पटना, ६ मार्च। स्त्री-पुरुष चने की दाल के दो भाग की तरह हैं। एक समान । दोनों जब संयुक्त होते हैं तो सृजन करने में समर्थ होते हैं। पृथक होकर निरर्थक और अस्तित्व-विहीन हो जाते हैं। जिस समाज में स्त्रियों का स्थान ऊँचा होता है, वह समाज प्रगति के शिखर पर आरूढ़ हो जाता है, और जहाँ ऐसा नहीं होता वह समाज निरंतर गिरता जाता है। वैदिक-काल में स्त्रियों का स्थान अत्यंत महनीय और सब प्रकार से आदरणीय था। उन्हें वे सारे अधिकार प्राप्त थे, जो पुरुषों के पास थे। वर का चयन वे स्वयं किया करती थीं। उन्हें भी पुरुषों के समान निर्णय लेने की स्वतंत्रता थी और वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान योगदान भी देती थीं। ज्ञान, विज्ञान , दर्शन और अध्यात्म समेत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी महत्ता स्थापित थी। वैदिक-साहित्य में भी उनका महान योगदान है।एक क्षेत्र ऐसा था, जिसमें पुरुष भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे, वह था ‘जीवन-सृजन’ का। वह ‘जननी’ है। माता है। इसलिए उसका स्थान श्रेष्ठतम है।
यह बातें शनिवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, विदुषी लेखिका डा उषा रानी जायसवाल की पुस्तक ‘वैदिक कालीन विदुषी नारियाँ’ के लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मीलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि मानव-जाति में स्त्रियों का स्थान और महत्व इसलिए भी अधिक है कि वह जननी होने के साथ ही संतति की प्रथम शिक्षिका और संस्कार-वाहिका भी है। इसलिए एक स्त्री का ज्ञानवती और गुणवती होना नितांत आवश्यक है।
पुस्तक का लोकार्पण करते हुए पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि, भारतीय दर्शन और इसके महाविज्ञान में स्त्री-पुरुष को भेद है ही नहीं। लौकिक-दृष्टि से जो भेद है, उसमें नारी अनेक कारणों से पुरुषों से श्रेष्ठ है। पुरुषों ने ही समाज को दूषित किया है। यदि पुरुष पर-स्त्री-गामी न हो तो कोई स्त्री कैसे कुलटा होगी?
पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा ने कहा कि, संपूर्ण भारतीय वांगमय स्त्री-जाति की महिमा गाता है। ‘जहां नारियाँ पूजी जाति हैं, वहाँ देवताओं का वास होता है’, यह कहकर हमारे ऋषियों ने स्त्रियों की वंदना की है।
वरिष्ठ साहित्यकार मुकेश प्रत्यूष ने कहा कि, ऋग्वेद से स्पष्ट होता है कि वैदिक-काल में स्त्रियों को पूरी सवतंत्रता थी। उस काल में समस्त प्रकृति की पूजा होती थी। स्त्री की पूजा भी उसके प्रकृति-स्वरूपा होने के कारान है। हमारे साहित्य में और उसके प्रतीकों में अनेक रहस्य छुपे हुए हैं। हमें इसे समझने के लिए एक विशेष-दृष्टि से विचार करना चाहिए।
अपने कृतज्ञता-ज्ञापन में, पुस्तक की लेखिका डा उषा रानी जायसवाल ने कहा कि, वैदिक-साहित्य में भारत की अनेक ब्रह्म-वादिनी विदुषियों और ऋषिकाओं का महान अवदान रेखांकित किया जाता है। इनमें अपाला, लोपामुद्रा, रोमशा, शाश्वती, इन्द्राणी, अदिति, सूर्या सावित्री,विश्ववारा, शची पौलोमी, सार्पराज्ञी, इंद्रस्नुषा, घोषा, गोधा, उर्वशी, सरमा, मैत्रेयी, गार्गी के नाम सम्मिलित हैं, जिनकी महिमा से प्राच्य-साहित्य भरा पड़ा है।
विदुषी प्राध्यापिका डा रश्मि प्रभा, डा अशोक प्रियदर्शी, कुमार अनुपम, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, अम्बरीश कवि राज कुमार प्रेमी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अतिथियों का स्वागत सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन डा नागेश्वर प्रसाद यादव ने किया। मंच का संचालन सम्मेलन की विदुषी साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी ने किया।
इस अवसर पर कवयित्री संजू शरण, डा आभा रानी, इन्दु उपाध्याय, माधुरी भट्ट, सुरेश चंद्र गुप्ता, जय प्रकाश पुजारी, नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल’, कुमार प्रभात रंजन, नूतन सिन्हा, श्रीकांत व्यास, डा विजय कुमार दिवाकर, डा विजय प्रकाश पाठक, अश्विनी कविराज, डा एच पी सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रवींद्र कुमार सिंह, ऋचा ठाकुर, अमित कुमार सिंह, कुमारी मेनका, इन्दु जायसवाल समेत बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे।