होली के रंग में यों पड़ा भंग !तरुणाई की होली का एक रोचक-रोमांचक संस्मरण !यों तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का जो सबसे आनंदप्रद भाग होता है, वह है बचपन का/ तरुणाई का/ कैशोर्य का। समस्त चिंताओं से मुक्त,जीवन का एक ऐसा अंश, जिसमें सर्वत्र उत्साह और आनंद ही होता है। खट्टे अनुभव भी मीठे सिद्ध होते हैं। दुखद घटनाएँ भी सुख पहुँचाती हैं। वस्तुतः सुख-दुःख की परिभाषाएँ भी इस काल में अलग ही होती है। बालपन के समक्ष, सर्वत्र ही नव कोपल, नव मंजरी, नवल पुष्प और सुगंध से परिपूर्ण पूरा संसार होता है! यह सबके लिए होता है ! पर मेरे लिए यह काल-खंड अत्यंत विशिष्ट रहा। हम गाँव के लोग थे। और पूरे गाँव-समाज से मैंने जो लाड़-प्यार पाया, वह विरले को नसीब होता है। मेरा गाँव – ‘अम्बा ओझा टोला’, उत्तर बिहार के अन्य सभी गाँवों की भाँति ही पुण्य-उर्वरा और मनोहारी नैसर्गिक छटाओं से परिपूर्ण रहा है। किसानों और श्रमिकों का एक भोला-भाला गाँव! ब्राह्मण से लेकर प्रायः सभी समुदायों का एक सुखद नीड़, जिसमें सांप्रदायिक सद्भाव के लिए भी पर्याप्त स्थान था। मुसलमानों की भी संख्या पर्याप्त थी। भारत के पारंपरिक गाँवों की भाँति ही, हमारे गाँव में भी कुछ ही थोड़े से संपन्न किसान थे। कुछ सामान्य किसान और शेष श्रमजीवी। पर आपस में गहरा भाईचारा था। सभी एक दूसरे के सुख-दुःख में भाग लेते थे। सबके बीच, चाहे वह किसी भी जाति-समुदाय का हो, घरों में काम करने वाला श्रमिक-सेवक ही क्यों न हो, ‘बाबा-दाई (दादी)’ , ‘काका-काकी’, ‘भैया-भाभी’ का संबंध था। इन्हीं संबोधनों से वे पुकारे-बुलाए जाते थे। अनेक पीढ़ियों से मेरा परिवार अपने गाँव-जवार में प्रतिष्ठित रहा था, इसलिए हमारे प्रति सबकी श्रद्धा रहती थी। मैं तो सबका चहेता रहा। प्रत्येक घर में मेरा सहज प्रवेश था और मुझ पर सबका एक समान स्नेह रहा। मेरी एक बड़ी मित्र-मंडली थी। यह भी एक कारण था कि मेरा हर घर में स्वागत था। काकिओं और भाभियों का तो निश्चित ही सबका दुलारा। प्रत्येक दिन, गाँव के प्रत्येक घर में जाना और बड़ों का आशीर्वाद लेना यह मेरी दिनचर्या में था। काकियाँ और भाभियाँ जब सिर पर हाथ रखतीं, कभी हृदय से लगातीं, तो मैं एक अवर्चनीय आनंद के गहरे सागर में डूब जाता! उन दिनों की स्मृतियाँ आज भी रोम पुलकित कर देती हैं। मैं किसी दिन, किसी के घर न पहुँचूँ, तो उस घर में चिंता होने लगती थी ! क्या हुआ ? बच्चा आज क्यों नही आया? उत्सवों के दिन के क्या कहने! मेरी तरुण-मण्डली ही उत्सवों के केंद्र में होती थी। होली और छठ-पूजा, ये दो उत्सव ऐसे थे, जिनमे काम की खोज में गाँव से नगर गए लोग भी अवश्य लौटते थे। सामूहिकता और ग्राम्य-सद्भाव के वे देवोपम दृश्य हुआ करते थे। होली के दिन प्रातः से संध्या तक हमारी मंडली कभी बाहर तो कभी घरों में लहराया करती थी। छठ-पूजा के दो दिन पहले से घाटों की तैयारी, सफ़ाई, सजावट आदि में प्रायः सभी युवा लगते, किंतु उसमें भी हमारी मंडली की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती। हम सांस्कृतिक आयोजन भी करते। रात्रि में नाटक खेले जाते। सबका स्वस्थ मनोरंजन किया जाता। अगले दिन घर-घर जाकर लोग प्रसाद खाते। गप्पें लड़ाते।१९७३ में मैं अपने पूज्य चाचा श्री रघुनाथ झा जी के साथ शिक्षा-प्राप्ति के लिए पटना आ गया। चाचा जी शिवहर विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित होकर विधायक बन चुके थे। पटना आ जाने के बाद भी, मेरा जी गाँव में ही लगा रहता। त्योहारों में तो मै किसी भी मूल्य पर ठहर नही सकता था। मेरे पहुँचने पर ही मित्र-मंडली में उत्साह का संचार होता। घरों से संदेशे आने लगते- ‘बऊआ कब आ रहे हैं ?’वर्ष का स्मरण नहीं! संभवतः १९७६-७७ के दिन थे! होली के निकट ! हमारे ननिहाल में (चाचा जी के ससुराल), एक कोई पारिवारिक उत्सव था। संभवतः उपनयन-संस्कार ! इस संस्कारोत्सव के दूसरे दिन होली थी। घर के सारे लोग वहीं गए थे। होली के लिए अगले दिन गाँव आ गए। पर मुझे वहाँ के लोग जाने देना नहीं चाहते थे। सबकी इच्छा थी कि इस होली में मैं उनके साथ रहूँ। पर मैं कहाँ मानने वाला था। होली में मैं अपने गाँव पर न रहूँ ! यह संभव ही न था। इस विषय पर, लड़का ऐसा ज़िद ठानेगा, उन सबने भी नहीं सोचा होगा! सारे मान-मनव्वल असफल होने पर, वे थक-हार कर मुझे घर भेजने पर विवश हुए। किसी आदमी के साथ कर मुझे गाँव भेजा। चलने में देरी हुई थी, सो गाँव पहुँचते-पहुँचते रात हो गई। इस बीच अनेक ग्रामीण-मित्र मेरे विषय में पूछ-पूछ कर लौट चुके थे। अगली सुबह अगजा (होलिका-दहन) के समय सबने मुझे देखा! उसके बाद तो जमकर होली होनी ही थी। ‘होलिका’ की राख से ही आरंभ हो गई होली! लड़के जब दौड़-दौड़ कर थके, तो तय हुआ कि पुरानी प्रथा के अनुसार क्रमश: सबके घर जाएँगे। टोलियाँ बन चुकी थीं। इस टोली में हमारे बड़े भी सम्मिलित थे। निर्धारित योजना के अनुसार, और उनका आग्रह भी था इसलिए भी, हमने, हमारे चचेरे भाई श्री चिरंजीव झा जी के घर से आरंभ किया। भाई जी होली में बहुत स्वादिष्ट ठंढई बनाते थे। बड़े-बड़े ग्लास में परोसते भी थे। पहला पूरा ग्लास मेरे द्वारा एक साँस में गटक जाने के बाद, उन्होंने मेरी ओर देखा! स्वादिष्ट ठंढई का स्वाद अभी तक मेरी जिह्वा पर ताजा था। मेरे मुख-मण्डल पर देख कर वो समझ गए लड़का एक ग्लास और पी सकता है। उन्होंने झटपट दूसरा भी पकड़ा दिया। सुबह-सुबह ख़ाली-पेट होने के कारण, और दौड़ लगाने के कारण प्यास भी लगी थी, दूसरा ग्लास भी अविलंब ख़ाली कर दिया। उनके बाद अगले दो घर ही पहुँचे थे कि सिर में खलबली मचने लगी। मुझे अब ज्ञात हुआ कि ठंढई में भंग पड़ा था। मीठे पूए खा लेने से उसका मद तत्काल चढ़ गया था। मुझे समझते देर नहीं लगी कि घर पहुँचने में देर की तो भारी फ़ज़ीहत होगी। मैंने एक दृष्टि सब पर डाली और तेज़ी से बाहर भाग निकला। “अरे रुको ! ठहरो ! कहा भागे !” — ये आवाज़ें पीछे रह गई ! किंतु मेरी मुसीबत समाप्त नही हुई थी। अपने घर के दरबाज़े से जैसे ही अंदर पहूँचा, सामने आँगन में दादीमाँ बैठी थी। मैं शीघ्रता से अपने कमरे में पहुँच जाना चाहता था कि सो जाऊँ, पर दादी ने रोका- “ठहरो ! कहाँ भाग रहे हो? बैठो !”उन्होंने अपने सामने बिठा लिया। “बैठो ! मांस खाओ !” मांस पका रहे रसोइए से कहा- “थाली भर कर मांस लाकर बऊआ को दो ! देखो तो! कुँवार-वार लड़का ! अभी से मांस-मछली खाना छोड़ दिया है! अभी से साधु बनेगा !” “दीदी ! खाने की इच्छा नही है, मन ठीक नहीं लग रहा है! सोना चाहता हूँ।” मैंने बुझे मन से बचने की चेष्टा की। “बिलकुल नहीं!” – दादी ने मुझे चुप करा दिया। क्षण भर में मेरे सामने पूरा थाल भरा दर्जनों उबले मांस-खंड पड़े थे। भंग के प्रभाव ने मुझे ऐसा कर दिया था कि मैं कुछ भी प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं था। पता नहीं क्यों, संभवतः मेरे घर में प्रायः ही ये पकाए जाते थे, इस से हुई अरुचि के कारण,या फिर किन्ही अज्ञात प्रेरणा से, मैंने विगत तीन वर्षों से मासांहार छोड़ दिया था। पर आज एक अपरिहार्य स्थिति थी। शीघ्रता से मुक्ति मिले, यह विचार कर, बिना एक क्षण गँवाएँ एक-एक कर मांस-खंडों को उदरस्त करना आरंभ किया। कुछ ही देर में थाली ख़ाली हो गई। अब दादीमाँ के चेहरे पर तोष की मुस्कान थी।!मैं जैसे-तैसे मुँह धोया और विछावन पर जा गिरा! यह जीवन का एक अद्भुत अनुभव था। आँखे बंद करते ही, लगता था कि मस्तिष्क फट जाएगा। पूरा मस्तिष्क विद्युत-ट्रांसफ़रमर जैसा अनुभव करा रहा था। आँखें खुलती तो लगता कि जैसे अंगारे निकल रहे हों। अगला कुछ समय एक विचित्र सी पीड़ा और अनुभूति का था। मेरे मुख से कराह की ध्वनि निकल रही थी। माँ के कानों तक मेरी आवाज़ पहुँची हो संभवतः, वो मेरे पास आइँ। मेरी स्थिति देख कर घबड़ाईं! किंतु अपने पर संयम रखकर उन्होंने मुझे पानी पिलाया। पानी पीते ही मुझे उबकाई आयी और मैं जो कुछ खाया-पीया था सब उलट दिया!इससे मुझे अद्भुत लाभ हुआ। तत्क्षण ही वह भयावह पीड़ा समाप्त हो गई। पर एक अपूर्व थकान और मुर्च्छे जैसी अवस्था दिन भर बनी रही। मैं पूरे दिन विस्तर पर लेटा रहा। इस बीच मेरे दरबाज़े पर सैकड़ों लोग आते रहे , खाते और जाते रहे। रंगो-गुलाल के दौर के दौर चले। पिताजी पुण्य-श्लोक बैद्यनाथ झा, सुबह से ही लोगों की शुभकानाएँ स्वीकार करते हुए उन सबका यथोचित सत्कार कर रहे थे। चाचा जी भी, अपने क्षेत्र में घूमते हुए घर आए। उनके साथ पूरा एक हुजूम ही था। होली गाने वाले भी आए। दर्जनों होली गीत गाए-सुनाए ! पर मैं, जो इन सब में सदा आगे रहा करता था, अपने बिस्तर पर पड़ा था। मेरी इस वर्ष की होली ख़राब हो गई थी। मेरे विषय में पूछने वाले हर एक को एक ही उत्तर दिया जाता था- “तबीयत ख़राब हो गई है ! अभी सो रहा है !”होली-गाने वालों की एक पंक्ति स्पष्ट सुनाई दी थी- “नकबेसर कागा ले भागा ! सैंया अभागा ना जागा”! यह होली का एक अत्यंत मधुर छायावादी ऋंगार-गीत है! तब इसका अर्थ नहीं जानता था ! पर यह अर्थ अवश्य लगाया कि हमारे मीत, पूरे गाँव की हमारी पीयूष-दायिनी भाभियाँ, गाँव के सभी बड़े मुझे स्मरण किए होंग़े, सबने सबका स्नेह प्राप्त किया होगा! मेरे हिस्से का स्नेह भी लेकर कोई कागा उड़ गया होगा ! और मैं सोया रह गया!अगली सुबह चाचा जी को पटना के लिए शीघ्र निकलना था। रात भर के विश्राम के बाद मै अब इतना समर्थ तो हो ही चला था कि निकल सकूँ। शीघ्रता से तैयार होकर, सबसे मुँह छुपाए मैं चुपके से जीप में जा बैठा। गाड़ी में बैठते हुए चाचा जी ने पूछा – “अब कैसे हो ?” सिर नीचे झुकाए एक मद्धिम स्वर में मैंने कहा- “ठीक हूँ!” कुछ देर तक उनकी सुनता रहा- “ इतना भी खाने कि क्या आवश्यकता थी कि तबीयत ख़राब हो जाए! त्योहार का रंग फीका पैड जाए !’ आदि-आदि । गाड़ी तेज़ी से पटना की ओर भागी जा रही थी! और मैं दुखी था। ज़िद कर घर आया था- होली के लिए! सबसे मिलने के लिए ! पर हाय!होली गँवाएँ वापस लौट रहा था। रस्ते में ही, रेणु जी (प्रख्यात कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु, यह वर्ष जिनका जन्म-शती है) की कथा ‘तीसरी क़सम’ के नायक की भाँति मैंने भी तीन क़समें खायीं! पहली – ‘जीवन में कभी भांग नहीं खाऊँगा’। दूसरी – “होली या किसी उत्सव के अवसर पर कोई भी नशा कभी भी नहीं!’ और तीसरी- “बिना जाने-समझे, मुख में कुछ भी नहीं डालूँगा, भले ही वह कितना भी सुंदर-स्वादिष्ट क्यों न हो !”इस घटना के चार दशक से भी अधिक हो गए। संसार कितना बदल गया! वह पूरी पीढ़ी विदा हो गई! मेरी किशोर-कथा के कुछ ही पात्र बचे हैं! हां! आज भी उन सबका स्नेह-आशीष बना हुआ है। मिलना बहुत कम हो गया। पर जो क़सम खाई थी, आज भी निभा रहा हूँ।