जयंती ( ११ सितम्बर ) पर विशेष काव्य-साहित्य के अनमोल रत्न थे महाकवि केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात.हिन्दी काव्य-साहित्य को नया आभा-मण्डल प्रदान करनेवाले महाकवि केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ हिन्दी-साहित्य के दुर्लभ और अनमोल रत्न थे। पुलिस सेवा के कठोर और रसहीन जीवन-शैली वृति के रूप में स्वीकार करके भी उन्होंने अपने मधुर गीतों से रस की पावन गंगा बहाई और अपने उपनाम के सदृश ही आधुनिक हिन्दी के काव्य-क्षितिज पर नूतन प्रभात बन कर छा गए। उन्होंने छायावाद के दीवारों में ऐसे वातायन खोले जिनसे काव्य-संसार में सुगंध और ताज़गी भरी नवल प्राण-वायु का संचार हुआ। वे छायावाद और प्रगतिवाद के बीच एक देवोपम सेतु थे, जिनके सरल किंतु प्रांजल वाणी में संसार ने हृदय-हरने वाली काव्य-सुंदरी का दर्शन किया। भले ही विद्वान समालोचकों ने उनपर समग्र दृष्टि न डाली हो, पर सुधी पाठकों ने उन्हें सदा ही हृदय में बिठाकर रखा। हिन्दी काव्य-साहित्य का इतिहास लिखनेवाले महात्मा विद्वानों से भले कोई चूक हो गई हो, किंतु मराठी और हिन्दी के बहुपठित उपन्यासकार श्री शिवाजी सावंत ने, जिसके उपन्यासों, ‘मृत्युंजय’ और ‘युगंधर’ ने बिक्री का कीर्तिमान स्थापित कर रखे हैं, ‘प्रभात’ के प्रबंध-काव्य ‘कर्ण’ को हिन्दी काव्य का ‘एक मात्र अनमोल गहना’ कहा था। श्री सावंत की माने तो उन्होंने ‘कर्ण’ को एक -दो बार नहीं सैकड़ों बार पढ़ा और एक-एक पंक्ति पर मोहित होते रहे। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी और बंगला भाषाओं का विशद ज्ञान रखनेवाले प्रभात जी ने हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में मूल्यवान कृतियाँ दी तथा हिन्दी को सर्वतोभावेन समृद्ध किया। पुलिस-सेवा और साहित्य-साधना दोनों ही उनके जीवन-नद के दो समानांतर किनारे रहे और उनमे अद्भुत सामंजस्य भी रहा । उन्हें मूल्यवान पुलिस सेवा के लिए राष्ट्रपति-पदक प्राप्त हुआ तो अनेक साहित्यिक अलंकरण और मानद उपाधियाँ भी मिली। दिनकर जी ने उनकी साहित्यिक-सेवाओं के प्रति श्रद्धानत होकर ठीक ही कहा था कि, “प्रभात जी ने भारतीय पुलिस की नीरस और कठोर सेवा-भूमि में रहते हुए भी इतने सरस और श्रेष्ठ काव्य का सृजन किया, यह अद्भुत और श्लाघ्य है। यदि मैं ऐसी परिस्थिति में रहता तो निश्चय ही वह न लिख पाता, जो मैंने लिखा है।”
‘कलेजे के टुकड़े’ (१९२९), ‘ज्वाला’ (१९२९), श्वेतनील (१९३६), कलापिनी (१९३९), कंपन (१९४२), सँवर्त्त (१९४४), काल-दहन ( १९४८), ‘स्वर्णोदय’ (१९५१), ‘चिरस्पर्श’ (१९५१), ‘बैठो मेरे पास’ (१९६०), ‘समुद्यत राष्ट्र’ (१९६४), ‘सेतुबंध’ (१९६७), ‘शुभ्रा’ (१९६७), ‘त्रसरेणु’ (१९७३), ‘पलाश-पुट’ ( सभी काव्य-संग्रह), ‘कैकेयी’ (१९५०),’ऋतंवरा’ (१९५७), (दोनों महाकाव्य) ‘कर्ण’ (१९५१), ‘तप्तगृह’ ( १९५४), ‘राष्ट्रपुरुष’ (१९६८), ‘प्रवीर’ (१९७०), ‘व्रतबद्ध’ (१९७१), ‘मुक्ति-संग्राम’ (१९७२), ‘अस्थि-दान’ (१९७५), ‘सर्गांत’ (१९७५) तथा १९७६ में प्रकाशित ‘प्रभास कृष्ण’ ( सभी प्रबंध/ खण्ड-काव्य), ‘समुद्र के मोती’, ‘मनोरंजक कहानियाँ’, ‘आश्चर्य जनक कहानियाँ’, ‘मूर्खों की कहानियाँ’, (सभी बाल गद्य साहित्य), ‘सत्यं शिवं सुंदरं (पत्र-साहित्य), ‘पहिए की धुरी’ (विचारोत्तेजक साहित्यिक निबंध) आदि अमूल्य ग्रंथों से हिन्दी साहित्य के विशाल भंडार को भरने वाले प्रभात जी का व्यक्तित्व अहंशून्य एक तपस्वी साधक का था। पुलिस-सेवा ( उपाधीक्षक ) की कोई ठसक उनमे नहीं थी। उनके व्यक्तित्व पर उनकी लौकिक वृति का नहीं, बल्कि निज प्रवृति (कवि) का ही प्रभाव रहा, जो काव्य का मंजुल रस और साहित्य की साधना-सिद्धि से उत्प्रेरित था। उन्होंने प्रांजल आंग्ल भाषा में भी, ‘सनबीम्स’ (अंग्रेज़ी में कविताएँ) और ‘परसनालिटीज इन हिन्दी लिट्रेचर’ ( हिन्दी की मनीषी विभूतियों पर अंग्रेज़ी में आलेख) जैसे मूल्यवान ग्रंथ लिखे।
प्रभात जी का जन्म ११ सितम्बर १९०७ को, भोजपुर (आरा) जिले के गोपालीकुँआ ग्राम में एक निम्न मध्यम वर्गीय विप्र-कुल में हुआ था। पिता पं अंबिका प्रसाद मिश्र निबंधन कार्यालय, बक्सर में लिपिक थे। दुर्भाग्य से शिशु केदार के सिर से माँ की ममता का आँचल सदा के लिए शीघ्र हीं उठ गया। जब वे तीन वर्ष के थे तभी माताश्री पुण्यमती रामकुमारी देवी ने संसार छोड़ दिया। शिशु केदार के लिए यह एक ऐसा आघात था, जिससे वे कभी उबर नही पाए। रही-सही कसर विमाता ने पूरी कर दी। जैसा कि लोक-जीवन में प्रचलित धारणा है, विमाताएँ सर्वदा ही (अपवाद को छोड़कर) कष्ट प्रदान करती हैं। शिशु केदार इसके अपवाद नहीं हो सके। माता के स्नेह का अभाव और विमाता की उपेक्षा ने उनकी आँखों से आँसू कभी सूखने नहीं दिया। दुःख के इन्हीं दारुण क्षणों ने बाल केदार की तरल अंतर्भूमि में कविता के कोमल बीज बपन कर दिए। किशोर केदार की लेखनी मार्मिक गीत गढ़ने लगी। व्यथित हृदय को साहित्य का आश्रय मिला। उस साहित्य का जो पीड़ित हृदय को स्नेह-लेप से आराम देता है और जो आँखों में भर आए वेदना के आँसू पोंछता है। प्रभात जी की चेतना ‘वाणी’ की आराधना और वेदना को काव्य की दिशा देने लगी।
युवा प्रभात ने प्रथमबार साहित्य-समाज का ध्यान अपनी ओर तब खींचा,जब उन्होंने वर्ष १९२७ में, राजस्थान के भरतपुर में आयोजित ‘अखिल भारतीय वसंत काव्य-प्रतियोगिता’ में प्रथम स्थान प्राप्त किया। तब उनकी उम्र २० वर्ष की हो रही थी। जब वे स्नातक के छात्र थे, तभी उनकी प्रथम पुस्तक ‘कलेजे के टुकड़े’ (मुक्तक-संग्रह) तथा ‘ज्वाला’ ( देश-भक्ति और क्रांति का आह्वान करने वाली कविताओं का संग्रह) प्रकाशित हो चुकी थी। इन दोनों पुस्तकों का प्रकाशन वर्ष १९२९ में हुआ था, जिस वर्ष उन्होंने स्नातक की शिक्षा पूरी की थी। किंतु, ‘ज्वाला’ की सारी प्रतियाँ प्रेस में ही नष्ट कर दी गईं, क्योंकि प्रकाशक को भय हो गया था कि इस पुस्तक पर किसी भी समय अंग्रेज़ी सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया जा सकता है और प्रेस पर दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है। कविताएँ सरकार विरोधी और क्रांति (बदअमनी ) फैलानेवाली मानी गई थी।
प्रभात जी की प्रारंभिक शिक्षा, बक्सर में संपन्न हुई, जहाँ पिता कार्यरत थे। मैट्रिक की परीक्षा, १९२४ में उत्तीर्ण की। तबतक पिताश्री का स्थानांतरण पटना हो गया था। वे स्थानीय निबंधन कार्यालय में मुख्य लिपिक हो गए थे। अस्तु प्रभात जी आगे की शिक्षा के लिए पटना आ गए तथा बी एन कालेज, पटना में अपना नामांकन कराया। अंग्रेज़ी साहित्य से उन्होंने इसी महाविद्यालय के छात्र के रूप में, पटना विश्वविद्यालय से, वर्ष १९२९ में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
आर्थिक सुरक्षा शीघ्र प्राप्त हो जाए, इसलिए आजीविका के लिए उद्यम आरंभ किया तो अगले ही वर्ष (१९३०) में पुलिस अधिकारी नियुक्त हो गए। यद्यपि कि, पुलिस की रस-हीन और सुष्क सेवा की लाठी, उनके कोमल हृदय पर निरंतर आघात करती रही, पर उन्होंने अपने हृदय को काव्य-रस से कभी रिक्त नहीं होने दिया। उन्होंने लगभग ३७ वर्षों तक पुलिस-सेवा की। पुलिस-उपाधीक्षक (जन-संपर्क) के पद से वर्ष १९६७ में सेवा निवृत हुए। किंतु वाणी की पूजा-अभ्यर्थना और कविता-सुंदरी की अर्चना समानांतर जारी रखी। उनकी साहित्यिक तपस्या, अन्य साहित्यिक महापुरुषों से सर्वथा भिन्न और कठिन कही जा सकती है, क्योंकि उनकी साधना, धारा और परिस्थिति के विपरीत थी। इसलिए अधिक कठिन और श्रम-साध्य थी।
इसी बीच स्वतंत्र छात्र के रूप में उन्होंने वर्ष १९३७ में पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि भी प्राप्त की। इसी वर्ष ब्रजमण्डल विश्वविद्यालय, मथुरा ने उन्हें ‘साहित्याचार्य’ की उपाधि प्रदान की। इसके पूर्व वर्ष १९२८ में, जब वे मात्र २१ वर्ष के थे, साहित्य समिति, अयोध्या द्वारा उन्हें ‘कविरत्न’ की मानद उपाधि दी जा चुकी थी। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें अपनी स्थापना के अर्धशती वर्ष पर, वर्ष १९७० में आयोजित ‘स्वर्ण जयंती समारोह में, उनकी बहुमूल्य साहित्य-सेवा के लिए सम्मानित किया। राजभाषा विभाग, बिहार सरकार द्वारा दीर्घक़ालीन हिन्दी-सेवा के लिए वर्ष १९७९ में तथा उच्च शिक्षा विभाग (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद), बिहार सरकार द्वारा १९८१ में, उन्हें ‘वयोवृद्ध हिन्दी साहित्यकार सम्मान’ से विभूषित किया गया। इनके अतिरिक्त अनेक साहित्यिक संस्थाओं से उन्हें मानद उपाधियां और अलंकरण प्राप्त हुए। उनकी कृतियाँ ‘ऋतंवरा’, (बिहार सरकार तथा उत्तर प्रदेश सरकार), ‘बैठो मेरे पास’, (उत्तर प्रदेश सरकार), ‘सेतुबंध’, (मध्य प्रदेश शासन एवं उत्तर प्रदेश शासन) तथा ‘सर्गांत’, हरियाणा सरकार तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा) पुरस्कृत हुईं।
उनका प्रथम महाकाव्य ‘कैकेयी’ ने ही विद्वान समालोचकों को अपनी ओर तीव्रता से खींचा था, जिसमें कवि की विशाल दृष्टि और महान कवित्त-शक्ति अपनी पूरी प्रभा के साथ प्रस्फुटित हुई थी। अपनी अपरिमित कल्पना शक्ति और सर्जनात्मक प्रतिभा से उन्होंने ‘रामायण’ की खल-पात्रा कैकेयी को, राष्ट्रहित में, लांछन और वैधव्य स्वीकार करने वाली महान राष्ट्र-नायिका और राष्ट्र-माता के रूप में प्रतिष्ठित किया था। उन्होंने अपनी अद्भुत कवित्त-शक्ति से कैकेयी पर आरोपित सभी लांछनों का प्रक्षालन ही नहीं किया, अपितु उसे एक सच्ची ‘राष्ट्र-जननी’के अलंकरण से महिमा-मंडित भी किया। उनके अनुसार कैकेयी ने मानवता की रक्षा के लिए ही राक्षसों के संहार के निमित्त, ‘राम के वनवास’ की स्थिति उत्पन्न की और वैधव्य जीवन तथा सभी लांछन स्वीकार किए। कवि के अनुसार;- “वैधव्य मुझे स्वीकार, राष्ट्र की जय हो! दानव अट्टाहास करता है, जहाँ चित्त मानव का जलता है/ दानवता जय-पर्व मनाती, मानवता घुल घुल रोती है”।
कैकेयी सेवा और स्नेह को, राज-सत्ता से बड़ा मानती है। तभी तो कहती है;-
“शासन प्रभुत्व का लौह-दण्ड , सेवा स्नेह की बाती है।
शासन प्रभुत्व का गुरु गौरव, सेवा समता फैलाती है।”
‘ऋतंवरा’ कवि की एक और मनो-वैज्ञानिक महाकाव्य है, जिसमें मानवता अपने उच्च आदर्श पर प्रतिष्ठित होती है। प्रभात जी ने महाकवि जय शंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ की कथा-वस्तु और पात्रों को लेकर एक नयी चिंतन धारा को अभिव्यंजित किया है। मनु और शतरूपा (श्रद्धा) के मिलन से सृष्टि का क्रम कैसे पुनः गति पाता है, इसी शाश्वत सत्य का सजीव चित्रण, इस महाकाव्य का प्रतिपाद्य उद्देश्य है। कवि कहता है;-
“मनु ने दीप जलाया जो, वह बुझा नहीं, जलता है।
मर्त्य-लोक वह, मृत्यु खड़ी है, पर मानव चलता है।”
कवि का साहित्यिक वितान इतना व्यापक है कि किसी एक छोटे से निबंध में सभी बिंदुओं का स्पर्श भी संभव नही है। यह मान लेना ही पर्याप्त होगा कि प्रभात जी ने अपना संपूर्ण जीवन, माँ भारती की सेवा में, यज्ञ की समिधा की भाँति, उत्सर्गित कर दिया। इस सत्य के साथ यह भी एक कटु-सत्य है कि, उन्हें वह मूल्य नहीं मिल पाया, जिसके वे सर्वथा अधिकारी थे। २ अप्रैल १९८४ को प्रभात जी के जीवन की संध्या वेला आ गई और उन्होंने पटना चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल के ‘गहन चिकित्सा कक्ष’ में अपने पार्थिव देह का त्याग कर ‘कर्ण’ की भाँति अपने पिता ( परम पिता) के पास चले गए। किंतु यह परितोष की बात है कि उनकी अगली पीढ़ी, उनके दुर्लभ होते जा रहे साहित्य को संग्रहित कर उनके पुनर्प्रकाशन के लिए कटिबद्ध है। उनकी विदुषी पुत्री श्रीमती रागिनी भारद्वाज और पुत्र-वधु डा नम्रता कुमारी इस दिशा में सन्नद्ध और सक्रिय हैं। उनके ही प्रयास से महाकवि के समग्र के प्रकाशन पर कार्य आरंभ हुआ है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने ‘प्रभात समग्र’ के प्रथम खंड का प्रकाशन किया है। शेष के लिए उद्यम जारी है। रागिनी जी के आर्थिक सहयोग से विगत वर्ष २०१८ से ‘प्रभात स्मृति सम्मान’ भी आरंभ हुआ है, जो उनकी जयंती पर, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा किसी एक प्रतिभाशाली नवोदित साहित्यसेवी को दिया जाता है। सम्मान स्वरूप पाँच हज़ार एक सौ रूपए की नगद राशि सहित प्रशस्ति-पत्र और वंदन-वस्त्र प्रदान किए जाते हैं।