कौशलेन्द्र पाराशर, मैनेजिंग एडिटर / देश में पत्रकारिता को चौथा स्तम्भ कहा जाता हैं. लेकिन कोरोना से एक अलग संघर्ष और घर पर अपने जीवन यापन से एक अलग प्रकार का संघर्ष करना पड़ रहा है / कई पत्रकारों को हमने अपने स्तर पर मदद की /केंद्र सरकार और अन्य राज्यों के सरकार को मदद करने की जरूरत है .बिहार की राजधानी पटना के कुछेक बड़े अखबारों व कुछ राष्ट्रीय चैनलों के बात छोड़ दे तो अधिकांश मीडिया हाउसों की अर्थव्यवस्था भी कोरोना के कारण उत्पन्न हालात ने बिगाड़ कर रख दिया है विज्ञापन बंद है इस कारण से आय भी बंद है इनमें कार्यरत अधिकांश पत्रकार दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की तरह जिनके सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है बावजूद इसके पूरी कर्मठता के साथ अपने काम में लगे हुए है. कई ऐसे मीडिया हाउस है जहां पत्रकारों को दो-दो तीन-तीन महीने पर वेतन मिलता है ऐसी स्थिति में उनके समक्ष भी कठीन समस्या है.वेब पोर्टल व यूट्यूब चैनल चलाने वालों के समक्ष भी अब आय का कोई विकल्प नहीं बचा है. जिला अनुमंडल और प्रखंड मुख्यालय में काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति तो और भी बदतर है. बिहार में पत्रकारों के यूनियन भी गुटबाजी के शिकार हैं किसी भी संगठन के पास अपना कोई ऐसा फंड नहीं कि जो इस संकटकाल में जरूरतमंदों की सहायता कर सकें. राजधानी पटना में अधिकांश पत्रकारों के अपने मकान नहीं है.वे किराए के मकान मे रहते है पटना के मकान मालिको का रवैया किसी से छुपा नही.जिनके बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं उनका फीस देना है लॉक डाउन लंबा खींच जाने के कारण उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचा है . राज्य के 38 जिला मुख्यालयों और अनुमंडल मुख्यालय में पत्रकारिता करने वाले ऐसे हजारों पत्रकार भी संकट काल का सामना कर रहे हैं .ऐसे में राज्य सरकार को इनके लिए भी पहल करनी चाहिए केवल चुनिंदा पत्रकारो को सुरक्षा योजना और पेंशन योजना देने से भला नहीं हो सकता. संकट काल में सरकारी पहल आवश्यक है जो फिलहाल दूर-दूर तक कोई संभव नजर नहीं आ रहा.