पटना, २७ जनवरी। कथा-साहित्य और काव्य-सौष्ठव के लिए विख्यात प्रफुल्ल चंद्र ओझा ‘मुक्त’ अपने समय के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण साहित्यिक हस्ताक्षर थे। साहित्य की सभी विधाओं में उन्होंने अधिकार पूर्वक लिखा। उनकी भाषा बहुत हीं प्रांजल और मुग्धकारी थी। उनके गद्य में भी कविता का लालित्य और माधुर्य देखा जा सकता है। वे काव्य-मंचों की शोभा ही नहीं विद्वता के पर्याय भी थे। वहीं उत्सवधर्मी साहित्यकार और छंदों के लोकप्रिय कवि बलभद्र कल्याण नगर के मनीषी विद्वानों के बीच ‘साहित्य-सारथी’ के रूप में जाने जाते थे। आज से दो दशक पूर्व, जिन दिनों बिहार की राजधानी पटना में साहित्यिक गतिविधियों पर विषाद का ताला पड़ गया था। जब साहित्यिक गतिविधियों का विश्रुत केंद्र, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने भी मौन धारण कर लिया था, तब साहित्य-सारथी बलभद्र कल्याण ने अपना द्विचक्री-रथ पर आरूढ़ होकर नगर में साहत्यिक चुप्पी को तोड़कर एक भारत के प्रथम राष्ट्रपति तथा हिन्दी के अनन्य सेवक देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद के नाम से ‘राजेंद्र साहित्य परिषद’ की स्थापना की तथा उसके तत्त्वावधान में साहित्यिक आयोजनों की झड़ी लगाकर राजधानी को पुनः प्राणवंत किया।
यह बातें बुधवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, ‘मुक्त’ जी और कल्याण जी की जयंती पर आयोजित संयुक्त-समारोह एवं कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, मुक्त जी आकाशवाणी से भी सक्रियता से जुड़े रहे। उन्होंने आदिकवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित विश्व-विश्रुत महाकाव्य ‘रामायण’ के हिन्दी में परिष्कृत अनुवाद का श्रम-साध्य प्रकाशन किया था, जो एक बड़ी उपलब्धि है। यह अनुवाद उनके विद्वान पिता साहित्याचार्य चंद्रशेखर शास्त्री ने किया था।
अतिथियों के स्वागत के क्रम में सम्मेलन की साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी ने कहा कि मुक्त जी का साहित्य उनके व्यक्तित्व के समान हीं आकर्षक है। समकालीन विद्वानों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। अज्ञेय भी उनके आत्मीय और प्रशंसक थे। बलभद्र कल्याण अपने नाम को आचरण और व्यवहार में सार्थक करते थे। वे साहित्यिक बली, आचरण में भद्र और सबके कल्याण कर्ता थे।
मुक्त जी के कवि-पुत्र एवं पत्रकार आनंद वर्द्धन ओझा ने पिता की स्मृतियों को साझा करते हुए, उनके साहित्यिक अवदानों की चर्चा की। उन्होंने अपनी एक कविता पढ़ते हुए कहा कि “मै बौरा डूबन डरा! एक दिन मुझसे कहा उन्होंने आओ मेरे साथ/ सागर में उतरो भर कर गहरी साँस / यार तुम डुबकी मारो क्या जाने सागर कब दे दे रंग बिरंगे शब्द और एक सच्चा मोती।”
कल्याण जी के जमाता आशीष कुमार सिन्हा, साधना ओझा, आदित्य आशुतोष, आनंद किशोर मिश्र तथा रवि नंदन सहाय ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संस्कृति कर्मी और सामाजिक-कार्यकर्ता श्याम नारायण महाश्रेष्ठ को भी उनकी ७५ पूर्ति पर सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर आयोजित कवि गोष्ठी का आरंभ चंदा मिश्र की वाणी-वंदना से हुआ। सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने सस्वर ग़ज़ल पढ़ी कि, “ वो जाने किस ख़्याल में क्या सोंचता हुआ/ चुपचाप ही गुजर गया बस देखता हुआ”। वरिष्ठ कवि राज कुमार प्रेमी, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, जय प्रकाश पुजारी, निशा पराशर, अर्जुन प्रसाद सिंह तथा राज कुमार ने भी अपनी रचनाओं का प्रभावशाली पाठ किया। मंच का संचालन कवि योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।