पटना, ५ फ़रवरी। छायावाद-काल के पाँचवे स्तम्भ के रूप में परिगणित महान साहित्यसेवी आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री गीति-साहित्य के शिखर पूरुष थे। वे संस्कृत और हिन्दी के मूर्द्धन्य विद्वान तो थे हीं साहित्य और संगीत के भी बड़े तपस्वी साधक थे। काव्य-मंचों पर उनकी उपस्थित देव सभा में इंद्र की भाँति शोभायमान होती थी। अपने कोकिल-कंठ से जब वे गीत को स्वर देते थे तो हज़ारों-हज़ार धड़कने थम सी जाती थी। कवि-सम्मेलनों के मंच पर उनकी बराबरी राष्ट्र-कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और गीतों के राज कुमार गोपाल सिंह नेपाली के अतिरिक्त कोई भी नहीं कर सकता था। उनकी कविताओं पर महाप्राण निराला भी मोहित रहते थे और महान सिने अभिनेता पृथ्वीराज कपूर भी।यह बातें शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में शास्त्रीजी और पं शिवदत्त मिश्र की जयंती पर आयोजित समारोह और कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, मात्र १८ वर्ष की आयु में संस्कृत का आचार्य हो चुके शास्त्री जी ने अपनी काव्य-यात्रा संस्कृत में आरंभ की। उनका प्रथम काव्य-संग्रह ‘काकाली’ संस्कृत के मधुर छंदों में ही रचा गया था। जिसे पढ़कर निराला उनसे मिलने स्वयं पहुँचे थे। निराला की प्रेरणा से ही जानकी जी ने हिन्दी में सृजन आरंभ किया। हिन्दी की प्रथम कृति ‘किसने बाँसुरी बजाई’ ने हीं हिन्दी जगत में ऐसी धूम मचाई कि वे सबके चहेते बन गए। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में जी भर के लिखा। कहानी,उपन्यास , संस्मरण, नाटक और ग़ज़लें भी लिखी। उनके गीतों से होकर गुज़रना दिव्यता के साम्राज्य से होकर गुज़रने के समान है। चिंतन-साहित्य के मूल्यवान कवि पं शिवदत्त मिश्र को स्मरण करते हुए डा सुलभ ने कहा कि, मिश्र जी एक संवेदनशील कवि और दार्शनिक-चिंतन रखने वाले साहित्यकार थे। ‘कैवल्य’ नामक उनके ग्रंथ में, उनकी आध्यात्मिक विचार-संपन्नता और चिंतन की गहराई देखी जा सकती है। वे साहित्य में उपभोक्ता-आंदोलन के भी प्रणेता थे। वे एक मानवता-वादी सरल और सुहृद साहित्यसेवी थे। साहित्य-सम्मेलन के उद्धार के आंदोलन में उनकी अत्यंत मूल्यवान और अविस्मरणीय भूमिका रही। वे सम्मेलन के यशमान उपाध्यक्ष रहे। वे एक समर्थ कवि और संपादक थे।अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने महाकवि के साहित्यिक-कृतित्व की सविस्तार चर्चा की तथा उन्हें गीत का शिखर-पुरुष बताया। उन्होंने कहा कि शास्त्री जी की विद्वता भी उतनी ही स्तुत्य थी, जितनी उनकी काव्य-कृतियाँ। भाषा पर उनका अद्भुत अधिकार था। कहा जाता है कि जानकी जी अपने पैर के बाएँ अंगुष्ठ से भी कुछ लिख दें तो वह भी त्रुटि-हीन और काव्य हो जाए! सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी, प्रो वासुकीनाथ झा तथा डा जंग बहादुर पाण्डेय ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए।इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ स्वर्गीय शिवदत्त जी की पत्नी और कवयित्री चंदा मिश्र की वाणी-वंदना से हुआ। सम्मेलन के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ ने अपनी ग़ज़ल “आज फिर दिल में दर्द ज़्यादा है/ ज़िंदगी बोल क्या इरादा है/ साँस चलती की दौड़ती बिजली/ पाँव किसका किसी ने बांधा है” का सस्वर पाठ कर महाकवि को अपनी श्रद्धांजलि दी। उन्होंने भारत सरकार से जानकी जी के लिए ‘भारत-रत्न’ प्रदान करने की माँग की।सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद का कहना था कि “फिसलती ज़िंदगी हाथों से मेरी/ बचे हैं बस तमाशा देखने को”। व्यंग्य के चर्चित कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’ ने कहा – “सत्तर सालों से पहनते-पहनते फट गयी सियासत की सलबार/ नेताओं की नौटंकी से आख़िरकार, गया गिरगिट भी हार”। रमेश कँवल का कहना था कि “मुजरिमों से मिले रह गए/ होंठ मेरे सिले रह गए/ सच को सूली चढ़ाया गया/ झूठ के क़ाफ़िले रह गए।”वरिष्ठ कवि बच्चा ठाकुर, राज कुमार प्रेमी, सुनील कुमार दूबे, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, डा अर्चना ठाकुर, डा सुलक्ष्मी कुमारी, जय प्रकाश पुजारी, डा रमाकान्त पाण्डेय, चितरंजन भारती, पं गणेश झा, अरुण कुमार श्रीवास्तव, विनोद कुमार झा, दीपक कुमार गुप्त, राज आनंद, श्याम नारायण महाश्रेष्ठ तथा नेहाल कुमार सिंह ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन प्रबंध मंत्री कृष्ण रंजन सिंह ने किया।
संजय राय की रिपोर्ट