स्मृति-दिवस (२० अक्तूबर) पर विशेष ब्रजनंदन सहाय ‘ब्रजवल्लभ’: जिन्होंने आधुनिक हिन्दी को प्रथम मौलिक उपन्यास दिया.आधुनिक हिन्दी को प्रथम मौलिक उपन्यास (सौंदर्योपासक) प्रदान करने वाले महान हिन्दी-सेवी श्री ब्रजनंदन सहाय ‘ब्रजवल्लभ’, एक ऐसे मनीषी साहित्यकार थे, जो अपनी कठोर साधना के कारण बीसवीं सदी के साहित्याकाश में उषाकाल के सूर्य की भाँति प्रणम्य माने जाने हैं। वे अपने युग में साहित्यिक प्रतिभा के सर्वाधिक प्रज्ज्वल-प्रखर दृष्टांत थे। खड़ीबोली के प्रथम मौलिक उपन्यास ‘सौंदर्योपासक’ सहित ढाई दर्जन से अधिक मूल्यवान ग्रंथों के रचयिता ब्रजवल्लभ जी ने अपनी काव्य-कल्पनाओं और शिल्प से हिन्दी गद्य को काव्य का अमृत रस प्रदान किया। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति, नागरी प्रचारिणी सभा, आरा के महामंत्री तथा नागरी हितैषी पत्रिका के संपादक भी रहे। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने अपने प्रथम वार्षिकोत्सव ( वर्ष १९५०) में उनका भव्य सम्मान किया था। हिन्दी,अंग्रेज़ी, फ़ारसी और बंगला भाषा पर उनका गहरा अधिकार था। उन्होंने अनेक बंगला साहित्य का हिन्दी अनुवाद कर, अनुवाद-साहित्य में भी मूल्यवान अवदान दिया। उन्हें मैथिल-कोकिल विद्यापति को हिन्दी काव्य-साहित्य में प्रतिष्ठित करने का भी प्रथम श्रेय जाता है। वे हिन्दी-साहित्य के एक ऐसे वट-वृक्ष थे, जिसकी प्राण-वायु प्रदान करने वाली शीतल छाया में साहित्य के अनेक मूल्यवान अध्याय लिखे गए। उनसे खडीबोली समृद्ध और धन्य हुई।
‘मैथिल कोकिल विद्यापति’ ( समालोचनात्मक जीवनी), ‘सौंदर्योपासक’, ‘विस्मृत सम्राट’, ‘लालचीन’, ‘विश्व दर्शन’, ‘राजेंद्र मालती’, ‘अद्भुत प्रायश्चित’, ‘राधाकांत’, ‘अरण्यबाला’ (सभी उपन्यास), ‘सप्तम प्रतिमा’, ‘उद्धव नाटक’, ‘उषाँगिनी’, ‘वरदान’, ‘कलंक-मार्जन’, ‘निर्जन द्वीपवासी का विलाप’ (सभी नाटक), ब्रज-विनोद’, ‘हनुमान लहरी’, ‘सत्यभामा-मंगल’, ( सभी काव्य), ‘बंकिमचंद्र’, ‘पं बलदेव मिश्र’, ‘राधाकृष्ण दास’ (सभी जीवनी), ‘चंद्रशेखर’, ‘रजनी’, ‘बूढ़ा वर’, ‘कमलाकांत का इज़हार’ (सभी बंगला से अनुवाद ) तथा ‘शिक्षा-विलास’ (छात्रोपयोगी ग्रंथ) सहित ढ़ाई दर्जन अति मूल्यवान ग्रंथों से आधुनिक हिन्दी को समृद्ध करनेवाले ब्रजवल्लभ जी का जन्म सन १८७४ (विक्रम साँवत १९३२, आश्विन शुक्ल विजयादशमी) में, पुराने शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के अख़्तियारपुर ग्राम में, विद्या-वैभव से परिपूर्ण एक अत्यंत सारस्वत कुल में हुआ था। उनके पिता पुण्यश्लोक शिवनंदन सहाय दिव्य-प्रभा से आलोकित अपने समय के अत्यंत प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। कहा जा सकता है कि उनमें साहित्य का संस्कार पैतृक था। उन्होंने अपने पिता के साहित्यिक गौरव में सर्वतोभावेन वृद्धि की।
ब्रजवल्लभ जी बाल्यावस्था से ही अपनी मेधा तथा विद्या के प्रति अपने अनुराग का परिचय देना आरंभ कर दिया था। उन्होंने गया जिला स्कूल से प्रवेशिका की शिक्षा ग्रहण की तथा बी एन कालेज, पटना से स्नातक हुए। तदंतर उन्होंने विधि-स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा आरा न्यायालय में वकालत करने लगे। क़ानूनी-दांव-पेंच वाले पेशे में लिप्त रहकर भी वे निर्लिप्त-भाव से भी ऊपर उठकर महाभाव से हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा की तथा अपने साहित्यिक पिता का नाम उज्ज्वल किया। लगभग ४२ वर्षों तक वकालत की, किंतु जीवन-पर्यंत हिंदी की सेवा करते रहे। तभी तो बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने अपनी स्थापना के प्रथम वार्षिकोत्सव पर ही उन्हें, उनकी महनीय साहित्यिक सेवाओं के लिए, वर्ष १९५० में, डेढ़ हज़ार रूपए की पुरस्कार राशि वाले ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान’ से विभूषित किया। नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें अपने शीर्ष-अलंकरण ‘विद्या वाचस्पति’ से अलंकृत किया था।
मैथिली की महान विभूति ‘मैथिल-कोकिल’ विद्यापति को हिन्दी के महान पूर्ववर्ती कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी ब्रजवल्लभ जी को ही जाता है। ब्रज वल्लभ जी ने विद्यापति को ‘मैथिली के कवि’ के संकीर्ण कक्ष से बाहर निकाल कर हिंदी के विराट भवन में प्रतिष्ठित किया। ‘मैथिल-कोकिल विद्यापति’ नामक अपने ग्रंथ में उन्होंने यह सिद्ध किया कि विद्यापति हिन्दी के भक्ति-कालीन काव्य-धारा के उत्स हैं। कृष्णभक्ति काव्य का आरंभिक-स्रोत भी विद्यापति के काव्य से ही प्रस्फुटित होता है, इसका भी तथ्यगत प्रतिपादन उन्होंने किया। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के १४वें अधिवेशन, जो बेगूसराय में सपन्न हुआ था, का सभापतित्व करते हुए, उन्होंने इस विषय को भी विनम्रतापूर्वक उठाया था और साहित्य सम्मेलन से यह अनुरोध किया था कि, वह मैथिल भाइयों से यह कहे कि वे भ्रम त्याग कर हिन्दी के साथ ‘हाथ से हाथ’ और ‘कंधे से कंधा’ मिलाकर राष्ट्रभाषा हिंदी की साधना और सेवा में संलग्न हों। वे नागरी का अंचल छोड़ अनारी बन, अलग न हों।
भाषा को लेकर हो रहे विवादों से वे मर्माहत और चिंतित रहा करते थे। वे भाषाई संकीर्णता से ऊपर उठकर, देश में हिन्दी की प्रतिष्ठा-वृद्धि पर बल देते थे। उनका यह मानना था कि देश की सभी भाषाओं का उचित आदर होना चाहिए। अपने ही देश की भाषाओं के प्रति घृणा और द्वेष का भाव अत्यंत दुखद और घातक है। उर्दू के संबंध में भी उनकी राय अत्यंत मृदु थी। साहित्य सम्मेलन के उसी अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए उन्होंने बडी विनम्रता से कहा कि “हिन्दी साहित्य-प्रेमी उर्दू के कवि-कोविदों को कभी घृणा की दृष्टि से नहीं देखते, वरन उनका पूरा आदर करते हैं, उनकी कविताओं का उपयोग करते हैं। और यह आज से नहीं, आदि से ही है। भाषा के संबंध में पारस्परिक द्वेष और मनो-मालिन्य को धो डालने का प्रयत्न होना नितांत वांछनीय है।
सहाय जी के मन में साहित्यिकों के प्रति अपार श्रद्धा रहती थी वे साहित्य-सेवियों को ‘देश-सेवक’ कहलाने का अधिकारी मानते थे। उनका कहना था कि माता सरस्वती का पवित्र नाम जिह्वा पर आते ही मनुष्य धन्य हो जाता है। उसकी सब वासनाएँ मिट जाती हैं। सभी चिंताएँ दूर हो जाती हैं। पर्ण-कुटीर में भी उसे स्वर्ग का सुख प्राप्त होने लगता है।
सहाय जी की साहित्यिक प्रतिभा बहुमुखी थी। उन्होंने उपन्यास, नाटक, जीवनी, अनुवाद और काव्य-साहित्य को भी समृद्ध किया। उन्होंने वर्ष १९०९ में, दीनबंधु मित्र के ‘प्रिय पागल’ नामक बंगला नाटक (प्रहसन) का हिन्दी अनुवाद किया, जिसका प्रकाशन ‘बूढ़ा वर’ नाम से किया गया था। इस प्रहसन की खूब चर्चा ही नहीं प्रस्तुतियाँ भी खूब हुईं। इसी तरह उन्होंने बंकिमचंद्र चटोपाध्याय के बंगला नाटक ‘कमलाकांतेर जुवान बंदी’ का हिन्दी अनुवाद ‘कमलाकांत का इज़हार’ नाम से किया, जिसकी भूरी भूरी प्रशंसा हुई और नाट्य-कलाकारों ने उसका हृदय से स्वागत किया। किंतु उन्हें जो प्रसिद्धि प्राप्त हुई, उसका श्रेय उनके प्रथम उपन्यास ‘सौंदर्योपासक’ को जाता है, जिसे खड़ी बोली का प्रथम मौलिक उपन्यास माना जाता है। इस पुस्तक की हिन्दी जगत में व्यापक चर्चा हुई तथा इसका गुजराती और मराठी में अनुवाद भी हुआ।
उनकी काव्य-प्रतिभा पर भी हिन्दी-संसार मोहित रहा। ‘सत्यभामा-मंगल’, ‘हनुमान लहरी’ और ‘ब्रज विनोद’ इसके उदाहरण है। इनके एक गीति-नाट्य ‘वरदान’ भी अत्यंत लोकप्रिय हुआ। राम-कथा के आधार पर लिखा गया ९६ पृष्ठों का यह रुपक समाज में गहरा उद्रेक उत्पन्न करने में सफल हुआ। इस कथा में, लोक-मनोविज्ञान को गहराई से समझने वाले इस रचनाकार ने सामाजिक समस्याओं को गंभीरता से उठाया है। वे महाराज कैकय के संवाद के माध्यम से समाज की गहरी पीड़ा का पड़ताल करते हैं। कैकय कहते हैं- “कन्या का विवाह बड़ा कष्ट-साध्य है। योग्य घर, वर, कुल का मिलना संभव नहीं। दुहिता के भविष्य की चिंता सदा सताती रहती है।
कथा का अंत वे इस उपदेशात्मक छंद से करते हैं (दशरथ के मंत्री सुमन्त के मुख से) कि;-
“सब कर्मों का सार मूल हो, विश्व-प्रेममय नीति
सेवा भाव निरत सज्जन हों, दुर्जन विगत अनीति
राम-राज-वासी जन जग के, हो न ताप-त्रय भीत
ईश-प्रेम सरिता तट गूंजे, भ्रमर शांति संगीत ।”
जीवन को गुणवत्तापूर्ण, मूल्यवान और कल्याणकारी बनाने का यह महान उपदेश देकर, २० सितम्बर, १९५६ को, ८२ वर्ष की आयु में, इस महान साहित्यर्षि ने अपना लौकिक देह छोड़ दिया। उनके पुण्य स्मृति-दिवस पर उनके प्रति श्रद्धा-तर्पण देते हुए, दोनों नेत्र स्वतः सजल होते हैं।