जयंती (६ अगस्त ) पर विशेष महान स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और महाकवि थे पं राम दयाल पाण्डेय.मात्र १५ वर्ष की आयु से स्वतंत्रता-संग्राम में कूद पड़े, महान स्वतंत्रता-सेनानी पं रामदयाल पाण्डेय, सिद्धांत के पक्के एक ऐसे दधीचि-तुल्य पत्रकार और कवि थे, जिनकी स्मृति ही मन को पावन कर देती है। उनका जीवन, त्याग और वलिदान का अनुवाद है। राष्ट्र,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता उनका जीवन-मूल्य और जीवन-मंत्र था। चरित्र-बल और आत्म-बल से विभूषित और प्रदीप्त उनका मुख-मण्डल सदा स्वाभिमान के स्वर्ण-मुकुट से शोभित रहा। उनके जीवन में सिद्धांत और स्वाभिमान के ऊपर केवल विनम्रता के लिए ही स्थान था, और किसी का नही। पद और पुरस्कार के पीछे वे कभी नही गए, अपितु वही इनके पीछे रहा। वे हिन्दी प्रगति समिति, बिहार के अध्यक्ष तथा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के उपाध्यक्ष-सह-निदेशक रहे। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पाँच-पाँच बार अध्यक्ष चुने गए। राजभाषा पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से विभूषित हुए। आर्थिक कठिनाइयों में रहे, फिर भी पुरस्कार की राशि को, ‘पत्रकार-कल्याण-कोश’ और ‘साहित्यकार कल्याण-कोश में दे दी। यहाँ तक कि, ‘स्वतंत्रता-सेनानी पेंशन’ लेना भी यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि “मातृ-भूमि की सेवा, मूल्य लेने के लिए नहीं की थी”। वे ‘दैनिक नवराष्ट्र’, दैनिक विश्वमित्र’, ‘साप्ताहिक अग्रदूत’, ‘स्वदेश’, ‘आज’ जैसे सुप्रतिष्ठ पत्रों के संपादक तथा ‘गण देवता’, ‘शक्तिमयी’, ‘अशोक’ आदि दर्जन भर प्रबंध काव्यों और काव्य-ग्रंथों के रचयिता थे। वे राष्ट्रीय-मंचों के आदरणीय कवि और ओजस्वी वक्ता भी थे। वृद्धावस्था में भी उनकी वाणी का ओज और स्वर की ऊँचाई कम नही हुई थी। वे सत्य में हीं एक राष्ट्र-भक्त कृतात्मा और भावितात्मा साधु-पुरुष थे, जिन्होंने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक भवन के निर्माण में, अपने सिर पर ईंट और गारा तक ढोए थे।
पाण्डेय जी का जन्म ६ अगस्त १९१५ को, बिहार के भोजपुर जिला अंतर्गत शाहपुर पट्टी ग्राम में एक निम्न मध्यम वर्गीय पुरोहित कुल में हुआ था। वे अपने माता-पिता (रामराजी देवी और गोपाल जी पाण्डेय) की एक मात्र संतान थे। पितृ-छत्र की दृष्टि से भी शिशु दुर्भाग्यशाली सिद्ध हुआ। मात्र एक वर्ष की आयु में पिता के सुदृढ़ छत्र से वंचित हो चुके शिशु रामदयाल के सिर पर माता का ही कोमल आँचल रहा। माँ के दिव्य संस्कारों और मातृत्व ने उनकी मेधा को परिमार्जित किया। रामदयाल बाल्य-काल से ही अपनी प्रखर मेधा का परिचय देने लगे। ग्राम की पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा आरंभ हुई। मध्यविद्यालय की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उच्चविद्यालय की शिक्षा हेतु, वे पटनासिटी आ गए और सिटी उच्च विद्यालय में नामांकन करा लिया। विद्यालय के तत्कालीन प्रधान अध्यापक श्री रामचंद्र प्रसाद का , जो आरा के ही थे, उन्हें विशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ। वे उनकी मेधा और दयनीय आर्थिक-स्थिति से अवगत थे। उन्होंने शुल्क आदि में छूट देकर उनको पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया। पाण्डेय जी के बड़े मामा श्री भागवत तिवारी का आवास भी विद्यालय के निकट था। वे गुलज़ारबाग प्रेस में कर्मचारी थे। उनका भी संरक्षण और मार्ग-दर्शन बालक रामदयाल को प्राप्त हुआ। १९३५ में प्रवेशिका की परीक्षा में अपेक्षित अंकों से उत्तीर्ण हुए। स्नातक की उपाधि के लिए उन्होंने पटना के सुप्रसिद्ध महाविद्यालय, बी एन कौलेज में, अपना नामांकन कराया, किंतु स्वतंत्रता-संग्राम और प्रथम विश्व-युद्ध से उत्पन्न अराजकता और बंदी के कारण शिक्षा बाधित हो गई।
पाण्डेय जी तरुणाई में ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। जब वे प्राथमिकशाला के अंतिम वर्ष (आठवीं) के विद्यार्थी थे, तभी उनके विद्यालय में महात्मा गांधी का आगमन हुआ था। ‘बा’ ( महात्मा गांधी की सह-धर्मिणी ‘कस्तूर बा’) भी उनके साथ थीं। १९३० का यह ग्रीष्म-काल था। स्वागत-गान के लिए तरुण रामदयाल को ही चुना गया था। बापू की प्रतीक्षा में घंटों धूप में बैठने के कारण वे अस्वस्थ हो चुके थे। स्वागत-गान प्रस्तुत करने के पश्चात बैठते-बैठते वे अचेत होकर गिर पड़े। उन्हें ‘बा’ ने गोद में उठा लिया। बापू पंखा झलने लगे। किंचित काल में बालक की चेतना लौटी। देखा तो बापू और बा के प्रेम से अभिभूत हो गए। देश-भक्ति और स्वतंत्रता-संग्राम का बीज यहीं कोमल मन में पड़ गया। इस घटना ने तरुण रामदयाल पर गहरा प्रभाव डाला। वे गांधी-युगल के प्रति श्रद्धा से भर उठे थे। यह घटना जीवन में सबसे तीक्ष्णमोड़ सिद्ध हुई। इसी ने स्वतंत्रता-आंदोलन के लिए मन में गहरा संकल्प भर दिया। इसी वर्ष (१९३० में ) गांधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम का दूसरा अध्याय आरंभ किया था। तीन विषय लिए गए थे- ‘नमक-सत्याग्रह’, ‘मद्य-निषेध हेतु धरना’ और ‘विदेशी वस्त्रों का होलिका-दहन’। तब पाण्डेय जी की आयु १५ वर्ष थी। उन्होंने तरुणोचित उत्साह से आंदोलन में भाग लिया। पुलिस द्वारा पकड़े गए, डंडे खाए, पर बच्चा समझ कर छोड़ दिए गए।
पर वे कब मानने वाले थे। संपूर्ण भोजपुर जिले में आंदोलन की गतिविधियों में सक्रिए रहे तथा किशोरों को प्रेरित-संगठित करते रहे। उच्च शिक्षा के लिए जब पटना आ गए तो कठोर परिश्रम और निष्ठा से शिक्षा भी प्राप्त करते रहे और अंतर में स्वतंत्रता की अग्नि को भी जलाए रखा। बी एन कालेज में जब स्नातक के विद्यार्थी थे, आंदोलन तीव्र होता जा रहा था। विद्यार्थी सरकारी शिक्षा-संस्थानों का त्याग कर रहे थे। उन्होंने भी किया।
१९४२ की अगस्त क्रांति में, जो देश की स्वतंत्रता का अंतिम-संग्राम था और गांधी जी ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ तथा ‘करो अथवा मरो’ का शंखनाद कर चुके थे, पाण्डेय जी ने अपना कर्म-क्षेत्र अपने गृह जिले को बनाया। उनके नेतृत्व में आंदोलन कारियों ने आरा थाना को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। बाद में अंग्रेज़ी सेना ने आंदोलन कारियों पर दमनात्मक कार्रवाई करते हुए, थाने को मुक्त कराया। क्रोध में जल रहे अंग्रेज़ सैनिक ढूँढ-ढूँढ कर आंदोलनकारियों को बंदी बना रहे थे और पकड़े जाने पर घोर यतानाएँ दे रहे थे। वरिष्ठ नेताओं के निर्देश पर पाण्डेय जी पकड़े जाने से बचते रहे। पर एक दिन वे किसी अंग्रेज़ अधिकारी को, अनायास ही सड़क पर खादी वेश में दिख गए। खादी वस्त्र उन दिनों ‘क्रांतिकारियों के चिन्ह’ बन गए थे। उन्हें देखते हीं अंग्रेज़ सिपाहियों ने पकड़ा और बंदूक़ के कुंदों से एक साथ प्रहार कर दिया। वे अचेत होकर गिर पड़े। मृत समझ कर सैनिकों ने उन्हें धान के खेत में फेंक दिया। कुछ देर बाद किसी ने देखा, अपने घर ले जाकर उपचार किया तो जीवन की रक्षा हुई। अगले दो वर्षों तक वे बचते रहे, किंतु अंत में पकड़े गए और जेल हुई। लगभग दो वर्षों तक आरा जेल में रहे। आगे चलकर अंग्रेज़ सरकार और कांग्रेस के बीच हुए समझौते के बाद आंदोलन कारियों पर से मुक़दमे आपस लिए गए और उन्हें मुक्त किया गया।
तत्कालीन प्रचलन के अनुसार पाण्डेय जी का बाल्य-काल में ही विवाह हो गया था। बालिका-वधु (रोशनी पाण्डेय) भी अल्पायु सिद्ध हुई। संघर्ष के दिनों में ही (१९३९ में) उनका निधन हो गया। कुटुम्बियों के परामर्श पर वे दूसरे विवाह के लिए तैयार हुए। चंद्रावती पाण्डेय ‘द्वितीया’ होकर सुने हृदय को स्नेह प्लावित करने, सूखे गृह में शीतल चन्द्रिका और सावन की घटा बनकर, क्रांति-वर्ष १९४२ में ही, पधारीं। पर यह सुख भी क्षणिक सिद्ध हुआ। चंद्रावती जी भी यक्ष्मा से ग्रस्त हो गईं और पतिसेवा करने के स्थान पर पति से ही जीवन-पर्यन्त सेवा कराती रहीं। पाण्डेय जी के जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रहा। बाहर भी और भीतर भी।
आजीविका के लिए भी उन्होंने पत्रकारिता का क्षेत्र चुना था, जिसमें उतनी भी राशि नही मिलती थी कि सुविधापूर्वक कोई घर चला सके। प्रकाशन संस्थान प्रायः ही शिक्षा-साहित्य आनुरागियों और देशभक्तों द्वारा संचालित होते थे, जो स्वयं अभावग्रस्त होते थे। किंतु यह सबकुछ उन्होंने स्वयं ही निश्चित किया था। वे हर प्रकार से राष्ट्र, राष्ट्रभाषा और साहित्य की सेवा करना चाहते थे। और, इस हेतु सभी प्रकार के वलिदान के लिए तत्पर रहते थे। उन्होंने कोलकाता से प्रकाशित ‘दैनिक विश्वमित्र’, ‘दैनिक नवराष्ट्र’, ‘आज’ (वाराणसी), ‘अग्रदूत’ (साप्ताहिक, पटना), ‘बालक’ (बाल-मासिक, पटना), ‘स्वदेश’ (साप्ताहिक, पटना), ‘पाटल’ (साहित्यिक-मासिक, पटना), ‘हिमालय’ (मासिक,पटना), ‘बिहार-जीवन’ (साप्ताहिक, भागलपुर), ‘जनता’ (साप्ताहिक, कोलकाता), ‘किशोर’ (साप्ताहिक, पटना), ‘नवीन बिहार’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का सफल संपादन किया तथा पत्रकारिता में निर्भिकता और आदर्श के मानदंड स्थापित किए।
हिन्दी काव्य-साहित्य के भण्डार को उन्होंने अपने १२ प्रबंध-काव्यों और महाकाव्यों;- ‘गण देवता’ (१९४३), ‘अशोक’ (१९५०), ‘शक्तिमयी’ ( १९९०), ‘राष्ट्र व्यंजना’ (१९९१), ‘युगांतर’ (१९९१), ‘लोकायन’ (१९९२), युवा-ज्योति’ (१९९२), ‘नवोदय’ (१९९३), ‘मन्वन्तर’ (१९९३), अग्निपंथी’ (१९९३), ‘अमृत’ (१९९४) तथा ‘कर्मोपनिषद’ (१९९४) से आप्लावित किया। उनकी आत्मा-कथा २००१ में प्रकाशित हुई, किंतु ‘पंचतत्व’, ‘विप्लव’, ‘शाश्वत’, ‘विश्वायतन’, ‘अजस्रा’, ‘पौरुष’ तथा ‘नारी शतक’ अप्रकाशित ही रह गईं।
उनके काव्य का मूल-स्वर, उनकी प्रवृति के सदृश, राष्ट्रीयता और लोक-जागरण ही रहा। निस्संदेह उनमे समस्त वसुधा के लिए मंगलाचरण के भी स्वर रहे। भाषा प्रांजल, प्रदीप्त और ओजपूर्ण रही, उनकी वाणी की भाँति। अनेक विद्वानों ने उनकी काव्य-शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विद्वान समालोचक डा शिववंश पाण्डेय (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान प्रधानमंत्री) ने उनकी अमर-कृति ‘अग्निपंथी’ पर एक विस्तृत आलोचनात्मक ग्रंथ ही लिखा, जिसमें उनके विराट काव्य-सामर्थ्य की सांगोपांग चर्चा हुई है। शिववंश जी के ही संपादन में पाण्डेय जी की स्मृति में ‘स्मृति-ग्रंथ’ का प्रकाशन हुआ था, जो उनके प्रति प्रबुद्ध-समाज की विनम्र श्रद्धांजलि है।
यह मेरे लिए गौरव की बात है कि उनके जीवन के अवसान-काल में मुझे भी उनकी किंचित सेवा-सहायता का अवसर प्राप्त हो सका। तब वे सम्मेलन के पाँचवी बार अध्यक्ष चुने गए थे। इस बार उनके हाथ में पराभव-ग्रस्त सम्मेलन आया था। एक दिन अपने आशियाना नगर स्थित आवास पर बुलाकर, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर, बड़े करुण भाव से, मुझसे सम्मेलन से सक्रियता से जुड़ने तथा उसकी रक्षा करने का संकल्प करा लिया। आज मुझे प्रतीत होता है कि यदि मैं उनसे वचन-बद्ध सम्मेलन से नही जुड़ा होता तो संभवतः सम्मेलन के उद्धार के लिए जिन राक्षसी शक्तियों से मुझे लड़ना पड़ा, मैं नही लड़ पाता। यह उनकी पवित्रात्मा और सम्मेलन के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले सभी महात्मा साहित्यकारों का ही आशीर्वाद था कि हम, अपने जीवट के सहयोगियों के साथ मिलकर, सम्मेलन का उद्धार करने में सफल हो सके। १५ मार्च २००२ को उस साहित्य-देवता ने अपने नश्वर देह का त्याग कर दिया। उस दिन दूसरे पहर साहित्यिकों की बड़ी उपस्थिति में बाँसघाट पटना में उनका अग्नि-संस्कार संपन्न हुआ, राजकीय सम्मान के साथ। विद्यार्थी और युवा ‘राम दयाल पाण्डेय अमर रहे’ का जयघोष कर रहे थे। पर सबकी आँखें सजल थीं !