कौशलेन्द्र पाराशर की रिपोर्ट वरिष्ठ पत्रकार निलांशु रंजन के फेसबुक वॉल से =क्या हमें शर्म नहीं आती? क्या हम इतने बेशर्म हो गए हैं कि हम अपनी हदें भूल जाते हैं और बेहूदगी व बदतमीज़ी की सारी सीमाएँ लांघ जाते हैं? जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ अगरतला (त्रिपुरा) के उस बिगड़ैल व बदमिज़ाज डी एम की जिसने अपने पावर की हनक में वो कर डाला जो कल्पनातीत है. उस बिगड़ैल व असभ्य डी एम ने एक शादी समारोह में वो तांडव मचाया जिसे देखकर ग़ुस्सा तो आता ही है, साथ ही शर्म भी आती कि क्या हमारे देश के शासन की डोर ऐसे ही पावर के नशे में चूर बिगड़ैल नौकरशाहों के ज़रिए चलेगा? थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि वर-वधू के घरवालों ने नाइट कर्फ़्यू या किसी कोविड प्रोटोकॉल के नियम का उल्लंघन किया तो ये तरीक़ा तो नाक़ाबिले बर्दाश्त है. उसे भी कहने का एक तरीक़ा है, एक लहजा है. क्या मर्द, क्या औरत- सबको बेइज़्ज़त व गाली- गलौज करते हुए गिरफ़्तार करने की धमकी देते हुए वह बिगड़ैल डीएम दुल्हे की गर्दन पे हाथ देकर उसे बाहर कर देता है, पंडित को थप्पड़ जड़ता है और खाने की मेज़ पर से खाते हुए लोगों को उठाकर बाहर कर देता है. सबको गिरफ़्तार करने की धमकी देता है, मानो पूरे देश का यही राजा हो और सब इसकी जी हुज़ूरी करने वाले रिआया हैं. अगर सीधे-सीधे कहें तो यह डीएम एक गुंडे की तरह पेश आ रहा था.अगर उस डीएम का मंशा सही भी था, तो तरीक़ा बैइन्तहाई शर्मनाक था. क्या इस देश में आम जनता की कोई डिग्निटी नहीं…. कोई प्रतिष्ठा नहीं? जब एक महिला ने आदेश पत्र दिखलाया तो उसके मुंह पर ही काग़ज़ को फाड़कर फैंक दिया बिगड़ैल डीएम ने. अब दुल्हन के भाई का कहना है कि डी एम ने ही आदेश दिया था दो सौ आदमी का और रात साढ़े ग्यारह बजे तक का समय नियत किया था. डीएम का कहना है कि आदेश दस बजे तक का ही था. ख़ैर, ये तो जांच का विषय है. लेकिन जिस तरह उसने गुंडागर्दी की, जी, मैं गुंडागर्दी कह रहा हूँ, उसे किसी भी तरह से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. कहा जा रहा है, उसे संस्पेंड कर दिया गया है. लेकिन मैं समझता हूँ उसका डिसमिसल होना चाहिए. आप तसव्वुर कीजिये कि वर-वधू के दिल पे क्या गुज़री होगी, उनके माँ- बाप पे क्या गुज़री होगी. ज़िन्दगी भर के लिए उनके ज़हन पे ये बदनुमा दाग़ रह जाएगा. लोग बड़े शौक से करते हैं अपने बच्चों की शादी और उसको तुमने मातम में बदल दिया.
यही जब किसी राजनेता के यहाँ होता है तो इन नौकरशाहों की पैंट ढीली हो जाती है. वहाँ उनके सारे क़ानून हवा हो जाते हैं.
और एक बात जान लीजिए, अगर अदालत न हो तो ये नौकरशाह तानाशाह हो जाएंगे. इनकी यही फ़ितरत है. तो क्या माना जाए कि हमारे सिस्टम में अभी भी इन नौकरशाहों को यह प्रशिक्षण देने की ज़रूरत रह गई है क्या की वे जनता के नौकर हैं, जनता उनके नौकर नहीं. हाँ, आप इग्ज़ीक्यूटिव के हिस्सा हैं और उसे ज़िम्मेदारी से निभाना आपको आना चाहिए.