पटना, २५ दिसम्बर । भारतीय आत्मा की जीवंत मूर्ति थे मालवीय जी। हिन्दी और भारतीय संस्कृति की शिक्षा के लिए दिया गया उनका अवदान कभी भुलाया नही जा सकता। वे संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेज़ी के विश्रुत विद्वान हीं नही अद्भुत वक़्ता भी थे। विद्वता, विनम्रता, सेवा,संघर्ष और वलिदान उनके रक्त के प्रत्येक बूँद में था। स्वतंत्रता-संग्राम के वे अमर सिपाही, वस्तुतः भारतीय चेतना और मनीषा के संवाहक थे। वे सही अर्थों में महामना और आदर्श ऋषि थे, जिनके चरणों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी सिर झुकाते थे। वहीं अटल जी राष्ट्रीयता को समर्पित, आधुनिक भारत के एक ऐसे महापुरुष थे जिन पर संपूर्ण भारत वर्ष गर्व कर सकता है। वे कविता-सुंदरी के भी प्रियपात्र थे। वे राजनेता न होते तो ‘महाकवि’ होते। उनके विराट व्यक्तित्व को साहित्य ने संवारा था। यह बड़ा अद्भुत संयोग है कि, एक ही दिवस को धरा पर अवतरित हुए इन दोनों ही विभूतियों को भारत की सरकार ने ‘भारत-रत्न’ के सर्वोच्च अलंकरण से विभूषित किया।
यह बातें आज यहाँ भारत के इन दोनों महान रत्नों के साथ कवयित्री डा उषा रानी दीन की जयंती पर बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में आयोजित समारोह और कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, मालवीय जी ने लुप्त हो रहे भारतीय-ज्ञान और संस्कृति के उन्नयन के लिए अनेक संस्थाओं की स्थापना की और अनेकों संस्थाओं का पोषण किया। वे चार-चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। वे एक महान साहित्य-सेवी और अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। छात्र-जीवन से हीं रचनात्मक साहित्य से जुड़ गए थे। ‘मकरंद’ उपनाम से कविताएँ लिखा करते थे। ‘हिंदुस्तान’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसे हिन्दी और अंग्रेज़ी समाचार-पत्रों का संपादन भी किया। वे स्वतंत्रता-संग्राम के महान सेनापति और हिन्दी-आंदोलन के पितामह थे।
सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा ने अतिथियों का स्वागत करते हुए, भारत के दोनों रत्नों के साथ कवयित्री डा उषा रानी ‘दीन’ को भी श्रद्धापूर्वक स्मरण किया। साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी, डा रमेश चंद्र पाण्डेय तथा राजेंद्र तिवारी ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन का आरंभ कवि राज कुमार प्रेमी की वाणी-वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ का कहना था- “वो लहरें सर पटकती, दूर बहती तेज धारा है/ चलो देखें, ये लगता है, वो दरिया का किनारा है/ ये कहने को तो है गागर, मगर कितना है जल मीठा/ वो कहने को महासागर, मगर पानी तो खारा है “। डा शंकर प्रसाद ने अपनी बात इस तरह कही कि, “वो तेरा वादा, वो अहद और मुहब्बत तेरी/ खो गए सारे नए रंग में ढलने वाले”।
कवयित्री डा सुधा सिन्हा, इन्दु उपाध्याय, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, आनंद किशोर मिश्र, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, डा आर प्रवेश, डा कुंदन सिंह, चित रंजन भारती, निशा परासर, अर्जुन प्रसाद सिंह, रवींद्र कुमार सिंह, राज किशोर झा, अरविंद कुमार आदि कवियों ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया । मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।
कौशलेन्द्र पाराशर की रिपोर्ट.