स्मृति शेष गीत के शिखर महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री जयंती (५ फरवरी) पर विशेष. जब भी उन्हें स्मरण करता हूँ तो गीत का समग्र हिमालय मेरे दृष्टिपथ में आ जाता है। विद्वता, विनम्रता, ओज और समस्त देवोपम गुणों से युक्त उनका विराट साहित्यिक व्यक्तित्व प्रातः काल की स्वर्णिम आभा की भाँति मन-प्राण को गुनगुनी धूप सा आह्लादित कर देता है और हृदय-तंत्रिका के अनेक तार झंकृत होकर गीत में प्रस्फुटित होने लगते हैं। मैं सोंचने लगता हूँ कि भारतीय वांगमय ने एक साहित्यकार के जिस चित्र को अपने मानस में खींच कर रखा है, वह उनसे कितना मिलता जुलता है ! कोई साहित्यकार दिखे तो लगे कि वह साहित्य का जीवंत विग्रह हो! चले तो लगे की ‘साहित्य चला है! मुस्कुराए तो लगे कि साहित्य ही मुस्कुराया है! जो बोले वह गीत बन जाए! उसकी आँखों में आँसू आए तो वह संसार की पीड़ा हो! वह झड़े तो लगे कि आँसू नहीं जीवन के दर्शन झड़ रहे हैं! जिसका सबकुछ संसार का और सारा संसार केवल उसका !जी हां! मैं बात कर रहा हूँ, गीत के शिखर-पुरुष महाकवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की, जिन्हें हिन्दी काव्य-साहित्य के छायावाद-काल का अंतिम स्तम्भ और उत्तरछायावाद का पुरोधा कहा जा सकता है। महाकवि का संपूर्ण जीवन भारतीय काव्य-मनीषा की उन्हीं दिव्य कल्पनाओं का पर्यायवाची रहा। संस्कृत और भारतीय वांगमय का उनका गहरा अध्ययन ही नहीं उनकी दिव्य कवित्त-शक्ति भी उनके विपुल साहित्य में बारंबार लक्षित होती है। उनकी काव्य-कल्पनाएँ मोहित करती हैं। संस्कृत-काव्य से सृजन कर्म में उतरे शास्त्री जी ने हिन्दी साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में प्रचुरता से लिखा और जो लिखा वह प्रज्ञान की धरोहर है। ‘भारत भारती पुरस्कार’ से विभूषित जानकी जी एक मात्र कवि हैं,जिन्होंने छायावाद काल में मधुर छंदों में आबद्ध काव्य-सृजन में महाप्राण निराला की बराबरी की। निराला उन्हें असीम स्नेह देते थे और उनके लिए जीवनादर्श भी थे। यह निराला ही थे, जिन्होंने उनके प्रथम काव्य-संग्रह ‘काकली’, जो संस्कृत में था, से प्रभावित होकर उन्हें हिन्दी काव्यसृजन के लिए प्रेरित और अनुप्राणित किया था। तभी जानकी जी ने वह विश्रुत गीत लिखा- ‘जनम जनम की पहचानी वह तान कहाँ से आई! किसने बाँसुरी बजाई’! इस गीत ने हिन्दी जगत में एक ऐसा संगीत छेड़ा, जिसने सबको झूमने पर विवश कर दिया। इस गीत के दीवाने प्रख्यात सिने कलाकार पृथ्वीराज कपूर भी थे, जो यह गीत सुनकर स्वयं उनसे मिलने मुज़फ़्फ़रपुर स्थित उनके आवास पर आ पहुँचे थे। शास्त्री जी ने उनकी स्मृति में अपने आवास ‘निराला निकेतन’, जो महाप्राण की स्मृति में है, में उस कक्ष का नाम ‘पृथ्वीराज कक्ष’ रखा है,जिसमें पृथ्वीराज जी बैठे थे। यह भी हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महनीय अंश है कि शास्त्री जी की ‘काकाली’ को पढ़कर निराला स्वयं चलकर उनसे मिलने आए थे, जब वे काशी में थे। एक विराट व्यक्तित्व का एक महान कवि एक नवोदित कवि से स्वयं मिलने आया था, आशीर्वाद देने और प्रेरणा देने ! निराला जैसे स्वाभिमानी थे, वैसा ही स्वाभिमान जानकी जी में भी था। तभी तो उन्होंने भारत सरकार द्वारा दी गई ‘पद्मश्री’ अलंकरण को भी उन्होंने लेने से इनकार कर दिया था। कमसेकम ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किए जाने योग्य महाकवि को ‘पद्मश्री’दिया गया था, वह भी कब? जब वे अपने अति कल्याणकारी सारस्वत जीवन के ९७वें वर्ष में थे !काकली’ (संस्कृत काव्य), ‘बाललता’, ‘अंकुर’, ‘उन्मेष’, ‘रूप-अरूप’, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘अवन्तिका’, ‘मेघ-गीत’, ‘गाथा’, ‘प्यासी-पृथ्वी’, ‘संगम’, ‘उत्पलदल’, ‘चन्दन वन’, ‘शिशिर किरण’, ‘हंस किंकिणी’, ‘सुरसरी’, ‘गीत’, ‘वितान’, ‘धूपतरी’, ‘बंदी’ ‘मंदिरम’ (सभी काव्य-संग्रह), ‘राधा’ (महाकाव्य), ‘पाषाणी’, ‘तमसा’, ‘इरावती’ (सभी संगीत-रूपक), ‘देवी’, ‘ज़िंदगी’, ‘आदमी’, ‘नील-झील’ (सभी नाटक), ‘एक किरण:सौ झाइयाँ’, ‘दो तिनकों का घोंसला’, ‘अश्वबुद्ध’, ‘कालिदास’, ‘चाणक्य शिखा’ (सभी उपन्यास), ‘कानन’, ‘अपर्णा’, ‘लीला कमल’, ‘सत्यकाम’, ‘बांसों का झुरमुट’ (सभी कथा-संग्रह), ‘मन की बात’, ‘जो न बिक सकीं’ (ललित निबन्ध), ‘अजन्ता की ओर’, ‘निराला के पत्र’, ‘स्मृति के वातायन’, ‘नाट्य सम्राट पृथ्वीराज कपूर’, हंस-बलाका’, ‘कर्म क्षेत्रे-मरु क्षेत्रे’, ‘अनकहा निराला’ (सभी संस्मरण), ‘साहित्य दर्शन’, ‘त्रयी’, ‘प्राच्य साहित्य’, ‘स्थायी भाव और सामयिक साहित्य’, ‘चिंतन धारा’ (समालोचना) तथा ‘सुने कौन नगमा’ (ग़ज़ल संग्रह) जैसे अत्यंत महनीय ग्रंथों से साहित्य का भण्डार भरने वाले और हिन्दी को विपुल सौंदर्य प्रदान करनेवाले हिन्दी और संस्कृत के इस अद्भुत प्रतिभा के महाकवि का जन्म गया ज़िले के मैगरा ग्राम में ५ फरवरी, १९१६ को हुआ था।मेधा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चारों वेद, अनेक उपनिषद, संस्कृत अमरकोश जैसे प्राच्य-ग्रंथ उन्हें बालपन में हीं कण्ठाग्र हो गया था। मात्र १८ वर्ष की आयु में ही ‘आचार्य’ की उपाधि प्राप्त कर ली और संस्कृत में काव्य-सृजन आरंभ कर दिया। उन्होंने संगीत की भी विधिवत शिक्षा ली थी। जितना अच्छा सुर-संधान करते थे, उतना ही चिताकर्षक तबला-वादन भी करते थे। काव्य-मंचों पर उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता था। काव्य-पाठ की अपनी विशिष्ट-शैली और विराट व्यक्तित्व से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ही उनहें चुनौती दे सकते थे। पर सुर और संगीत में तो शास्त्री जी हीं सब से और सदैव भारी रहे।उनसे मेरा परिचय पिछली सदी के आठवें दशक में जब मैं विद्यालय का छात्र था, उनकी रचनाओं से ही हुआ। उनके प्रभावशाली, सुदर्शन और रोचक व्यक्तित्व के संबंध में विद्वानों से सुना करता था। अकुंठ जिज्ञासा ने भेंट के लिए अकुलाहट उत्पन्न कर दी तो मुज़फ़्फ़रपुर के अपने एक सहपाठी श्री अमरेन्द्र कुमार के साथ उनके आवास पर जा पहुँचा। यह उनसे प्रथम दर्शन का सौभाग्य था। प्रेम से मिले। रसगुल्ले खिलाए और अपने परिवार के सदस्यों से मिलाए! उन सबसे भी, जो हमारी तरह बोल नहीं सकते थे। कुत्ते और ढेर सारी बिल्लियाँ ! जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते थे। संभवतः मनुष्यों से भी अधिक। उन सबके अलग-अलग पुकार के नाम भी थे। उनसे ऐसे बातें करते, जैसे वे उनकी भाषा समझते हों। उनमे से अनेक उनके देह पर लोटते होते तो कुछ गोद में! ज़रा सा किसी को चोट लगे तो छटपटा जाते थे। प्राणी-मात्र से प्रेम के वे अद्भुत उदाहरण थे। इसके पश्चात कुछ और ऐसी हीं छोटी मुलाक़ातें हुईं। अलग-अलग कार्य-क्षेत्र होने के कारण सान्निध्य-लाभ कम हो पाया। किंतु हमारी अंतिम और साहित्यिक भेंट की स्मृति मन से नहीं जा सकती, जिसका उल्लेख किए बिना आलेख पूर्ण नहीं हो सकता।वर्ष २००९ का सितम्बर का महीना था। हिन्दी ग़ज़लों और गीत के बड़े आदरणीय कवि श्री मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ के गीत-संग्रह ‘गीत मुझे गाने दो’ का प्रकाशन हुआ था। उनकी इच्छा थी कि उस पुस्तक का लोकार्पण महाकवि के पद्म-करों से संपन्न हो। उन्होंने इस हेतु मुझसे आग्रह किया। मैंने उनसे कहा भी कि बहुत दिनों से उनसे भेंट नहीं है। मुझे तो संकोच हो रहा है, पर मैं चेष्टा करूँगा। कुछ दिनों के बाद उन्होंने मुझे फिर स्मरण दिलाया तो मैंने पटना से महाकवि को फ़ोन किया। उधर से उनकी आदरणीया भार्या श्रीमती छाया जी (अब वह भी दिवंगत) ने फ़ोन उठाया। मैंने अपना परिचय देते हुए, उनसे महाकवि से वार्ता कराने का अनुरोध किया। कुछ क्षणों के पश्चात वही परिचित मंजुल स्वर था। स्मरण रखा था, यह उनकी महानता थी। औपचारिक कुशल-क्षेम के पश्चात मैंने पुस्तक के लोकार्पण हेतु समय देने का आग्रह किया। कहने लगे – “सुलभ जी ! पैर में समस्या के कारण चलना-फिरना असंभव हो गया है। पटना कहाँ आ सकूँगा!” “आप नहीं आएँगे ! हम आपके पास आएँगे! ‘निराला निकेतन’ में यह संक्षिप्त उत्सव होगा! बस अनुमति और स्वीकृति दें!” मैंने निवेदन किया।फिर तो कोई बात नहीं! मैं तो यहाँ से निकल ही नहीं पाता! जब आपकी इच्छा हो, सूचित कर आ जाएँ! प्रसन्नता होगी”! उन्होंने जैसे स्वीकृति दी मैंने अविलंब करुणेश जी को सहर्ष अवगत कराया और अगले रविवार (११ अक्टूबर, २००९) को, पूरी तैयारी के साथ पटना से रवाना हो गए। हमारे साथ थे पटना विश्व विद्यालय के यशस्वी पूर्वकुलपति डा एस एन पी सिन्हा, कीर्तिशेष साहित्यकार बलभद्र कल्याण जी और कुछ हमारे सहयोगी। पहुँचते हीं बड़े-बड़े रसगुल्लों के साथ हमारा स्वागत हुआ। वैसे रसगुल्ले हमें फिर कभी दर्शन नही हुए। निराला निकेतन के प्रांगण में बने मंच पर सारी तैयारी हुई। हमारी संस्था ‘सांस्कृतिक-सद्भावना मंच’ का, लोकार्पण-समारोह से सबंधित, बैनर लगाया गया, जिसका मैं अध्यक्ष हूँ और कल्याण जी महासचिव थे। जिस कुर्सी पर महाकवि बैठे थे, कुर्सी समेत उन्हें उठाकर कुछ युवाओं ने उन्हें मंच के मध्य में प्रतिष्ठित किया। नगर के स्थानीय साहित्यकार उपस्थित हो चुके थे। स्तुत्य साहित्यसेवी और ज़िला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा शिवदास पाण्डेय, आदरणीया छाया जी, महाकवि की पुत्री श्रीमती शैलबाला जी, जमाता श्रीयुत प्रभात चंद्र मिश्र जी, चर्चित कवयित्री डा रश्मि रेखा जी की उपस्थित विशेष रूप से उल्लेखनीय थी। मेरी अध्यक्षता में उत्सव आरंभ हुआ। बलभद्र कल्याण जी ने हृदय चीर कर स्वागत भाषण किया। मंचस्थ विद्वान डा शिवदास पाण्डेय जी ने भी विद्वतापूर्ण संक्षिप्त उद्गार व्यक्त किए। किंतु अपने लोकार्पण उद्गार में लगभग पौने घंटे का जो व्याख्यान शास्त्री जी ने दिया, यदि हम उसे ध्वनाकिंत कर पाए होते तो वह हमारी बड़ी संपत्ति होती। उन्होंने पुस्तक के शीर्षक ‘गीत मुझे गाने दो’ को भी गा कर पढ़ा! लोकार्पण के पश्चात करुणेश जी ने रचनाओं का सस्वर पाठ आरंभ किया तो तत्क्षण हीं शास्त्री जी ने उन्हें रोका और उन पंक्तियों को स्वर में गाकर बताया कि इस गीत को “यों पढ़ना चाहिए।” करुणेश जी, जो स्वयं काव्य-मंचों पर, प्रभावशाली सस्वर-पाठ के लिए जाने जाते हैं, अभिभूत थे। शास्त्री जी तब ९६ वर्ष की आयु पूरी कर चुके थे।७ अप्रैल २०११ को इस महान कवि ने अपनी इहलीला समेट ली। साहित्य के एक अत्यंत महनीय अध्याय का अंत हो गया। कुछ क्षण के लिए सारा साहित्य-संसार प्राण-शून्य हो गया था। किंतु यह भी सत्य है कि उनकी महान कृतियाँ रहती दुनिया तक उन्हें अमरत्व प्रदान करती रहेंगी। उनकी हीं निम्न पंक्तियों से जयंती पर, श्रद्धा-तर्पण देता हूँ;गुलशन न रहा,गुलचीं ना रहा, रह गई कहानी फूलों की / महमह करती-सी वीरानी, आख़िरी निशानी फूलों की।””ज़िंदगी की कहानी रही अनकही! दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही! अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए, कोश से जो खिंचे तो तने रह गए, वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई, धूप ढलती रही, छाँह छलती रही!”
कौशलेन्द्र पाराशर की रिपोर्ट.