महानिर्वाण- दिवस ( २४ अप्रैल ) पर विशेष युगावतार थे महात्मा सुशील,’इस्सयोग’ के रूप में संसार को दी अमोघ शक्ति.संपूर्ण मानव जाति को त्रितापों से त्राण दिलाने हेतु, ‘इस्सयोग’ के रूप में एक दिव्य और चमत्कारिक शक्ति और औषधि देने वाले इस युग के अवतारी महात्मा इस धरा पर अवतरित हुए, लीला-संवरण भी कर लिया और दुनिया देखती रह गई। वे थे अद्वितीय आध्यात्मिक साधना-पद्धति ‘इस्सयोग’ के प्रवर्त्तक और अन्तर्राष्ट्रीय इस्सयोग समाज के संस्थापक, ब्रहमलीन सदगुरुदेव महात्मा सुशील कुमार, जिन्होंने उपरोक्त त्वरित फलदाई और विलक्षण, किंतु सरल साधना पद्धति के माध्यम से, ब्रह्म-प्राप्ति और रोग मुक्ति का महान मार्ग प्रशस्त किया। जिन्होंने वर्षों पूर्व ही कहा था कि वे दिन दूर नहीं, जब मानव जाति पर घोर आपदा आएगी। बड़ी जन-हानि होगी। किंतु पवित्र मन वाले साधुजन एवं निष्ठावान इस्सयोगी इस घनघोर आपदा से भी अवश्य बचेंगे।
इस युग के इस विलक्षण संत का जन्म बिहार प्रांत के भोजपुर ज़िला निवासी ब्रहमलीन महापुरुष श्रीयुत श्रीशचंद्र शास्त्री एवं पुण्यश्लोक़ा कर्पूर कमला के एक मात्र पुत्र के रूप में १३ जुलाई १९३८ को हुआ था। इन्होंने १९६१ में बी एस सी इंजीनियरिंग (सिविल) तथा १९७१ में ‘बैचलर औफ़ लौ’ की उपाधि प्राप्त की। आप बिहार सरकार के पथ निर्माण विभाग में विभागाध्यक्ष के पद से १९९८ में सेवा निवृत हुए। सर्वोतकृष्ट कार्यों एवं उपलब्धियों के लिए, आपको ‘इंदिरा गाँधी प्रिय दर्शिनी सम्मान १९९७’ से विभूषित भी किया गया था।
महात्मा जी को अध्यात्म विरासत में मिला था। उनके पिता प्रातः स्मरणीय शास्त्री जी चारों वेदों के ज्ञाता और भाष्य-कार थे। वे कठोर कर्म-कांडी और सपत्नी पक्के आर्य समाजी थे। आर्य समाज के आचार्य के रूप में, उनकी समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी तथा वे भारत सरकार की ओर से विदेशों में ( थाईलैंड, श्रीलंका आदि देशों में ) संस्कृत एवं वेदों की शिक्षा देने हेतु सादर भेजे जाते थे।
शास्त्री जी ने गर्भाधान से लेकर महात्मा जी के आगे के सभी संस्कार वेदोक्त विधि से कराए थे। उनकी माता पूजनीयाँ कर्पूर कमला जी, सामाजिक सरोकारों से जुड़ीं विदुषी और तेजस्वीनी महिला थीं। अस्तु बाल्य काल से हीं, महात्मा जी में आध्यात्मिक संस्कार पड़ने लगे थे। शिशु पर वैदिक संस्कार पड़े, इस हेतु, पिताश्री किंचित लोभ देकर गायत्री मंत्र आदि रटाते थे। शास्त्री जी ने उन्हें कह रखा था कि, जब’गायत्री-मंत्र’ का पाठ किया जाता है, तो सभी इच्छित फल प्राप्त होते हैं। उन्हें किसी वस्तु की इच्छा होती थी तो उनसे यह कहा जाता था कि, “आँखों को बंद कर ‘गायत्री मंत्र’ का जप करो, तुम्हें वह अवश्य प्राप्त होगा।” महात्मा जी तदनुसार करते थे, फिर उनके हाथों में वह वस्तु पड़ी मिलती। ( इच्छित वस्तु पिताश्री तैयार रखा करते थे।)।
वयस्क होने पर महात्मा जी में स्वतंत्र विचार आने लगे तथा उनका आध्यात्मिक- चिंतन बदलने और परिष्कृत होने लगा। वय और अनुभूतियों के बढ़ने के साथ-साथ , ‘परम-तत्त्व’ की खोज की अभिलाषा उत्कंठा बनती गयी और उन्होंने जीवन के कर्मों का निबटारा करते हुए ‘सत्य की खोज’ जारी रखी।
जैसा कि पूर्व में निवेदन किया जा चुका है कि, महात्मा जी ने सिविल अभियंत्रण में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी, सो अपनी लौकिक वृति १९६३ में बिहार सरकार के लोक निर्माण विभाग में अवर प्रमंडल पदाधिकारी के पद से प्रारम्भ की। १९६३ से ६५ तक वे बिहार शरीफ़ में रहे तथा १९६६ से ६९ तक राँची में । तब बिहार का विभाजन नही हुआ था। पटना-हाजीपुर को जोड़ने के लिए बनाए जा रहे गंगा सेतु (महात्मा गाँधी सेतु) के निर्माण में उन्होंने निर्माता-कंपनी ‘गैमन इंडिया’ के साथ अपना विशेष योगदान १९७०-७१ में दिया था। वर्ष १९७२ से ७४ तक बोकारो में एच एस सी एल में ज़ोनल इंजीनियर के पद पर उन्होंने कार्य किया और इस काल का उल्लेखनीय पक्ष यह था कि आप हीं के नेतृत्व में अत्यंत महत्वाकांक्षी ‘कोल्ड रोलिंग मिल की कमीशनीग’ संपन्न हुई थी। इसके बाद से, १९७९ तक आपने राजधानी (पटना) के विभिन्न कार्य-प्रक्षेत्रों में, अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। इसके बाद आपको, आपके कुशल प्रशासनिक और प्रभावकारी व्यक्तित्व के महत्त्व को रेखांकित करते हुए आपको नक्सल प्रभावित उन क्षेत्रों में विशेष कार्यों के लिए भेजा गया, जहाँ से दूसरे अधिकारी और विशेषज्ञ परहेज़ रखना चाहते थे। लेकिन आप भला किससे भय रखते! आपने सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर अपने कर्तव्य पूरे किए तथा इस दौरान अनेक स्थानों पर हरिजन-छात्रावास एवं शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण सहित विभिन्न विकास कार्यों को पूरा किया। १९९८ में अपने विभाग के अध्यक्ष पद से सेवा निवृत होने से पहले आपने पटना क्षेत्रीय प्राधिकार के ट्रिब्यूनल में अपनी सेवाएँ दी। पटना में अतिक्रमण हटाने हेतु न्यायिक फ़ैसले लेने के लिए दो माननीय न्यायाधीशों के साथ आपकी अभियुक्ति और अनुशंसा महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। पटना के सौंदर्यीकरण के लिए भी आपके प्रयास सराहनीय रहे।
उपरोक्त कुछ संदर्भ इस आशय के लिए, लिए गए कि, यह प्रमाणित हो कि महात्मा जी, जो कहते थे, वह अपने जीवन में पालन भी करते थे। उन्होंने संसार को पूरा जिया, और वहीं पूरी तरह विरक्त भी रहे। आध्यात्मिक धारा में बहते हुए भी, संसार छोड़ने की बात कभी नहीं की। वे कहा करते थे कि, सत्य की खोज और तत्त्व-ज्ञान के लिए संसार को छोड़ना अनावश्यक है। सच्चा मार्ग और सच्चा गुरु पाकर गृहस्थ जीवन में हीं आध्यात्मिक उपलब्धियाँ पायी जा सकती है। गृहस्थ-आश्रम साधना का श्रेष्ठ आश्रम है।
इसी तरह उन्होंने, समय आने पर विवाह भी किया। वर्ष १९६३ के १८ मई को जब आपका विवाह संपन्न हुआ, उस समय आपकी नव-परिणीता आदरणीया विजया जी ( माँ विजया जी) अभी-अभी इंटर की परीक्षा दी थीं। भविष्य में दिव्य शक्तियों के स्वामी होने वाले सुंदर, सफल और योग्य पुरुष के लिए, निश्चय हीं, सुयोग्य कन्या होनी चाहिए। कहते हैं- जोड़ियाँ ऊपर बनायी जाती है। औरों के बारे में तो नहीं कह सकते, किंतु आपकी जोड़ी ‘शिव-पार्वती’ की जोड़ी सिद्ध हुई। माताजी बाल्य-काल से हीं आध्यात्मिक रुझान रखती थी। अस्तु दोनों के संगम की पृष्ठ-भूमि पहले से तैयार थी। सो नैसर्गिक रूप से दोनों ही अध्यात्म के पथ पर भी साथ-साथ बढ़े। ईश्वर के प्रति उनकी विपुल भक्ति ने निश्चय हीं प्रभु को अपनी ओर खींचा था। उन्हें बाल्य-काल से हीं अलौकिक अनुभूतियाँ होती थी।
साधना के मार्ग में एक पथ-प्रदर्शक की आवश्यकता पड़ती है। एक महात्मा ने दोनों को दीक्षा भी दी तथा साधना का मार्ग बी बताया। किंतु कुछ हीं कालों में आपने यह अनुभव किया कि, यदा-कदा गुरु रूप में कोई ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व आता है, और आप दोनों को अलौकिक स्थितियों में ले जाता है, जैसा कि, आपके लौकिक-गुरु नहीं कर सकते थे। बाद में आपने अनुभूत किया कि, लौकिक गुरु के रूप में स्वयं सद्ग़ुरु भगवान शंकर आकर साधना का मार्ग प्रशस्त करते चलते थे। कालांतर में, भगवान शिव स्वयं प्रकट होने लगे और आपने अध्यात्म की वह ऊँचाई पायी, जिसके लिए युगों-युगों तक, जनमों-जनम तक प्राणी भटकता फिरता है।
महात्मा जी तथा माताजी ने केवल स्वयं हीं उस परम तत्त्व को नहीं प्राप्त किया, बल्कि उन्होंने जिज्ञासु पात्रों एवं जन-साधारण को भी प्रभु से सीधे जुड़ने का, ‘इस्सयोग’ के रूप में एक महान और सरल मार्ग प्रशस्त किया। इस साधना-पद्धति का आश्रय लेकर सामान्य साधक भी, सहज में हीं वह सहजावस्था प्राप्त करने लगता है, जिसके लिए बड़े-बड़े संत अपना जीवन खपाते रहे हैं। अपनी शक्तियों से ‘शक्तिपात-दीक्षा’ (कुंडिलिनी-जागरण) देने के साथ-साथ वे साधक-साधिकाओं को साधना की एक ऐसी सहज प्रक्रिया बताते थे, जो घर बैठे गृहस्थ स्त्री-पुरुषों द्वारा किया जा सकता है। महात्मा जी ‘इस्सायोग’ को ‘ न भूतों न भविषयति आध्यात्मिक क्रांति’ कहा करते थे।
वर्ष २००२ के २३-२४ अप्रैल की मध्य-रात्रि में महात्मा जी ने अपने लौकिक-देह का त्याग किया। इसके एक-दो वर्ष पूर्व से हीं वे अपने महाप्रयाण के संकेत देने शुरू कर दिए थे। वे गुरुधाम ( बी-१०८, कंकड़बाग हाउसिंग कौलोनी , पटना) में प्रत्येक संध्या २-३ घंटा समय साधक-साधिकाओं को देते थे। संध्या ६ बजे से भजन-कीर्तन, फिर पौने आठ बजे से, जगत-कल्याण हेतु, ‘ब्रह्मांड-साधना’ और उसके पश्चात आशीर्वचन, यह प्रतिदिन का नियम था। माताजी के साथ महात्मा जी आसान पर विराजते थे तथा साधक-गण की समस्याएँ सुनते और निराकरण करते थे। प्रायः हीं कुछ न कुछ नए लोग, भाँति-भाँति की समस्या लेकर आते और निदान पाते। महात्माजी सबके कष्ट हरा करते थे। अपने महाप्रयाण के कुछ दिन पहले से वे यह कहने लगे थे कि, -” अब आप में से ( साधक-साधिकाओं में से) अनेक उस उच्चावस्था को प्राप्त कर चुके हैं , जिसके आगे की यात्रा के लिए आप समर्थ हैं तथा कालांतर में आप में से अनेक ‘इस्सयोग’ को आगे बढ़ाने का कार्य करेंगे, जिससे ‘ईश्वर से सीधा संपर्क’ का यह मार्ग आगे भी मानव-समुदाय को मिलता रहेगा”।
अंततः २३-२४ अप्रैल की मध्य-रात्रि में आपने मुद्रा लगाकर समाधि ले ली तथा अपने सभी प्राणों ( पाँच प्रकार के प्राण माने जाते है) को खींच कर कुटस्थ होते हुए, सहस्रार के मार्ग से ‘पर-बिंदु’ का भेदन करते हुए, ब्रह्म लीन हो गए। अपना पार्थिव-शरीर त्याग दिया। इस्सयोग के साधक यह मानते है कि, महात्मा जी ने पार्थिव-देह का त्याग कर, सूक्ष्म रूप से निखिल ब्रह्मांड में व्याप्त हो गए हैं तथा अपने साधक-साधिकाओं के साथ, सूक्ष्म रूप में सदैव बने रहते हैं। उनका यह भी मानना है कि, वे सूक्ष्म रूप से माताजी में (माँ विजया जी के तन में) उपस्थित रहते हैं तथा उनके माध्यम से आज भी जगत का कल्याण कर रहे हैं।