पटना, १७ अगस्त। हिन्दी के लोग यदि सक्रिए होते तो वर्षों पूर्व महाकवि जयशंकर प्रसाद की अमर कृति ‘कामायनी‘ को ‘नोबेल पुरस्कार‘ मिला होता। हिन्दी पर हमें जितना गौरव–बोध होना चाहिए, वह हम में नही है। अपनी भाषा, अपने राष्ट्र की भाषा पर हमें अवश्य अभिमान करना चाहिए। स्वतंत्रता–आंदोलन के समय में भी हिन्दी संपूर्ण भारत की संपर्क भाषा रही। जिस भाषा ने हमें स्वतंत्रता दिलाई, उस भाषा का देश के किसी कोने में अनादर नही हो सकता।
यह बातें रविवार की संध्या, देश के सुप्रसिद्ध विद्वान और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित ने कही। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के फ़ेसबुक पटल पर लाइव थे। उन्होंने कहा कि, प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी भाषा के अनेक रूप हैं। बोल–चाल की भाषा के रूप में इसका तेज़ी से विकास हुआ है। संपूर्ण भारत वर्ष में ही नही विदेशों में भी इसका प्रचलन बढा है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। दक्षिण भारत के लोग भी हिन्दी से ख़ूब प्रेम करते हैं। जो प्रचार माध्यमों में विरोध दिखाया जाता है, वह वास्तव में ओछी राजनीत भर है। अब देश का आम आदमी यह समझने लगा है कि, ‘अंग्रेज़ी‘, सच से आम आदमी को दूर रखने का एक षडयंत्र है। जब देश के सारे काम देश की भाषा में होने लगेंगे तो सारा सच जनता के सामने होगा।
उन्होंने कहा कि भारत की न्यायपालिका में अभी तक काम की भाषा अंग्रेज़ी है। भारत में भारतीयों के साथ इससे बड़ा अन्याय क्या हो सकता है? न्याय माँगने वाला पूरी न्यायिक प्रक्रिया में गूँगे–बहरे की तरह चुप–चाप दृश्य देखता रहता है। वह तो यह भी नही समझ पाता कि उसके वक़ील उसके पक्ष में पैरवी कर रहे है कि विपक्ष में।
आरंभ में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित का पटल पर हार्दिक अभिनंदन किया तथा पटल से जुडे सुधी दर्शकों एवं साहित्यकारों के प्रति आभार प्रकट किया।