पटना, ३० दिसम्बर। भारत के प्रथम हृदय-रोग विशेषज्ञ और ‘इंदिरा गांधी हृदय-रोग संस्थान, पटना’ के संस्थापक-निदेशक डा श्रीनिवास एक महान हृदय-रोग-विशेषज्ञ और चिकित्सक होने के साथ-साथ, महान आध्यात्मिक चिंतक, साधक और साहित्यकार थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन, रोगियों और पीड़ितों की सेवा में अर्पित कर दिया। भारतीय संस्कृति, जीवन-दर्शन और अध्यात्म की गहरी समझ और साधना थी उनकी। उन्हें अमेरिका में १९९३ में आयोजित हुए, विश्व-धर्म-सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। समस्त देवोपम गुणों से युक्त वे एक ऋषितुल्य महापुरुष थे।
यह बातें बुधवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित, डा श्रीनिवास की १०१वीं जयंती पर आयोजित समारोह की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, डाक्टर साहब सांप्रदायिक सद्भाव और मानव-जाति की एका के भी महान पक्षधर और प्रतीक थे। उन्होंने अपने पुत्रों के नाम तक ऐसे रखे, जिनसे मानव-जाति के विराट एकत्व की ध्वनि आती है। एक पुत्र का नाम, ‘भैरव उस्मान प्रियदर्शी’ तथा दूसरे का नाम ‘तांडव आइंस्टाइन समदर्शी’ है। उन्होंने एक दलित बच्ची को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, उसका कन्यादान भी स्वयं किया और उसके पति को अपने जमाता का सम्मान देते रहे। वे सच्चे अर्थों में मानवतावादी संस्कृति-पुरुष और मनुष्यता के प्रतिमान थे।
इस अवसर पर डा श्रीनिवास के जीवन और दर्शन पर आधारित तथा उनकी दिव्यात्मा को समर्पित एक स्मृति-ग्रंथ ‘विज्ञान से परे सत्य की खोज डा श्रीनिवास’ का लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध चिकित्सक और पूर्व केंद्रीय मंत्री डा सी पी ठाकुर ने किया। डा ठाकुर ने कहा कि, हृदय-रोग की चिकित्सा के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य अविस्मरणीय है। वे चिकित्सक भी बहुत अच्छे थे और शिक्षक भी बहुत अच्छे थे। हम सब उनके शिष्य रहे। हृदयरोग के संबंध में अमेरिका से इस विषय में विशेष शिक्षा प्राप्त कर वे जब भारत लौटे, तभी से इस पद्धति के विकास में लग गए। उन्होंने पटना मेडिकल कौलेज में इसके विभाग की स्थापना करवाई और फिर अलग से ‘इंदिरा गांधी हृदय रोग संस्थान’ की स्थापना की।
पटना विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति और साहित्य-सेवी डा एस एन पी सिन्हा ने कहा कि, डा श्रीनिवास मेरे आचार्य थे। बाद में उनके साथ वर्षों कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। वे चिकित्सक ही नहीं ‘नाद-ब्रह्म’ के उपासक थे। वे रोगों के उपचार में, दुनिया भर में प्रचलित सभी चिकित्सा-पद्धतियों के सम्मिलित प्रयोग के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने ‘पॉली-पैथी’ के प्रचलन पर बल दिया।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के प्रधानमंत्री तथा लोकार्पित स्मृति-ग्रंथ के संपादक डा शिव वंश पाण्डेय ने कहा कि, डा श्रीनिवास, वृति से चिकित्सक, आत्मा से ऋषि, विचारों से आध्यात्मिक, व्यवहार में साधु और आचरण से महामानव थे। डा श्रीनिवास के पुत्र डा भैरव उस्मान प्रियदर्शी ने कहा कि, पिताश्री के प्रेरक व्यक्तित्व से हमें सदैव शिक्षा मिलती रही। अनेक संस्मरणों के साथ उन्होंने डा श्रीनिवास के मानवीय गुणों की चर्चा की। सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद सिंह, डा अशोक प्रियदर्शी, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, आनंद किशोर मिश्र, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, राज कुमार प्रेमी, चंदा मिश्र, माधुरी भट्ट, इन्दु उपाध्याय, अश्मजा प्रियदर्शिनी, निशा परासर, डा नागेशवर प्रसाद यादव, प्रभात धवन, अमरेन्द्र कुमार, राज किशोर झा, सच्चिदानंद शर्मा, राम किशोर सिंह ‘विरागी’, प्रणय कुमार सिन्हा ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।