स्मृति-शेष बिहार के द्विवेदी’ थे अभिनव गद्य शैली के प्रवर्तक आचार्य रामलोचन शरण जयंती (११ फरवरी) पर.अपनी विशिष्ट गद्यशैली तथा हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में अप्रतिम अवदानों के लिए श्रद्धास्पद रहे मनीषी विद्वान और हिन्दी के प्रथम व्याकरण समेत शताधिक महनीय ग्रंथों के रचयिता आचार्य रामलोचन शरण ‘बिहारी’ खड़ी बोली के अभिनव गद्य शैली के प्रवर्तक माने जाते हैं। आचार्य शिवपूजन सहाय ने उन्हें ‘बिहार का द्विवेदी’ कहा है। खड़ी-बोली हिन्दी के जागरण के उषा-काल अर्थात २०वीं सदी के पूर्वार्द्ध के जिन मनीषी हिन्दी-सेवियों को अत्यंत श्रद्धा से स्मरण किया जाता है, शरण जी उनमे अग्र-पांक्तेय माने जाते हैं। समाज में शिक्षा और साहित्य के प्रति अनुराग जगाने वाले शरण जी ने बालकों और प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए जो वरेण्य कार्य किए, वे चकित करते हैं। उन्होंने बालकों की शिक्षा के लिए बहु-विश्रुत ‘मनोहर पोथी’ समेत सौ से अधिक पुस्तिकाएँ लिखीं। उसी प्रकार निरक्षरता-निवारण और प्रौढ़ शिक्षा के लिए भी उन्होंने शताधिक लघु-पुस्तकें लिखीं । बिहार में हिन्दी-प्रचार, प्रकाशन-आंदोलन और साहित्यकारों को प्रेरणा, प्रोत्साहन, मार्ग-दर्शन और अवसर देने का उनका कार्य साहित्य-इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-वर्णों में अंकित है। विद्यार्थियों के मन-प्राण में साहित्य और संस्कृति की पीयूष-धार बहाने के महान उद्देश्य के निमित्त पत्रिका ‘बालक’ का प्रकाशन हो, या प्रकाशन संस्थान ‘पुस्तक-भण्डार’ की स्थापना, जिसके माध्यम से महावीर प्रसाद द्विवेदी, महाकवि जय शंकर प्रसाद, बेनीपुरी, दिनकर तथा महात्मा गांधी के साहित्य का प्रकाशन हुआ या फिर ‘हिमालय प्रेस’ की स्थापना और ‘हिमालय’ का प्रकाशन, शरण जी ने जागरण का जो मशाल जलाया वह हिन्दी-साहित्य के इतिहास का अत्यंत उज्जवल और प्रभावान पक्ष है। इनके माध्यम से वाग्देवी की जो सेवा और साधना उन्होंने की वह सदियों तक जिज्ञासु-मन को प्रेरणा देती रहेगी। वास्तव में शरण जी आधुनिक हिन्दी के विशाल मंदिर के स्वर्ण-कलश की तरह स्तुत्य हैं।
शरण जी का जन्म ११ फरवरी १८९० को तत्कालीन मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले (अब सीतामढ़ी) के राधाऊर ग्राम में एक सारस्वत कुल में हुआ था। उनके पिताश्री महँगु शरण एक संपन्न कृषक और वैद्य थे। उनकी माताश्री राजमणि देवी भी विदुषी गृहिणी थीं। माता-पिता का प्रज्ज्वल संस्कार पुत्र को नैसर्गिक रूप से प्राप्त हुआ। बालक राम लोचन ने अपनी मेधा से बालपन में ही छात्र-वृति प्राप्त कर ली और प्राथमिक शालाओं की परीक्षा से हीं श्रेष्ठ विद्यार्थी के रूप में परिगणित होने लगे। उन्होंने मिडिल तक की शिक्षा अपने घर से लगभग ६० किलो मीटर दूर स्थित शिवहर राजकीय मिडिल स्कूल से प्राप्त की। वर्ष १९०३ में हुई इस परीक्षा में आए परिणाम से उन्होंने अपने माता-पिता को ही नहीं अपने शिक्षकों को भी चकित कर दिया। साहित्य के प्रति भी उनका रुझान मिडिल स्कूल की शिक्षा के दौरान ही हो गया था और वे अपने आचार्य पं रामदास राय के लेखन-कार्य में वर्ण-संशोधन (प्रूफ़ रीडिंग) तथा प्रतिलिपि बनाने में सहयोग करने लगे थे। पंडित जी का उन्हें विशेष आशीर्वाद प्राप्त था। उन्होंने बालक राम लोचन के अंतस में छिपी प्रतिभा को पहचान लिया था। उनकी ही प्रेरणा से किशोर राम लोचन ने शिक्षक की वृति को समाज-सेवा के रूप में चुना और पटना स्थित ‘नॉर्मल ट्रेनिंग स्कूल’ में अपना नामांकन करा लिया। उन दिनों राजकीय प्राथमिक और मध्य-विद्यालयों में शिक्षक होने के लिए ट्रेनिंग स्कूल से प्रशिक्षण लेना आवश्यक होता था, जिसमें ‘मिडिल’ उत्तीर्ण विद्यार्थी नामांकित हो सकते थे। इस प्रशिक्षण संस्थान में भी शरण जी ने अपने आचार्य पं बिहारी लाल चौबे के लेखन-कार्य में वही सहयोग प्रदान किया, जो पं रामदास के लिए किया करते थे। इस प्रकार उन्हें शिक्षण-कार्य और लेखन-कार्य का भी पर्याप्त प्रशिक्षण मात्र १७ वर्ष की आयु में ही हो गया था, जब वे (१९०७ में ) प्रशिक्षित शिक्षक के रूप में ‘पटना नॉर्मल ट्रेनिग स्कूल’ से एक महान स्वपन और कल्याण का उदात्त भाव के साथ बाहर निकले।
मोतीहारी ज़िला स्कूल से शरण जी ने अपनी शिक्षक-वृति आरंभ की। अपनी लोक-कल्याणकारी लौकिक-वृति में, उन्होंने चूड़ामणि स्कूल (शाहाबाद), सिमरा स्कूल (मुज़फ़्फ़रपुर), गया ज़िला स्कूल तथा दरभंगा ज़िला स्कूल, लहेरियासराय के विद्यार्थीयों को भी अपने अध्यापन-कौशल से अनुप्राणित किया। शरण जी बाल-मनोविज्ञान के गुणी ज्ञाता थे। अपने अनुभवों, विशद ज्ञान और बाल-मन की समझ को उन्होंने शिक्षा का विशेष उपकरण बनाया। उन्हें यह बात भली-भाँति समझ में आ गई थी कि बालकों की शिक्षा के लिए, मनोरंजक कथा प्रधान और अत्यंत सरल भाषा में साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए। उन्होंने अंतः प्रेरणा से ‘मनोहर-पोथी’ नामक पाठ्य-पुस्तिका का प्रणयन किया। यह पुस्तिका दशाब्दियों तक बिहार ही नहीं अनेक प्रदेशों में प्राथमिक-शालाओं में पाठ्य-पुस्तक के रूप में पाठ्य-सामग्री में सम्मिलित रही। बालोपयोगी साहित्य में भी उनका अवदान श्लाघ्य है। उन्होंने ‘सुनो मेरी कहानियाँ’, ‘पेंड-पौधों से बातें कर लो’, ‘आकाश में उड़ चलो’, ‘जानवरों से हँस-बोल लो’, ‘पानी में डुबकी लगाओ’,’गोनु झा से हँस-बोल लो’, ‘नानी से कहानियाँ सुनों’, ‘दादी से कहानियाँ सुनों’, ‘रंग-विरंग’ आदि अनेक भागों में दर्जनों ऐसी बाल-पुस्तकें लिखीं, जो न केवल बालकों में अत्यंत लोकप्रिय हुईं, अपितु उन्हें जीवन के प्रति सकारात्मक राग भी प्रदान किया, चरित्रवान और मूल्यवान बनाया। इनमें से अनेक पुस्तकें ऐसी थीं, जिनमे संयुक्ताक्षर शब्दों का प्रयोग ही नहीं किया गया था। जिन पुस्तकों में संयुक्ताक्षर शब्द आए भी तो बहुत न्यून संख्या में। शरण जी के इस अभिनव प्रयोग ने उन्हें बाल-साहित्य में अत्यंत विशिष्ट बना दिया। उनके द्वारा प्रकाशित और संपादित बाल-पत्रिका ‘बालक’ संपूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय थी और छात्रगण उसकी प्रतीक्षा करते थे। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद्र ने माना था कि “बालकों के लिए जितनी भी पत्रिकाएँ निकल रही हैं, ‘बालक’ उन सभी में अच्छा है।”
शरण जी ने हिन्दी भाषा के अध्यापन और उन्नयन के समक्ष उपस्थित अनेक अभावों की भी पूर्ति की। उन्होंने ‘व्याकरण बोध’ शीर्षक से हिन्दी व्याकरण लिखा। इसकी प्रसिद्धि समस्त हिन्दी पट्टी में एक वर्ष के भीतर फैल गई। उनकी इस पुस्तक पर युक्त-प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के शिक्षा विभाग ने वर्ष १९१५ में पुरस्कृत किया। पुरस्कार राशि डाक से लहेरिया सराय पहुँची, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने लहेरिया सराय में अपना एक प्रकाशन संस्थान स्थापित किया, जो ‘पुस्तक-भण्डार’ के रूप में देश-प्रसिद्ध हुआ, जहां से न केवल उनके स्वयं की सैकड़ों पुस्तक-पुस्तिकाएँ ही नहीं, महान हिन्दीसेवी महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘वाग्विलास’, महाकवि जयशंकर प्रसाद की ‘छाया’ और ‘कानन’, हरिऔंध की ‘हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास’, ‘पद्य प्रसून’, ‘रस कल्प’, दिनकर की ‘रेणुका’, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की ‘राम-रहीम’, नेपाली की ‘नवीन’, बेनीपुरी की ‘विद्यापति की पदावली’ , आचार्य शिव पूजन सहाय की ‘विभूति’, डा हरिमोहन झा की ‘न्याय’ और ‘वैशेषिक’ (दर्शन ) समेत सैकड़ों महनीय पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिसने हिन्दी साहित्य के विशद भण्डार को भरने में अपना महत्ती योगदान दिया। ‘पुस्तक भण्डार’ से महात्मा गांधी का ‘हिन्द स्वराज्य’ समेत अनेक गांधी साहित्य का भी प्रकाशन हुआ। शरण जी ने अनेक साहित्यकारों को प्रोत्साहित कर हिन्दी के सेवा में सन्नद्ध किया, मार्ग-दर्शन किया, आर्थिक सहायता दी और उनके पुस्तकों का प्रकाशन किया। देश भर के पुस्तकालयों और शिक्षण-संस्थानों को निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध कराईं। नेपाल और मौरिशस आदि देशों में भी पुस्तकें और पत्रिकाएँ भेजी तथा अनेक प्रकार से हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में अपना योगदान दिया।
सवतंत्रता-संग्राम के उन दिनों में जब सरकारी-विद्यालयों के परित्याग का आह्वान किया गया और पटना में स्थापित ‘बिहार-विद्यापीठ’ जैसे विद्यालयों की स्थापना हुई, तो राजेंद्र बाबू की प्रेरणा से शरण जी ने ६ भागों में ‘राष्ट्रीय साहित्य’ नामक पाठ्य-पुस्तक का प्रणयन किया। सरदार पटेल की इच्छा से यही पुस्तक किंचित संशोधन के साथ गुजरात विद्यापीठ के लिए भेजी गई। इसी तरह ‘साहित्य विनोद माला’, ‘साहित्य सरोज माला’, ‘साहित्य प्रमोद माला’, ‘साहित्य कुसुम माला’ तथा ‘साहित्य प्रवेश माला’ (सबके ६ से अधिक भाग) हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकें लिखी। इनके अतिरिक्त शरण जी ने इतिहास, भूगोल, स्वास्थ्य, प्रकृति विज्ञान, अंक गणित, रेखा गणित, व्याकरण और रचना की ३० से अधिक पुस्तकें पाठ्य-विधान के अनुकूल लिखकर अध्यापन के अभावों को दूर किया। ‘भारत गौरव गाथा’ (संस्कृत, बांगला, ऊर्दू और अंग्रेज़ी में भी अनुदित), ‘व्याकरण चंद्रोदय’, ‘हिन्दी रचना चंद्रोदय’, ‘रचना नवनीत’, ‘काव्य सरिता’, ‘साहित्यालोक’, ‘नीति निबंध’, ‘राष्ट्र भारती’, ‘साहित्यामोद’ आदि उनके ग्रंथ हिन्दी साहित्य के गौरव-ग्रंथ कहे जा सकते हैं, जिनमे उनकी अभिनव गद्य-शैली और मनीषा की महिमामयी छवि लक्षित होती है। उन्होंने तुलसी के ‘रामचरित मानस’ का (‘मैथिली श्रीरामचरित मानस’ शीर्षक से ) मैथिली भाषा में मनोहारी अनुवाद किया, जो मैथिली-साहित्य को दिया गया उनका श्रेष्ठतम अवदान है।
शरण जी के बहु आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व को कुछ पृष्ठों में अंकित करना अत्यंत दुष्कर है। विद्यार्थियों की शिक्षा, निरक्षरता-निवारण,हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में अपूर्व योगदान, साहित्यकारों को पोषण-प्रोत्साहन, पुस्तक-पुस्तिकाओं का प्रणयन, गद्य-शिल्प में अभिनव प्रयोग, विद्यालयों, पुस्तकालयों की स्थापना और उनका संरक्षण-पोषण उनके ऐसे वन्दनीय कार्य हैं, जो उन्हें महात्माओं की पंक्ति में प्रतिष्ठापित करते हैं। उन्होंने अपनी जन्म भूमि राधाऊर में संस्कृत विद्यालय, कर्मभूमि लहेरिया सराय में बालिका उच्च विद्यालय और विद्यापति हाई स्कूल, रामवन (नेपाल) में चंद्रमणि कन्या विद्यालय, कटक (उड़ीसा) में हिन्दी विद्यालय तथा दरभंगा में मिथिला कालेज की स्थापना की, जो अब चंद्रधारी मिथिला कालेज के नाम से जाना जाता है। उन्हें निरक्षरता-निवारण में अतुल्य योगदान के लिए १९३७ में राज्य सरकार (बाबू श्रीकृष्ण सिंह नित अंतरिम सरकार) द्वारा ‘राजेंद्र-स्वर्ण पदक’ से विभूषित किया गया। वे दरभंगा-नरेश समेत अनेक महापुरुषों और सारस्वत संस्थाओं से अभिमंडित हुए। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने १९५९ में उन्हें ‘वयोवृद्ध साहित्यकार सम्मान’ की डेढ़ सहस्र मुद्राओँ से अलंकृत किया। पुरस्कार की संपूर्ण राशि उन्होंने छात्र-छात्राओं की प्रतियोगिताओँ और पुरस्कार हेतु, परिषद को वापस लौटा दिया। यह वह काल था जब १२ ग्राम के स्वर्ण आभूषण ६५ से ७० रूपए में प्राप्त हो जाते थे।
‘मास्टर साहेब’ और ‘बिहारी जी’ लोक-नाम से सर्व-समाज में लोकप्रिय शरण जी ने ११ मई १९७१ को अपनी इहलीला संवरण कर ली। किंतु ८१ वर्ष की अपनी आयु में उन्होंने १८१ वर्ष से अधिक के कार्य कर, समाज का, शिक्षा का, साहित्य का और हिन्दी का अत्यंत दुर्लभ और अतुल्य उदाहरण प्रस्तुत किया। उनका महान व्यक्तित्व और कृतित्व आनेवाली पीढ़ियों को सदियों तक प्रेरणा देता रहेगा। इस विराट यश-काया को अशेष श्रद्धा-तर्पण !