पटना, ३० अगस्त । “कहीं से धूप का आना ज़रूरी है/ मौक़ा पाकर, मेरी भूत के बहाने / अंधेरे की परछाईं लम्बी पसर गई है/ धीरे-धीरे——“। इसी तरह की कोमल पंक्तियों और वेदना के आँसूँ से भिगोती कविताओं के साथ, वरिष्ठ कवयित्री अनुराधा बनर्जी, रविवार की संध्या बनारस से, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के फ़ेसबुक पटल पर लाइव रहीं। एक दूसरी रचना में उन्होंने बदलते समय का संकेत करते हुए, यह पंक्तियाँ पढ़ीं कि – “वक़्त है, केंचुल उतारने का/ जो नीला पड़ चुका है/ एक पूरी सदी का चोट सहकर—”। उनकी कविताएँ स्त्री-अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध बन कर खड़ी होती हैं और साफ़ शब्दों में कहती हैं कि, “नहीं जाऊँगी! अगर मुझे भेजो वनवास को अकेले/ सिर्फ़ एक आरोप पर / तो चली जाऊँगी क्या? आँचल में चेहरा छुपा कर? नहीं जाऊँगी”।’माँ’ को स्मरण करते हुए उन्होंने इसी शीर्षक से अपनी एक कविता पढ़ी और ‘माँ’ के अन्यतम वलिदान को इस तरह रेखांकित किया कि, “प्यास से व्याकुल और भूख से तड़पते हुए भी / तुम भूल गई माँ/ तुम्हें भी छाँह की ज़रूरत है”।आरंभ में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने सम्मेलन के पटल पर अनुराधा बनर्जी का हार्डिकता के साथ स्वागत किया तथा सैकड़ों की संख्या में पटल से जुड़ कर काव्यानंद ले रहे सुधी दर्शकों के प्रति आभार प्रकट किया।
संजय की रिपोर्ट.