अंगिका’ के दधीचि थे अंग-कोकिल डा परमानंद पाण्डेय. जयंती (१९ दिसम्बर,२०२०) पर विशेष.अंग-कोकिल डा परमानंद पाण्डेय बिहार की एक ऐसी साहित्यिक विभूति थे, जिनके नाम के स्मरण मात्र से मन को, किसी तपस्वी-महात्मा के सान्निध्य की पावन अनुभूति होती है। विद्वता, वाणी, रूप, रंग, गुण और व्यवहार में देवोपम व्यक्तित्व रखने वाले अत्यंत विलक्षण साहित्यिक प्रतिभा के मनीषी विद्वान थे पाण्डेय जी। अंग-प्रदेश की बोली को ‘अंगिका’ भाषा का रूप देने में किसी एक व्यक्ति का नाम लिया जा सकता है तो वे थे परमानंद पाण्डेय। इस रूप में वे अंगिका के जनक भी कहे जा सकते हैं। उन्होंने अंगिका में न केवल विपुल साहित्य लिखे, अपितु उसका व्याकरण और कोश भी लिखा। वे अपने समय के श्रेष्ठतम भाषा-वैज्ञानिक थे। हिन्दी के महान कवियों में परिगणित होने वाले पाण्डेय जी ने जिस तपस्वी भाव से अंगिका की सेवा की, वह दधीचि-तुल्य मानी जाती है। वे सत्य हीं अंगिका के जनक और ‘पाणिनि’ थे। प्रथम अंगिका व्याकरण’, ‘परमा अंगिका रामायण’, ‘अंगिका वर्तनी’, ‘अंगिका ध्वनि-ग्राम’, ‘अंगिका शब्दकोश’, ‘अंगिकांजलि’, ‘सात फूल’ (अंगिका की प्रथम कृति), ‘पछिया बयार’, ‘कचनार’ (अंगिका में प्रथम ग़ज़ल-संग्रह), ‘सती बिहुला’ (अंग-प्रदेश की अत्यंत प्राचीन और लोकप्रिय कथा-नायिका पर महाकाव्य, जिसपर अंगिका की पहली फ़िल्म बनी, उसका पटकथा-लेखन भी), ‘नारद-मोह’ (अंगिका का प्रथम नाटक), ‘भोरक भूलैल’ (अंगिका उपन्यास) आदि अंगिका ग्रंथों एवं ‘मधुर-मधुर पीर रे’ (हिन्दी गीत संग्रह), ‘लीला रस तरंगिणी ‘ (काव्य), ‘मृत्यु से’ (काव्य), ‘हाथी के दांत’, ‘ज्वार भाटा’ (कथा-संग्रह) समेत आकाशवाणी के, विविध भारती के अत्यंत लोकप्रिय कार्यक्रम ‘हवा महल’ के लिए अनेक रेडियो नाटकों तथा ‘मानस-मंथन’, ‘हिन्दी और अंगिका का अंतर्सम्बन्ध’, ‘अंगिका और भोजपुरी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ जैसे साहित्यालोचन के महनीय ग्रंथों से अंगिका और हिन्दी का भंडार भरने वाले,पाण्डेय जी का जन्म बिहार के भागलपुर ज़िला अंतर्गत बौंसी के निकट पुराण-प्रसिद्ध मन्दार पर्वत के उत्तर, तत्कालीन पुरैनी (अब जगदीशपुर) के भरोखर स्टेट में, १९ दिसम्बर १९११ को, एक अत्यंत सारस्वत कुल में हुआ था। उनके पुरखे भी बड़े यशस्वी और मनीषी थे। उनके प्रपितामह सम्राट सूर्य मौल, सुप्रसिद्ध सम्राट मायाराम के वंशज थे। उनके पितामह कीर्तिशेष राजा दामोदर पाण्डेय ‘फ़ारसी रामायण’ एवं अनेक तंत्र-शास्त्रों के रचनाकार और सुविख्यात दानी थे। पितामही महारानी मैना देवी भी विदुषी रचनाकार थीं। उन्होंने ‘माया दर्शनम’ और ‘मंदार चरितम’ जैसे ग्रंथों का प्रणयन किया था। पिताश्री महर्षि चुनचुन पाण्डेय ‘ढाका अनुशीलन समिति’ के संस्थापक तथा महान क्रांतिकारी थे। माता सीता देवी भी, अपने पति के पद-चिन्हों पर चली अमर सवतंत्रता-सेनानी थी। बंगाल के सुविख्यात क्रांतिकारी सिने-अभिनेता और गायक काली किंकर उनके मामा थे।
पाण्डेय जी का मूल नाम ‘सहदेव’ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्व-गृह में हीं आमंत्रित विद्वान आचार्यों के द्वारा संपन्न हुई। साहित्य, संस्कृत, संगीत और कला के आचार्यगण क्रमशः आते और बाल सहदेव को ज्ञान-दान करते थे। आगे चलकर उन्होंने टी एन जे (अब टी एन बी) महाविद्यालय से स्नातक और फिर हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। वे भाषा विज्ञान में, भागलपुर विश्वविद्यालय से डी लिट करने वाले प्रथम छात्र थे।
पाण्डेय जी जितने सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे, उतना ही स्नेहिल उनका व्यवहार भी था। भाषा में इतना माधुर्य कि कोई सहज में ही अपना हो जाए। मर्यादित व्यंग्य और हास्य-लेखन के वे अप्रतिम उदाहरण थे। अद्भुत वक़्ता और मंच के अत्यंत प्रभावशाली कवि। अनेक बार ऐसे भी अवसर आए जब कवि-सम्मेलन के अध्यक्षीय काव्य-पाठ और समापन की घोषणा के पश्चात भी श्रोताओं के विशेष आग्रह पर आयोजकों को पाण्डेय जी से फिर-फिर पाठ कराना पड़ा। अपनी मधुर वाणी और कंठ के सम्मोहक स्वर से वे मंचों पर सदा छाए रहे। दिनकर, प्रभात, जानकी वल्लभ शास्त्री, गोपाल सिंह नेपाली , पं रामचंद्र भारद्वाज, हंस कुमार तिवारी, राम गोपाल शर्मा रूद्र जैसे मंच के मंच के देदिप्यापान नक्षत्रों के बीच अति शोभायमान नक्षत्र थे वे। भाषा, छंद और संगीत पर अपने सुदृढ़ प्रभुत्व के कारण वे सदैव अपने समकालीन साहित्यकारों और श्रोताओं में लोकप्रिय बने रहे। अंगिका की उनकी विश्रुत कृति ‘पछिया बयार’, वस्तुतः काव्य-संसार में एक अभिनव वसंत लेकर आई थी। प्रायः सभी मंचों पर उनसे उसकी रचना पढ़ने का अवश्य ही आग्रह होता था। ‘पछिया बयार’ की निम्न पंक्तियाँ अनेक स्थलों पर उद्धृत हुईं;-
“अगहन पूस में तोहे मति अहिह
हाड़ पर बरफ़र तीर ने चलैह
पहुनइ करिह समुंदर पार हो
पछिया बयार हो !”
पाण्डेय जी की पूर्व पीढ़ी (माता, पिता, मामा आदि अनेक) ही स्वतंत्रता के आंदोलन में कूद पड़ी थी। अस्तु उनका समस्त कुटूँब अंग्रेज़ी सरकार का कोप-भाजन हुआ। बताया जाता है कि, उनके घर पर अंग्रेज़ों का पहला छापा १९१७ में ही पड़ा था। तब वे अबोध बालक थे। १९४२ की अगस्त क्रांति में उनके घर पर पुनः अनेक छापे पड़े, तब वे स्वयं क्रांति का ध्वज उठा चुके थे। उन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति तक निर्वासन (फ़रार) का जीवन यापन करना पड़ा। वे ‘संन्यासी भेष’ में कहलगाँव स्थित सुकुमारी पहाड़ पर ‘पहड़-बंगला’ में रहा करते थे। संन्यासी भेष ने उन्हें सच में हीं संत बना दिया। वे खड़ाऊँ पहन कर ही प्रतिदिन पहाड़ पर चढ़ा उतरा-करते थे। प्रतिप्रात गंगा-स्नान उनकी दिनचर्या में सम्मिलित था। वे बड़े हीं कुशल तैराक भी थे। घंटों तक पद्म-आसान लगाकार, पीठ के बल लेटे, पानी की सतह पर पड़े रह सकते थे।
स्वतंत्रता के पश्चात एक स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने ‘भारत माता’ नामक नृत्य-नाटिका की प्रस्तुति भागलपुर में की थी। एक ऐसे ही समारोह में उन्होंने १९४२ क्रांति के नायक ( बाद में लोक नायक के रूप में विख्यात) जय प्रकाश नारायण को, सस्ती के उस काल में ११०० रु की थैली प्रदान की थी। यह अपनी तरह की पहली घटना थी। १९५१-५२ में पाण्डेय जी ने नाट्य-मंचों के माध्यम से साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैचारिक क्रांति आरंभ की। पटना में अनेक नाट्य प्रस्तुतियाँ हुईं। पटना विश्वविद्यालय के समीप मुक्ताकाश में मंच बनाकर उन्होंने संस्कृत नाटक का मंचन अपने निर्देशान में कराया था। पटना में मंचित हुआ संभवतः यह प्रथम संस्कृत नाटक था। संभवतः ‘दशावतार’!
हिन्दी और अंगिका के इस महान तपस्वी का निधन ८ अप्रैल २००६ को ९५ वर्ष की आयु में हुआ। अपने सुदीर्घ जीवन के बहुलांश उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रभाषा और विशेष रूप से अंगिका को समर्पित कर दिया। वे अंगिका के पुरा-पूरुष के रूप में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे।