़े, श्यामा अबला के गालों पर !
महेश बाबू बिहार में पत्रकारिता के भी आदि–पुरुषों में से एक थे। उन्होंने वर्ष १८८४ में ‘बिहार‘ नाम से अंग्रेज़ी का पत्र आरंभ किया। किंतु यह अल्पायु रहा। १८९४ में उन्होंने, अंग्रेज़ी में ही, ‘बिहार टाइम्स‘ नामक दूसरा पत्र आरंभ किया, जो उनके जीवन–पर्यन्त (१९०७ तक ) प्रकाशित होता रहा। यह पत्र राष्ट्रीयता और बिहारी–अस्मिता का शंखनाद था। इसमें महेश बाबू ने अपने तर्क–सम्मत और उत्तेजक लेखों से अंग्रेज़ी हुक्मरानों को इस निर्णय पर आने के लिए विवश किया कि ‘बिहार‘ को स्वतंत्र अस्तित्व दिया जाना चाहिए। इस पत्र के माध्यम से वे स्वतंत्रता–आंदोलन और बिहारी अस्मिता के लिए जागरण का कार्य करते रहे। । यह पत्र नए पत्रकारों के लिए एक कार्यशाला भी सिद्ध हुआ। वे व्याख्यानों और संगोष्ठियों के भी आयोजन किया करते थे। उन्होंने अनेक वैचारिक संस्थाओं की भी स्थापना की। एक बड़े प्रबुद्ध संगठन–कर्ता के रूप में भी वे समाज में आदरणीय रहे। १ अगस्त १९०७ को जब उन्होंने अपना नश्वर देह छोड़ा, उस समय उनके लिए तड़पने वाले हज़ारों दिल थे और आँसू बहाने वाली लाखों आँखें। उनके साहित्यिक और सामाजिक अवदान ऐतिहासिक हैं! खड़ी बोली हिन्दी में मुक्तछंद के प्रथम कवि, निर्भीक और स्वाभिमानी पत्रकार तथा बिहार के निर्माताओं में से एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में महेश बाबू सदा जीवित रहेंगे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व आने वाली पीढ़ियों का सदा मार्ग–दर्शन करता रहेगा।