पटना, १० जनवरी। समग्र विश्व में हिन्दी भाषा और साहित्य का तीव्र विकास हो रहा है। संसार के १५० देशों के २०० से अधिक विश्व विद्यालयों में हिन्दी की विधिवत शिक्षा दी जा रही है। अकेले अमेरिका में ४७ विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग हैं। अरब अमिरात में हिन्दी को न्यायपालिका की तीसरी भाषाबनाई गई है। मौरिशस में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सचिवालय कार्य कर रहा है। अनेक देशों में हिन्दी के उन्नयन के महनीय प्रयास हो रहे हैं, जिन पर भारत को गौरव हो सकता है। किंतु भारत में ही हिन्दी को अबतक वह अधिकार नहीं मिल सका है, जिसकी वह अधिकारिणी बनाई गई थी। जिसे देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए थी, वह देश की केंद्रीय सरकार के राजकाज की भाषा भी नहीं बन पाई है, जिसका निर्णय भारत की संविधान सभा ने आज से ७१ वर्ष पूर्व १४ सितम्बर १९४९ को लिया था।
यह बातें रविवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में ‘विश्व हिन्दी दिवस’ पर आयोजित समारोह में विद्वानों ने कही। समारोह का उद्घाटन चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय की कुलपति न्यायमूर्ति मृदुला मिश्र ने किया। उन्होंने हिन्दी की सेवाओं के लिए पटना विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो अरुण सिन्हा , डा उमा शंकर ऋषि, डा प्रतिभा सहाय, डा हरे कृष्ण तिवारी, प्रो सुशील कुमार सिंह, डा हरेंद्र प्रसाद सिंह, डा रामेश्वर नाथ मिश्र विहान, डा इरशाद अहमद, ज्योतींद्र मिश्र, अवधेश नारायण, डा विनय कुमार सिंह , लक्ष्मीकान्त मुकुल, डा दिनेश कुमार साह, डा रानी कुमारी, मुरारी लाल शर्मा, डा पूनम देवा, वीणाश्री हेम्ब्रम, प्रेमलता सिंह, डा निर्मला सक्सेना, नूतन कुमारी सिन्हा, डौली बगड़िया तथा नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल’ को ‘साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान’ से अलंकृत किया।
इस अवसर पर सम्मेलन की वार्षिक दिनपत्री समेत वाल्मीकि रामायण पर आधारित, साहित्यकार मार्कण्डेय शारदेय की पुस्तक ‘रामकहानी’ तथा लेखिका डा रीता सिंह की पुस्तक ‘रामकृष्ण परमहंस और मैं’ का लोकार्पण भी किया गया।
अपने उद्घाटन संबोधन में न्यायमूर्ति मिश्र ने कहा कि, संपूर्ण विश्व में हिन्दी भाषा का तेज़ी से विस्तार हो रहा है। भारत में भी इसका अपेक्षित विकास हो रहा है। भारत के प्रत्येक नागरिक को इसके उन्नयन मेन योगदान देना चाहिए। आवश्यक नहीं है कि सभी साहित्य का सृजन ही करे। हम एक विनम्र पाठक होकर, अच्छे वक्ता होकर भी इसमें योगदान कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि वो अपने विद्यार्थी जीवन में पुस्तकों का गहराई से अध्ययन कर्ती थीं। महाविद्यालय-पुस्तकालय की शायद हीं कोई पुस्तक होगी, जिसका उन्होंने अध्ययन नहीं किया हो। उन्होंने कहा कि अपनी भाषा में व्यक्ति हमेशा सहज रहता है। मातृभाषा से अधिक सहज और कोई दूसरी भाषा नही हो सकती।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि विश्व में हिन्दी की हो रही प्रगति से हमें प्रसन्न होना चाहिए। देश में भी इसकी प्रगति संतोषजनक है किंतु भारत में इसको दिया गया अधिकार अबतक नहीं मिला है, यह दुःख और चिंता का कारण है। साहित्य सम्मेलन की यह मांग रही है कि देश की एक राष्ट्र भाषा हो, जो हिन्दी हो और लिपि देवनागरी। जब हिन्दी देश की ‘राष्ट्रभाषा’ हो जाएगी, फिर इसके चतुर्दिक और बहुमुखी विकास के सारे मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जाएँगे। राजभाषा संबंधी भी सारे प्रश्न हल हो जाएँगे। इस संबंध में भारत सरकार को अविलंब निर्णय लेना चाहिए।
दूरदर्शन, बिहार के कार्यक्रम प्रमुख डा राज कुमार नाहर, पटना विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा, सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिव वंश पाण्डेय, दा मधु वर्मा तथा योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने भी अपने विचार व्यक्त किए। मंच का संचालन सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने तथा साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी ने संयुक्त रूप से किया। सम्मेलन की कलामंत्री दा पल्लवी विश्वास ने वाणी-वंदना तथा कवी अंकेश ने हिन्दी गीत का गायन किया।
इस अवसर पर, वरिष्ठ कवि राज कुमार प्रेमी, डा शालिनी पाण्डेय, डा सागरिका राय, डा अर्चना त्रिपाठी, पूनम आनंद, कृष्णरंजन सिंह, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, कुमार अनुपम, आनंद किशोर मिश्र, माधुरी भट्ट, परवेज़ आलम, सुमेधा पाठक, मुकेश कुमार ओझा, अमियनाथ चटर्जी समेत बड़ी संख्या में हिन्दी प्रेमी उपस्थित थे।