स्मृतियाँ जिनकी रुलाती हैं राजनीति की धूप में साहित्य की घनी छांव थे डा शंकर दयाल सिंह, जयंती (२७ दिसम्बर ) पर विशेष.अपनी ज़िंदादिली और उन्मुक्त ठहाकों के लिए चर्चित रहे, अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय साहित्यिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व डा शंकर दयाल सिंह, राजनीति की तपती धूप में साहित्य की घनी छांव की तरह थे। वे बदल रही और कुंठा की शिकार हो रही, भारतीय राजनीति में एक कुशल और सबल साहित्यिक हस्तक्षेप भी थे। भारत की ५वीं लोक-सभा के सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक शंकर जी ने अपने पहले हीं चुनाव में बड़ी राजनैतिक सफलता अर्जित की। तब उनकी आयु मात्र ३३ वर्ष थी। अपनी ५९ वर्ष की अल्पायु में ही वे भारत के दोनों ही सदनों के सदस्य रहे। दो दर्जन से अधिक अत्यंत मूल्यवान ग्रंथ लिखे। उतने ही पुस्तकों का संपादन भी किया। उनके जीवन पर्यन्त, उनका प्रकाशन संस्थान ‘पारिजात प्रकाशन’ बिहार और बिहार से बाहर के साहित्यकारों का एक बड़ा साहित्यिक-केंद्र बना रहा। वे एक ज़िंदादिल इंसान और बड़े दिल के साहित्यकार थे। उनका विनोदी स्वभाव और ठहाका खाशा मशहूर था। किंतु वे एक महान चिंतक, अनुशीलन-कर्ता और यायावर साहित्यकार थे। राह चलते लिख सकने का सामर्थ्य रखनेवाले वे एक विलक्षण साहित्य-पुरुष थे।
‘राजनीति की धूप : साहित्य की छांव’, ‘भाषा और साहित्य’ ,’इमर्जेंसी : क्या सच क्या झूठ’, ‘समय-संदर्भ और गांधी’, ‘परिवेश का सुख’, ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’, ‘पास पड़ोस की कहानियाँ’ , ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, ‘जनतंत्र के कटघरे में’ , ‘मैंने इन्हें जाना’, ‘यदा कदा’ , ‘भीगी धरती की सोंधी गंध’, ‘समय- असमय’, ‘अपने आप से कुछ बातें’, ‘आइए कुछ दूर हम साथ चलें’ , कहीं सुबह : कहीं शाम’ , ‘जो साथ छोड़ गए’ , ‘एक दिन अपना भी’ , ‘कुछ बातें : कुछ लोग’ , ‘कितना क्या अनकहा’, ‘पहली बारिस की छिटकती बूँदें’ , ‘बात जो बोलेगी’, ‘मुरझाए फूल : पंख हीन’ , ‘यादों की पगडंडियाँ’, ‘कुछ ख़्यालों में कुछ ख़्वाबों में’ आदि अत्यंत महनीय और लोकप्रिय ग्रंथों से हिन्दी का भंडार भरने वाले शंकर दयाल जी का जन्म २७ दिसम्बर, १९३७ को बिहार के औरंगाबाद ज़िले के भवानीपुर ग्राम में, एक कुलीन सारस्वत कुल में हुआ था। उनके पिता श्री कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ एक सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, बिहार विधान परिषद के सदस्य और अपने समय के श्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक थे।
बालक शंकर के सिर से, शैशव में ही, मातृ-आँचल का छत्र छिन गया। मातृ-हीन शिशु को, पितामही ने अपना गोद दिया और लालन-पालन किया। साहित्यकार पिता के हृदय में मातृ-विहीन पुत्र के प्रति करुणा-पूरित अगाध प्रेम रहता था। पिता के मन के किसी कोने में यह भी छुपा था कि पुत्र में सारस्वत प्रतिभा का विकास हो। अतः उन्होंने उच्च शिक्षा हेतु पुत्र को बनारस भेज दिया, जहां हिन्दू विश्वविद्यालय से युवा शंकर ने स्नातक की शिक्षा पूरी की। स्नातकोत्तर की उपाधि उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इसके पश्चात उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन आरंभ किया। विद्यानुराग, समाज और साहित्य के प्रति साधुदृष्टि तथा स्वतंत्रता-सेनानी और साहित्यकार पिता के सभी सारस्वत संस्कार की बड़ी पूँजी लेकर वे जीवन के महान संघर्ष में उतरे थे। उनकी वाक्-पटुता, निश्छल व्यवहार और सबके प्रति सद्भाव का भाव, ऐसे देवोपम गुण थे जो उन्हें न केवल बहु-आयामी व्यक्तित्व प्रदान करते थे, अपितु लोकप्रिय भी बनाते थे।
वर्ष १९६६ में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटि की औपचारिक सदस्यता लेकर अपने राजनैतिक जीवन का आरंभ किया। लोक-सभा के लिए, १९७१ में हुए चुनाव में वे औरंगाबाद से कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में एक बड़ी जीत अर्जित की और सांसद निर्वाचित हुए। नव-गठित लोकसभा के वे सबसे युवा सांसदों में एक थे। अपनी विद्वता, व्याख्यान कौशल और साहित्यिक विवेक से उन्होंने संसद का भी ध्यान खींचा और सरकार का भी। यही कारण था कि उन्हें संसद और सरकार की अनेक हिन्दी समितियों में स्थान मिला। वे ‘संसदीय राजभाषा समिति’ , ‘भारतीय अनुवाद परिषद’ , ‘केंद्रीय हिन्दी सलाहकार समिति’ , ‘भारतीय रेल परामर्श दातृ समिति’ और ‘दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी’ के सदस्य तथा समाचार अभिकरण ‘समाचार भारती’ के निदेशक भी रहे। इन समितियों के सदस्य के रूप में उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएँ की और जी भर कर अपने अनुभवों और विचारों को लिखा। यात्रा-साहित्य में उन्होंने बड़ा ही रोचक-रोमांचक निक्षेप किया। इन समितियों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में अत्यंत मूल्यवान कार्य किए। उनकी साहित्यिक भाषा भी रसात्मक और लालित्यपूर्ण थी, जो न केवल उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व को शब्द देती रही, अपितु पठनीयता को भी मूल्य प्रदान करती रही।
अपने व्यस्त राजनैतिक जीवन में भी उन्होंने हिन्दी और साहित्य को सर्वोच्च स्थान दिया। वे निरन्तर लिखते रहे। हिन्दी और साहित्य की सेवा पूजा की तरह की। साहित्यिक पत्रकारिता और प्रकाशन को भी नया आकाश दिया। अपने पिता की प्रकाशन संस्था ‘पारिजात’ को भी एक आनंदप्रद साहित्यिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा और ख्याति दिलाई। अनेक अभाव-ग्रस्त साहित्यकारों की कृतियाँ अपने प्रकाशन से प्रकाशित कराई। मासिक पत्रिका ‘मुक्त कण्ठ’ का १५ वर्षों तक प्रकाशन और संपादन किया। उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह जीवन का भोगा हुआ यथार्थ था। अपनी पुस्तक ‘भाषा और साहित्य’ में उन्होंने स्वयं ही लिखा कि उनका लेखन “यथार्थ की धरती पर खिला एक ऐसा पौंधा है, जिसकी टहनियों में विश्वास के दर्द हैं, भींगे हुए यथार्थ का अनुचितन है, देखे और सुनें की मार्ग-रेखाएँ हैं”। ‘समय-संदर्भ और गांधी’ नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने महात्मा गांधी का स्मरण एक नए ही संदर्भ में किया। उनकी दृष्टि में ‘गांधीवाद’ एक कोरा उपदेश नहीं अपितु कर्म के रूप में प्रस्फुटित एक महान और व्यावहारिक दर्शन है।
बहु आयामी और कुछ अनोखे व्यक्तित्व वाले शंकर दयाल जी से मेरा परिचय भी एक बड़े अनोखे ढंग से हुआ। यह कोई १९८३-८४ का वर्ष था। तब के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक समाचार-पत्र ‘आर्यावर्त’ के विद्वान संपादक पं जयकांत मिश्र जी ने अवकाश लेने के पश्चात अपना एक प्रकाशन आरंभ किया था। उन्ही दिनों हम कुछ युवा-साहित्यकार एक मासिक साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन पर कार्य कर रहे थे। मिश्र जी मेरे गृह-ज़िले के थे और उनके कनिष्ठ पुत्र श्री सुषमाकर मिश्र जी का विवाह हमारे ग्राम में ही हुआ था। इन कारणों से भी हमारी उनसे गहरी आत्मीयता थी। उनके परामर्श पर हमलोगों ने मासिक पत्रिका के प्रकाशन का विचार त्याग कर, साझे में ‘मगध मेल’ का प्रकाशन आरम्भ किया । वह ‘हैंड कंपोज़िंग’ का ज़माना था। दैनिक-पत्र के लिए तो और भी चुनौती भरा। उसमें भी संध्या का प्रकाशन! जिसके लिए वितरक मिलना भी कठिन।
मिश्र जी की इच्छा से, परामर्श तथा सहयोग की कामना से, हम दोनों उनसे मिलने डाक बांगला स्थित उनके प्रकाशन-कार्यालय ‘पारिजात’ पहुँचे। यह उनसे मेरा प्रथम-दर्शन था। वार्तालाप के बीच मैं प्रायः मौन ही रहा। प्रसार कैसे बढ़ाया जाए ? इस प्रश्न पर उन्होंने एक अजीब सा परामर्श दिया- “आज कल सीधा-सीधा समाचार कौन पढ़ता है। खबरों में हत्या, डकैती बलात्कार आदि हो तो पाठक चाव लेकर पढ़ते हैं। पाठकों को चाहिए- ‘सनसनी खेज़ खबरें ! आपको तो ऐसी खबरें ढूँढनी होगी ! न ढूँढ सके तो करवाइए”। यह कहते कहते उन्होंने ज़ोर का अट्टाहास किया। सभी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। मेरे लिए यह एक अजीब अनुभव था। तब मैं उनके इस विनोदी रूप और विंदास हँसी से अवगत नहीं था। मुझे निराशा हुई थी।
वापसी में मैंने जयकांत जी से अपनी निराशा प्रकट की। वे हँसने लगे। कहा – “ आप उन्हें नहीं जानते ! वे प्रायः ही हँसी-ठिठोली करते हैं! बड़े ही नेक और अच्छे इंसान हैं। चिंतक साहित्यकार हैं। आप विश्वास करिए वे हमारी हर प्रकार से सहायता करेंगे! हँसी में वो जो कह जाएँ, व्यवहार में वे एक आदर्श पूरुष हैं! आप अपने मन से दुर्भाव निकल दें।”
कालांतर में मेरे मन के सारे मालिन्य जो उनके प्रति हुए थे, निकल गए। ‘पारिजात’ में भी आना जाना हुआ। कभी विना सत्कार के जाने नहीं दिया। यहाँ तक कि उनके न रहने पर उनके अनन्य हितैषी और सहायक पं सुदामा मिश्र भी, उतनी ही श्रद्धा से सत्कार करते थे। सुदामा जी ने साहित्य का तो सृजन नहीं किया, किंतु साहित्यकारों के प्रति उनकी श्रद्धा अद्वितीय थी। वे ‘पारिजात’ के प्रबंधक थे, किंतु उनके मन-प्राण में सदैव ही साहित्य रहा। यह, उन पर कामता बाबू तथा शंकर जी के प्रभाव का ही प्रतिफल था।
शंकर दयाल जी का बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी बहुत ही गहरा और आत्मीय सरोकार था । वे बहुत दिनों तक सम्मेलन के अर्थमंत्री रहे। सम्मेलन के आयोजनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी । वे कवि -सम्मेलनों के भी बड़े प्रभावशाली आयोजक और संचालक थे। अपनी त्वरित टिप्पणी और वाक्-चातुर्य से वे श्रोताओं को न केवल बाँधकर रखते थे, बल्कि मोहाविष्ट कर लेते थे। कवियों को आमंत्रित करने से पूर्व एक मधुमय वातावरण बना देना उनकी विशिष्टता थी। उनका खिला हुआ मुख-मंडल श्रोताओं के लिए संजीवनी सा था।
कभी-कभी मुझे लगता था कि उनके उन्मूक्त हास्य के पीछे, उनका कोई बड़ा दर्द छिपा होता था। बचपन से ही मातृ-प्रेम से वंचित रह गए शंकर अंदर-अंदर ही कोई बड़ी पीड़ा पाल रखे थे, जिन्हें छिपाने के लिए, उन्हें अट्टाहास का आश्रय लेना पड़ता था। संस्मरणों और साहित्य में,अनेक स्थलों पर उनकी पीड़ा और दार्शनिक चिंतन की अभिव्यक्ति हुई है। ‘राजनीति की धूप : साहित्य की छांव’ उनकी बहु-पठित और लोकप्रिय संस्मरण ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने अपने हृदय को खोल कर प्रकट किया है। यह माना है कि आज की राजनीति कड़वी धूप होती जा रही है, जिस पर शीतल छांव की रचना साहित्य ही कर सकता है। राजनीति का कलुष जब भी उन्हें पीड़ित किया वे साहित्य की छांव में आते रहे।
अपनी पीड़ा को उन्होंने देशाटन और पर्यटन के माध्यम से भी दूर करने की चेष्टा की। प्रायः ही यात्रा में रहते थे। यात्रा में भी निरन्तर पढ़ते या लिखते रहते थे। हवाई जहाज़ में हों या रेल में, यह कार्य कभी नही रुकता था। यह एक अजीब संयोग है कि देशाटन-प्रिय इस यायावर साहित्यकार की मृत्यु भी यात्रा के दौरान ही हुई। २६ नवम्बर १९९५ की संध्या वे भारतीय रेल से पटना से दिल्ली के लिए विदा हुए थे। दिल्ली के निकट ‘टुण्डला जंक्शन’ पर हृदय गति रुक जाने से उनका निधन हो गया। २७ नवम्बर १९९५ का यह प्रात साहित्य के लिए एक गहन अंधकार की रात लेकर आया था। यह दारुण संवाद सुनने वाला हर व्यक्ति हतप्रभ था। बात-बात पर ज़ोर का अट्टाहास करने वाला हरदिल अज़ीज़ साहित्यकार और राजनेता सदा के लिए मौन हो गया। उनका असामयिक निधन साहित्य समाज के लिए एक बड़ा आघात सिद्ध हुआ। एक अत्यंत प्रतिभाशाली साहित्यिक राजनेता हमारे बीच से सहसा उठ गया। यह साहित्य और राजनीति, दोनों की हीं, बड़ी क्षति थी।