पुण्य स्मृति दिवस (३ सितम्बर) पर विशेष साहित्य सम्मेलन के प्रथम सभापति थे पं जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी डा अनिल सुलभ.खड़ी बोली हिन्दी की प्रथम पीढ़ी के महान कवियों और भाषाविदों में अग्रपांक्तेय साहित्यकार और ‘हास्य रसावतार’ के रूप में सुविख्यात मनीषी विद्वान पं जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र-सभापति थे। १९ अक्टूबर १९१९ को स्थापित किए गए साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन ८-९ नवम्बर, १९१९ को , सोनपुर मेले में आयोजित हुआ था, जिसका सभापति चतुर्वेदी जी चुने गए थे। तब सम्मेलन अध्यक्ष को सभापति ही कहा जाता था। पंडित जी अपनी पीढ़ी में अखंडित भारत के श्रेष्ठ साहित्यकारों में तो गिने ही जाते थे, अत्यंत लालित्यपूर्ण हास्य-रस और व्यंग्य के श्रेष्ठतम साहित्यकार माने जाते थे। काव्य में छंद के प्रति विशेष आग्रह रखने वाले चतुर्वेदी जी गद्य साहित्य में भी रोचकता और लालित्य के पक्षधर और हास्य-व्यंग्य में फूहड़ता तथा व्यक्तिगत आक्षेप के प्रबल विरोधी थे। उनकी विद्वता और भाषा-सौंदर्य अनुपम था। व्याख्यान शैली और संपूर्ण व्यक्तित्व मनोहारी था, जिसने उन्हें साहित्यिक-मंचों का लोकप्रिय व्यक्तित्व बना दिया था। मंचों पर उनके प्रवेश पर ही श्रोताओं की तालियाँ बजने लगती थी। निर्मल और सात्विक हास्य का पूट लिए उनका व्याख्यान अत्यंत विद्वता पूर्ण, विषय पर केंद्रित तथा भाषा-परिष्कार का उदाहरण होता था। उन्हें अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी सभापति होने का गौरव प्राप्त हुआ था। वे १९२२ में लाहौर में संपन्न हुए सम्मेलन के १२ वे अधिवेशन के सभापति चुने गए थे। वे कोलकाता से प्रकाशित हिन्दी पत्र ‘भारत मित्र’ के संपादक तथा दर्जन भर से अधिक मूल्यवान ग्रंथों के रचयिता थे। ‘भारत-मित्र’ में अनेक वर्षों तक उनका स्तम्भ ‘हास्य-विनोद’ का प्रकाशन होता रहा था।
पंडित चतुर्वेदी का जन्म १० अक्टूबर, १८७५ को बिहार के भागलपुर जिले (अब जमुई) के मलयपुर कस्बे में एक निम्न माध्यम वर्गीय विप्र-कुल में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा जमुई नार्मल स्कूल एवं मुंगेर ज़िला स्कूल में हुई। १८९८ में उन्होंने ईश्वर चंद्र विद्या सागर द्वारा स्थापित ‘मेट्रो पोलिटन कौलेज, कोलकाता में एफ ए में नामांकन कराया, किंतु उत्तीर्ण नही हो सके। तथापि १९०४ में उनकी कलकत्ता विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग में ‘थर्ड पण्डित’ के रूप में नियुक्ति हो गई। एक वर्ष के पश्चात उन्होंने स्थानीय व्यापारी मिर्जामल के साथ मिलकर ‘मिर्जामल – जगन्नाथ ऐंड कंपनी आरंभ की और कुल की मर्यादाओं के विपरीत चमड़ा उद्योग में लिप्त हुए।
उन्होंने जीविका का साधन करते हुए, साहित्य की साधना भी आरंभ की। वहीं बाबूलाल मुकुंद गुप्त के साथ मिलकर ‘भारत मित्र’ का प्रकाशन आरंभ किया और संपादक का दायित्व स्वीकार कर हिन्दी भाषा के उन्नयन में प्रवृत्त हुए। यहाँ रहते हुए उन्हें बंगला भाषा का भी वृहद ज्ञान हुआ और वे अनुवाद साहित्य में इसका लाभ उठाने लगे। उन्होंने अनेक बाँगला साहित्य का हिन्दी अनुवाद किया।
वर्ष १९२५ में वे कलकता से वापस मलयपुर लौट आए। १९२७ में जिले के खैरा स्टेट के प्रबंधक नियुक्त हुए। अपने सदव्यवहार और विद्वता से वे गिद्धौर महाराज से भी आत्मीय संबंध बनाने में सफल रहे। उन्होंने खैरा स्टेट और गिद्दौर स्टेट के परिसीमन का कार्य भी सौहार्दपूर्ण ढंग से कराने में सफलता अर्जित की। गिद्धौर महाराज काव्य-रसिक और और विद्वानों का सम्मान करनेवाले सारस्वत व्यक्तित्व थे। कवियों का उनके दरबार में बड़ा स्थान था। इस कारण से भी, महाराज उनका बड़ा ही समादर करते थे। वर्ष १९३३ आते-आते पंडित जी अस्वस्थ रहने लगे और उन्होंने खैरा स्टेट के प्रबंधक के दायित्व से मुक्ति लेकर मलयपुर वापस हो गए।
पंडित जी के काव्य-साहित्य पर स्वाभाविक रूप से ब्रजभाषा का गहरा प्रभाव था। यह वह युग था, जब छंद लिखने के लिए ब्रजभाषा को काव्य-संसार का अविभाज्य अंग माना जाता था। वे इस बात के पक्षधर थे कि हिन्दी काव्य में एक झटके से ‘ब्रजभाषा’ से मुँह मोड़ लेना अनुचित होगा। खड़ी बोली के विकास में जिस प्रकार देश की सभी भाषाओं का सहयोग अपेक्षित है, उसी तरह काव्य में ब्रजभाषा के महत्व को किनारे नही किया जा सकता। यद्यपि धीरे-धीरे छंदों में खड़ी बोली के प्रयोग के लिए उन्होंने स्वयं भी उद्योग किया और इसमें सिद्धि भी प्राप्त की। उनके ‘हास्य-विनोद’ सर्वथा और सर्वदा मन का रंजन तथा सत्य के प्रति अनुप्राणित करने वाले हुआ करते थे। उनके व्यंग्य में मीठी छुरी थी। उससे व्यंग्य के लक्ष्य बने लोग भी कटुता से ग्रस्त नहीं होते थे, अपितु उसका आनंद लेते थे। उनकी व्यंग्य-छुरी कब लक्ष्य के दुर्गुणो को काटकर उसे दोष-मुक्त कर जाती थी, वह किसी को पता भी नही चलता था।
उनकी लिखी पुस्तकों की भाषा शैली में स्थान-स्थान पर हास्यरस-बिंदु सहृदय पाठकों को आप्यायित करते चलते हैं । उनके उपन्यास , निबंध, नाटक आदि भी काव्य का रस प्रदान करते हैं। ‘वसंत-मालती’, ‘संसार-चक्र’, ‘तूफ़ान’, ‘विचित्र विचरण’ ( ‘गुलिवर्स ट्रैवेल्स’ का हिन्दी रूपांतर), ‘गद्यमाला’, ‘मधुर मिलन’, ‘भारत की वर्तमान दशा’, ‘स्वदेशी आंदोलन’ आदि ग्रंथों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले चतुर्वेदी जी जीवन में आडंबर के विरोधी और प्रगतिवादी थे। जीवन-यापन के लिए उन्हें पारंपरिक वृति को तोड़ने में भी परहेज़ नहीं था। इसका ज्वलंत उदाहरण उन्होंने स्वयं ही दिया। विप्र-कुल का होने पर भी उन्होंने चमड़े का व्यवसाय किया। वे मानते थे कि जीवन-यापन के लिए कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। व्यक्ति के विचार छोटे या बड़े होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य निष्ठा पूर्वक करना चाहिए।
अपनी पीढ़ी के साहित्यकारों में भी वे लोकप्रिय और आत्मीय बने रहे। हिन्दी काव्य के अनमोल रत्न अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’ उनके अनन्य मित्र और शुभेच्छु थे। देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद, आचार्य शिवपूजन सहाय, श्याम सुंदर दास, वियोगी हरि, बनारसी दास चतुर्वेदी, साहित्य वाचस्पति श्रीनारायण चतुर्वेदी, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ आदि मनीषी साहित्यकार और विद्वान उनके प्रशंसक थे। हिन्दी के महान विद्वान और आचार्य पं सकल नारायण शर्मा उनके अत्यंत घनिष्ठ मित्र थे। कलकत्ते में वे अनेक वर्षों तक एक मकान में साथ में रहे। दोनों का अधिकांश समय साहित्यिक विमर्श और विशेषकर भाषा-परिष्कार के विषयों पर चर्चा में व्यतीत होते थे। पंडित जी अहर्निश हिन्दी भाषा के संवर्धन में निमग्न रहते थे। हिन्दी के प्रति उनका अनुराग ऐसा था कि, मिलने वाले प्रत्येक हिन्दी प्रेमी से वे यह अवश्य पूछा करते थे कि “आपने अब तक हिन्दी की कौन-कौन सी पुस्तकें पढ़ीं? प्रत्येक वर्ष कितनी नई पुस्तकें ख़रीदते हैं? पत्रिकाएँ कौन-कनु सी मँगाते हैं? पत्र हिन्दी में लिखते हैं? लिफ़ाफ पर पता भी क्या हिन्दी में लिखते हैं?”
प्रत्येक मिलने वाला व्यक्ति उनसे वार्तालाप करते हुए सावधान रहता था। भाषा की कोई भूल वे नज़र-अन्दाज़ नही कर सकते थे। व्याकरण और उच्चारण का कोई भी दोष हुआ कि नहीं, पंडित जी तत्काल टोकते और उसका परिसंस्कार करते थे। भाषा के प्रति वे इतने सजग थे कि वे सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल को भी पकड़ लेते थे। एक समाचार पत्र में एक वाक्य छपा था- “यह समाचार समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ था”। चतुर्वेदी जी का संशोधन था कि इसे इस प्रकार लिखा जाना चाहिए- “समाचारपत्रों में यह समाचार प्रकाशित हुआ था”। चतुर्वेदी जी पर अपने एक आलेख में आचार्य शिवपूजन सहाय ने उनकी भाषा-चेतना पर सविस्तार लिखा है। सहाय जी कहते हैं कि,व्याकरण विषयक अशुद्धियों पर तो वे ध्यान देते ही थे, वाक्यों के भ्रमात्मक रूप पर भी निगाह रखते थे। उनके विचार से ‘हिचकिचाहट’ शब्द के बदले ‘हिचक’लिखना ही उपयुक्त है। अपने युग में चतुर्वेदी जी हिन्दी भाषा के मर्मज्ञ विद्वान माने जाते रहे। भाषा विषयक उनकी विशेषज्ञता ने उस समय के कितने ही धुरन्धर लेखकों को परेशानी में डालकर उनका लोहा मानने के लिए वाध्य किया था। उन दिनों के भाषा संबंधी विवादों में वे बड़ी निर्भिकता से अपने पक्ष पर दृढ़ रहते थे। शुद्धाशुद्ध भाषा की बारिकियाँ परखने में उनकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। इसी परख में उनके जीवन का प्रत्येक क्षण व्यतीत होता था। चाहे वे बाज़ार में रहें या ट्रेन में सफ़र करते हों, हर घड़ी, उठते-बैठते, चलते-फिरते, बोलते-बतियाते, वे व्याकरण-समर्थित शुद्ध भाषा पर ध्यान रखने में सजग रहते थे। बातचीत के प्रसंग में भी उनके सामने कोई अशुद्ध भाषा बोलता था तो वे सुपर्चित व्यक्तियों को तुरंत टोककर सावधान कर देते थे। किंतु दूसरों को भी किसी अन्य व्याज से ही सही, पर शुद्ध रूप का ज्ञान करा देते थे। पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते समय दुष्प्रयोगों पर निशान करते चलते थे। नाटक देखते समय अभिनेताओं के कथोपकथन पर ही उनका विशेष ध्यान रहता था। सभा-सम्मेलनों के भाषणों में भी उनके कान चौकन्ने रहते थे।”
हरिऔध जी उनके हिन्दी प्रेम पर मुग्ध रहा करते थे। एक स्थान पर उन्होंने लिखा कि ” हिन्दी साहित्य सम्मेलन का शायद ही कोई वार्षिक उत्सव होगा, जिसमें वे उपस्थित न रहे हों। वे बहुत बड़ा व्यय स्वीकार करके बहुत दूर के स्थानों में पहुँचते थे और अपने वाक् चातुर्य से उसमें जीवन डाल देते थे। वे मूर्तिमान ‘उत्फ़ुल्लता’ थे और सहृदयता उनमे कूट-कूट कर भरी थी। वे रोतों को भी हँसाते थे और निर्जीव जीवन में भी संजीवन का संचार करते थे। उनका व्यंग्य कितनों को सत्पथ पर लाता था और उनकी हँसी अपने विपक्षियों को भी अपनापन का मंत्र पढ़ाती थी मेरे वे बंधु ही नहीं आत्मीय से बढ़कर थे।ऐसा ज़िंदादिल मित्र मुझको अपने जीवन में दूसरा नहीं मिला।”
खैरा स्टेट में जो उनका स्वास्थ्य प्रभावित हुआ, वह फिर नही सुधरा। साहित्य और लेखन जीवन का पर्याय बन चुका था, वह छूटता न था। ३ सितम्बर १९३९ को प्राण लेकर ही वह छूटा। इस प्रकार हिन्दी के एक महानतम सेवी की अखंडित साधना से हिन्दी संसार वंचित हो गया। ६४ वर्ष की अपनी आयु में पंडित जी ने जो कृति छोड़ी वह हिन्दी साहित्य की धरोहर और अमर कीर्ति-शेष है। उनके ८१वें पुण्य समरन दिवस पर श्रद्धा-तर्पण देते हुए अपने दोनों नेत्रों को तरल पाता हूँ। किंतु इस एक बात का परितोष अवश्य है कि उनके पौत्र श्री विनय वल्लभ चतुर्वेदी उनकी स्मृति को जीवंत बनाए रखने की चेष्टा कर रहे हैं। वहीं उनके बुआ के प्रपौत्र पं सुरेश नीरव उनकी साहित्यिक चेतना को आगे बढा रहे हैं। इस प्रकार उनका साहित्यिक संस्कार आने वाली पीढ़ियों में जीवित है।