पटना, ९ अगस्त। हिन्दी भाषा और साहित्य के महान उन्नायक आचार्य शिवपूजन सहाय एक साहित्यर्षि और बिहार के साहित्यिक गौरव थे। उनकी सरलता और विद्वता दिव्य थी। वे अपने जीवन-काल में ही साहित्य के जीवित ज्ञान-कोश माने जाते थे। उनकी संपादन-कला अद्भुत थी। उन्हें कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों तथा महाकवि जयशंकर प्रसाद के ग्रंथों के परिशोधन और संपादन का भी गौरव प्राप्त था। वे देश के अग्र-पांक्तेय विद्वान और आचार्य थे। वे बिहार हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे। लगभग ९ वर्षों तक सम्मेलन परिसर में उनका आवास था। उनके प्रभा-मंडल कारण, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, देश भर के साहित्यकारों का तीर्थ-स्थल बन गया।
यह बातें, रविवार को साहित्य सम्मेलन सभागार में, जयंती के अवसर पर आयोजित पुष्पांजलि-समारोह में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि, वर्ष १९४१ में आयोजित सम्मेलन के पटना-अधिवेशन में वे सभापति चुने गए थे। किंतु सम्मेलन-भवन में जब बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का कार्यालय आरंभ हुआ, तो वे उसके संस्थापक-मंत्री के रूप में, आरा से पटना आ गए और सम्मेलन-भवन हीं उनका निवास-स्थान हो गया। शिवजी जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही सरल-सहज और विनम्र साधु-पुरुष भी थे। अधिकतम कार्य स्वयं करते थे। पत्र लिखने से लेकर, लिफ़ाफ पर टिकट साटने और उन्हें डाक-पेटी में डालने तक का कार्य करने में भी संकोच नहीं करते थे। भारत सरकार के’पद्म-भूषण’ सम्मान से विभूषित शिव जी ने अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ कथा-साहित्य में अनेकों ग्रंथ ही नहीं लिखे बल्कि बिहार का साहित्यिक इतिहास और भारत के अनेक महापुरुषों की जीवनियां भी लिखी। देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद की आत्म-कथा का संपादन भी किया। राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक और फिर निदेशक के रूप में ५० से अधिक शोध-ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन किया।
डा सुलभ ने कहा कि हिन्दी साहित्य में उनका अवदान अतुल्य है। सम्मेलन की शोध-पत्रिका ‘साहित्य’ उनके कार्य-काल में राष्ट्रीय-स्तर पर शिखर पर प्रतिष्ठित थी। उसमें छपने के लिए देश भर के साहित्यकार लालायित रहते थे। विश्व के विभिन्न पुस्तकालयों में आज भी ‘साहित्य’के अंक देखने को मिल जाते हैं। वे जितने बड़े गद्यकार थे उतने ही अच्छे कथाकार भी थे। आकृति से लघु किंतु साहित्य से उनका व्यक्तित्व विराट था। वे नए लेखकों को सभी प्रकार से प्रोत्साहित करते थे। वे बिहार के लिए प्रभु के वरदान के समान थे। संपादक के रूप में उनके हाथ में किसी मूर्तिकार की छेनी-हथौड़ी होती थी,जिससे वे अनगढ़ पत्थरों को भी तराश कर जीवंत-मूर्ति बना देते थे। शिवजी ने अपने संपादन और परिशोधन-कौशल से अनेकों साहित्यकारों को उच्च प्रतिष्ठा दिलाई।
इस अवसर पर, आचार्य जी के विद्वान पुत्र प्रो मंगलमूर्ति ने, लखनऊ से फ़ोन इन लाइव द्वारा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की तथा इस आयोजन के लिए सम्मेलन के प्रति साधुभाव प्रकट किया। सम्मेलन की साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी, डा शालिनी पाण्डेय, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, चंदा मिश्र, कवि प्रभात वर्मा, प्रणब कुमार समाजदार, सच्चिदानंद शर्मा, संजीव कर्ण, डा हँसमुख सिंह, निकुंज माधव आदि ने भी पुष्पांजलि अर्पित की ।