पटना, १३ फरवरी। सभी विद्यानुरागियों को प्रत्येक-वर्ष ‘वसंत-पंचमी’ की पूर्व संध्या को ‘सरस्वती-चतुर्थी’ या ‘विद्या-चतुर्थी के रूप में मनाना चाहिए। उसी भावना के साथ जिस भावना से दीपावली के पूर्व ‘धन त्रयोदशी’ मनाने की परंपरा है। इस दिन भारतीय परिवारों में कुछ न कुछ ‘धन’ क्रय किया जाता है, इस भाव के साथ कि इससे घर में ‘श्री’ अर्थात धन की वृद्धि होगी। इसी आकांक्षा के साथ ‘विद्याचतुर्थी’ के दिन नई पुस्तकों का क्रय किया जाना चाहिए तथा अगले दिन ( वसंत पंचमी को) उसे विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की प्रतिमा अथवा चित्र पर अर्पित कर पूजन करना चाहिए। इस परंपरा से लोगों में पुस्तकों के प्रति सात्विक-राग बढ़ेगा और गृह में ज्ञान-परंपरा और संस्कारों में वृद्धि होगी।यह आग्रह, एक प्रेस-विज्ञप्ति निर्गत कर बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने प्रबुद्धजनों से किया है। उन्होंने युवाओं और विद्यार्थियों से भी आग्रह किया है कि वे सभी उत्साह पूर्वक इस सांस्कृतिक-आंदोलन में अपना अंश-दान करें ताकि पुस्तकों से दूर हो रहे आधुनिक-समाज और विद्यार्थियों को सात्विक-प्रेरणा प्राप्त हो और पुस्तकों से उनका प्रेम बढ़े।डा सुलभ ने कहा कि भारत में वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है कि ‘सरस्वती-पूजा’ के दिन देवी की प्रतिमा पर लेखनी, पुस्तक और पुस्तिकाएँ रख कर,शिशुओं का विद्यारंभ कराया जाता रहा है। आज भी यह परंपरा जीवित है। इसे और व्यापक बनाने तथा ‘विद्या-चतुर्थी’अथवा ‘सरस्वती-चतुर्थी’ के रूप में इसे और विकसित करने की आवश्यकता है। इस विचार को बिहार-प्रांत ही नहीं संपूर्ण भारतवर्ष में विस्तारित किया जाना चाहिए।
कौशलेन्द्र चंद्रशेखर की रिपोर्ट.