कौशलेन्द्र पाराशर की रिपोर्ट / मात्र ४५ वर्ष की आयु में आलोचना-साहित्य के मानदंड स्थापित कर, अपनी मेधा और साहित्यिक-प्रतिभा से देश भर के विद्वानों को चमत्कृत कर देने वाले मनीषी विद्वान आचार्य नलिन विलोचन शर्मा एक ऐसे समालोचक हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से अनेकों साहित्यकारों को अमर कर दिया। उनकी विलक्षण लेखनी से हिन्दी साहित्य में अमर हो जाने वाले साहित्यकारों में महान कथाकार फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ भी सम्मिलित हैं, जिन्हें श्रेष्ठतम आंचलिक-उपन्यासकार’ होने की लोक-उपाधि प्राप्त हुई। यह उपाधि उन्हें नलिन जी की लेखनी से ही प्राप्त हुई, जिन्होंने उनके उपन्यास ‘मैला आँचल’ की समीक्षा करते हुए, उसे हिन्दी का श्रेष्ठतम ‘आंचलिक-उपन्यास’ बताया। सच कहा जाए तो यदि नलिन जी न होते तो संभवतः रेणु जी ‘रेणु’ नही हो पाते। नलिन जी की समालोचना ने रातों-रात रेणु जी को हिन्दी साहित्य में अग्र-पांक्तेय बना दिया, अन्यथा वे भी उन शताधिक प्रतिभाशाली साहित्यकारों की भाँति अलक्षित ही रह जाते, जिन पर नलिन जी जैसे समालोचकों की दृष्टि ही नहीं पड़ी। विद्वता के पर्यायवाची नलिन जी संस्कृत, अंग्रेज़ी और हिन्दी के निष्णात विद्वान, जर्मन और फ़्रेंच के ज्ञाता, अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि वाले परिश्रमी संपादक, श्रद्धास्पद आचार्य और भविष्य में झांकने वाले प्रयोग-धर्मी कवि और कहानीकार थे। हिन्दी कविता में उन्होंने सर्वथा नवीन प्रयोग किया, जिसे प्रपद्य (प्रयोगधर्मी पद्य) वाद या ‘नकेन’वाद भी कहा गया। उन्होंने मात्र ९ वर्ष की आयु में संस्कृत अमरकोश को कंठाग्र कर लिया था, जिस ग्रंथ की सम्यक् समझ रखनेवाला भी कोई व्यक्ति सहज में ही भाषा-विद मनीषियों की पंक्ति में सम्मिलित हो जा सकता है।
अपनी विद्वता, संपादन-कौशल और अद्भुत आलोचन-प्रतिभा से युवाकाल में ही ‘प्रज्ञा-प्रौढ़’ के रूप में साहित्य-समुदाय में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके नलिन जी का जन्म १८ फरवरी, १९१६ को, अपने समय के महान विद्वान महामहोपाध्याय आचार्य रामावतार शर्मा के प्रथम पुत्र के रूप में,पटनासिटी के बदरघाट मुहल्ले में हुआ था। पिताश्री संस्कृत और दर्शन के स्तुत्य मनीषी थे,जिनकी विद्वता और आचार्यत्व की महिमा पटना विश्वविद्यालय और प्रदेश की सीमाओं को लांघ कर संपूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई थी। वही विद्वता और उसकी सुगंध लेकर नलिन जी भी जन्मे, जिनकी विद्वता देश-काल की सीमाओं को भी लांघ गई। पिता की प्रेरणा पाकर उन्होंने मात्र ९ वर्ष की आयु में ही अनेक प्राच्य-ग्रंथों के साथ संस्कृत-अमरकोश’ को कंठाग्र कर लिया था।नलिन जी ने पटना कौलेजिएट स्कूल से प्रवेशिका की परीक्षा उतीर्ण की थी। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक और संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि (१९३८ में) प्राप्त की। वहीं से १९४२ में हिन्दी में भी स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। इसी वर्ष जैन कालेज,आरा में अध्यापन के साथ आचार्यत्व की अपनी इच्छित वृति आरंभ की। यहाँ से स्थानांतरित होकर दो वर्षों के लिए राँची महाविद्यालय में भी सेवाएँ दी। फिर बिहार के बहु-विश्रुत पटना महाविद्यालय आ गए, जहां अगले १४ वर्षों तक ( लोकांतरण तक) यशस्वी अध्यापन किया और इस अवधि में शिक्षा,साहित्य और विद्वता का जो हिमालय सृजित किया, वह आज तक अलंघ्य है।
वर्ष १९४७ में जब भारत सैकड़ों वर्षों की दासता से स्वतंत्र हुआ था, नलिन जी की प्रथम कृति आई थी। ‘दृष्टिकोण’ नामक यह ग्रंथ आलोचना-साहित्य और बौद्धिक-निबंधों का संग्रह है। नलिन जी के इस प्रथम ग्रंथ ने ही उन्हें हिन्दी जगत के शीर्ष के निबंधकारों और आलोचकों में स्थापित कर दिया। इसके पश्चात कथा-संग्रह ‘विष के दांत’ और काव्य-संग्रह ‘नकेन के प्रपद्य’ (१९५६ में) पाठकों के समक्ष आए। इन दोनों हीं संग्रहों ने रचनात्मक साहित्य में प्रयोग-धर्मिता का एक ऐसा प्रक्षेपण किया कि साहित्य-जगत में एक नई हलचल उत्पन्न हो गई। वस्तुतः नलिन जी, जो प्राच्य-साहित्य के तथा नूतन वैश्विक-साहित्य के भी महान अध्येता और अनुशीलक थे, यह मानते थे कि जिस तरह सरिताओं का नियमित प्रवाह जल को जीवंत और स्वच्छ बनाए रखता है, उसी प्रकार साहित्य को प्राणवंत और प्रवहमान बनाए रखने के लिए उसमें निरंतर नवीनता का प्रक्षेपण आवश्यक है। बिहार के तीन मनीषी समकालीन मित्र साहित्यकारों ने इस अभिनव प्रयोग की आधार-शीला रखी, जिसके प्रणेता स्वयं नलिन जी हीं थे। उनके साथ दो अन्य प्रतिभावान साहित्यकार थे प्रो केसरी कुमार और श्री नरेश। इन्हीं तीनों के नामों के प्रथमाक्षरों से यह नवीन प्रपद्यवाद ‘नकेन’ भी कहा गया। नलिन, केसरी और नरेश ! इन कविताओं में अनेकों भाषाओं के शब्द, ध्वनियों और प्रवृतियों का घालमेल कर, विविध रंगों के चित्र खींचने की चेष्टा की गई थी। इन तीनों में प्रथम दो नलिन जी और केसरी जी समालोचना की ओर मुड़ गए और तीसरे श्री नरेश मौलिक रूप से कहानीकार हीं थे। परिणामतः हिन्दी पद्य में प्रयोग का यह ‘प्रपद्य’ या ‘नकेन’वाद उनके साथ हीं इतिश्री को प्राप्त हो गया। किंतु यह भी सच है कि इस प्रयोगधर्मिता ने नई कहानी और नई कविता को एक नूतनता दी और नई दिशा भी, जिसका प्रभाव और जिसकी अनुगूँज हम आज भी देखते और पाते हैं।नलिन जी की विश्रुत कृति ‘साहित्य का इतिहास लेखन’ १९६० में प्रकाशित हुई। इस ग्रंथ ने ऊन्हें समालोचना के सागरमाथा पर प्रतिष्ठापित कर दिया। किन्तु इसके पूर्व हीं वे अपनी विशद स्थापनाओं के कारण एक महान अनुशीलक संपादक के रूप में प्रख्यात हो चुके थे। यह पिछली सदी (२०वीं) का ६ठा दशक था। हिन्दी के महान ध्वजवाहक और साहित्यकार डा लक्ष्मी नारायण सुधांशु जो बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे, उन दिनों बिहार विधान सभा के अध्यक्ष थे। उनकी हीं प्रेरणा और प्रताप से राज्य सरकार ने ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की स्थापना की थी। परिषद का कार्यालय साहित्य सम्मेलन भवन में हीं संचालित हो रहा था। हिन्दी के ऋषि-तुल्य साहित्यकार आचार्य शिवपूजन सहाय परिषद के प्रथम संचालक (मंत्री) नियुक्त किए गए थे। इसके पीछे भी सुधांशु जी ही थे। अपनी हिन्दी-सेवा और संपादन-कौशल के लिए देशभर में ख्याति प्राप्त कर चुके शिवजी सम्मेलन परिसर में हीं सपरिवार रहा करते थे। सुधांशु जी के आग्रह पर उन्होंने सम्मेलन की शोध-त्रैमासिकी ‘साहित्य’ का प्रधान संपादक का दायित्व भी उठा लिया। नलिन जी तब तक सम्मेलन के साहित्यमंत्री हो चुके थे। शिवजी के साथ उन्होंने ‘साहित्य’ का संपादन आरंभ किया। अपनी सामग्रियों, संपादकीय स्थापनाओं और अनुशीलन-उत्कृष्टता के कारण यह पत्रिका भारतवर्ष की अंगुली-गण्य श्रेष्ठ त्रैमासिकी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। इस पत्रिका में स्थान पा जाना ख्याति-नाम हो जाने का प्रमाण था। और यह सब कुछ इन दोनों महान साहित्यिक विभूतियों के पांडित्य का प्रतिफल था। रेणु जी को इसी पत्रिका से प्रसिद्धि मिली।
‘रेणु-प्रकरण’ के संबंध में इसके सूत्र-धार माने जाने वाले अत्यंत मूल्यवान कथाकार श्री राधाकृष्ण प्रसाद जी ने इसकी चर्चा करते हुए, किसी दिन जो कुछ मुझे सुनाया था, उसका सारांश कुछ इस प्रकार है कि, उन दिनों प्रसाद जी आकाशवाणी के पटना केंद्र में कार्यक्रम अधिशासी थे। (बाद में निदेशक भी हुए)। आकाशवाणी के साहित्यिक-प्रसारणों के लिए वे लोकप्रिय साहित्य-सेवियों को आमंत्रित किया करते थे। रेणु जी ने उन्हीं दिनों ‘मैला आँचल’ की एक प्रति उन्हें भेंट की थी। पुस्तक की छपाई अत्यंत साधारण थी और अनेक स्थानों पर अस्पष्ट भी। किंतु जब उन्होंने उसे पढ़ा तो प्रभावित हुए। उन्होंने रेणु जी से धारावाहिक के रूप में उस उपन्यास का आकाशवाणी से पाठ भी करवाया और पुस्तक की एक प्रति नलिन जी को दी। उनसे पढ़ने तथा उस पर कुछ लिखने का भी आग्रह किया। नलिन जी प्रसाद जी का सम्मान करते थे। उनकी इच्छा जानकर न केवल उस पुस्तक को पढ़ा, अपितु ऐसी विद्वतापूर्ण समीक्षा लिखी कि प्रबुद्ध पाठक दुकान-दुकान ‘मैला आँचल’ खोजने लग गए ! धूम मच गई! नलिन जी ने ‘मैला आँचल’ को हिन्दी का ‘सर्वश्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास’ जो बता दिया था। प्रकाशक ने आनन-फ़ानन में हज़ारों प्रतियाँ फिर से छापी। इस बार ख़ूब सजा-धजा कर ! इस तरह रेणु जी विद्युत की गति से प्रसिद्धि के शिखर पर आरूढ़ हो गए। ऐसी अद्भुत आलोचन-क्षमता थी,नलिन जी की ! उन्होंने राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित ‘लोक कथा कोश’, ‘लोक-साहित्य आखर’, ‘लोकगाथा परिचय’, ‘प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण'(तीन खंडों में), ‘सदल मिश्र (खड़ी बोली के प्रथम कथाकार) ग्रंथावली’, ‘हर्ष-चरित्र’ आदि अनेक ग्रंथों का संपादन किया, जिनमे उनकी गहन शोध दृष्टि लक्षित होती है। उनके संपादन में ‘भारत की प्रतिनिधि कहानियाँ'(पुस्तक भण्डार), ‘हिन्दी की उत्तम कहानियाँ'(मोतीलाल बनारसी दास), ‘उपन्यास कथा-कुंज’, ‘रूपक कथा कुंज'( अशोक प्रेस), ‘निबंध-मानस’ (पुस्तक भण्डार) आदि ग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ, जो हिन्दी साहित्य की अनमोल-निधि है। ‘कविता’ नामक पत्रिका का भी उन्होंने अनेक वर्षों तक संपादन किया। वे वह पारस थे कि जिसे छू दिया वह ‘स्वर्ण’ हो गया!
नलिन जी लौकिक काया भी उनकी यशोकाया के समान ही विशाल थी । कोई अपरिचित देख ले तो उसे किसी भारी (किंतु सुदर्शन) ‘पहलवान’ को देखने की सुखानुभूति हो। साइकिल रिक्शा पर उनके साथ कोई दूसरा (कृश-काया हो तो भी) बैठ नहीं सकता था। स्थान ही कहाँ रिक्त रहता था! चालक उनसे चार सवारियों का शुल्क माँगता था और वे हँस कर देते भी थे। एक बार ऐसा हुआ कि वे राँची में अपने घर से सड़क पर पदाति निकल पड़े ।नगर में कहीं कोई फ़साद हो गया था। विधि-व्यवस्था कड़ी कर दी गई थी। सो सड़क पर सन्नाटा था। कुछ देर बाद सामने से एक भारी-भरकम आदमी आता हुआ दिखाई दिया, जो उनको अचम्भे से देखता हुआ पास आ रहा था। निकट आने पर सम्मान के साथ नलिन जी को नमस्कार किया और स्वयं को राँची का पहलवान बताते हुए पूछा – “बड़े भाई भी तो पहलवान हीं हैं, कहाँ के हैं? कभी देखा नहीं?
“पाटलिपुत्र का हूँ”- नलिन जी ने भी उसी ढंग से उत्तर दिया। और आगे बढ़ गए ! कौन मान सकता है कि विद्वता का मूर्तिमान कीर्ति-ध्वज इतना विनोदी भी था !
१२ सितम्बर १९६१ के तीसरे प्रहर में दिन के डेढ़ बजे उनके हृदय की गति सदा के लिए ठहर गई! देश ने एक अत्यंत प्रतिभावान हिन्दी-सेवी को असमय खो दिया था ! यह भी कोई उम्र थी, देह त्यागने की ? ४५ वर्ष ६ महीने! कहने भर के लिए नहीं, अपितु सच्चे अर्थों में यह साहित्य और समाज की बहुत बड़ी क्षति थी। नलिन जी कुछ वर्ष भी और जीते रहते तो हिन्दी भाषा और साहित्य का एक नया इतिहास गढ़ा जाता! उनके लोकांतरण के पश्चात, आलोचना-साहित्य के उनके तीन अन्य ग्रंथ ‘मानदंड’ (१९६३), ‘हिन्दी उपन्यास:विशेषतः प्रेमचंद’ (१९६८), ‘साहित्य: तत्त्व और आलोचना’ (१९९५) तथा ‘नकेन-२’ (१९८१) का भी प्रकाशन हुआ। पर कौन कह सकता है कि वे उसी कौशल से प्रकाशित हो पाए, जैसा नलिन जी चाहते होंग़े.