कोरोना की विपदा और मानव की अंतःशक्ति !मानव- सभ्यता ने अपने उद्भव से विकास के अनंत क्रम में न जाने कितने झंझावात, कितने संघर्ष देखें और न जाने क्या-क्या झेले और कितने वलिदान दिए हैं! लाखों वर्षों के इस अंतहीन जीवन-संघर्ष की महान यात्रा की साक्षी रही भारतीय-सभ्यता की विशेषता उसकी वही आध्यात्मिक दृष्टि और चिंतन है, जिसने द्विपदी इस प्राणी को मूल्यवान और समस्त जीवों में श्रेष्ठ बनाया और लाखों वर्षों की आयु प्रदान की है। संसार की अनेक मानव-सभ्यताएँ उत्कर्ष तक पहुँची और समाप्त भी हो गई, किंतु भारत की द्युतिमान सभ्यता अपने आंतरिक बल के कारण कोटिशः वज्राघात सह कर भी कभी नष्ट नहीं हुई। संसार भर के मनीषी इतिहासकार यह मानते हैं कि भारत की विशाल और विराट सांस्कृतिक-चेतना में एक ऐसा विलक्षण तत्त्व है, जो उसे मिटने नहीं देती। क्योंकि वह शाश्वत है, चिरंतन है, अविनाशी है! तभी तो ऊर्दू का महान शायर अलम्मा इक़बाल यह कहता है कि – “कुछ तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी/ सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जहां हमारा।”हर युग में भारत के महान उत्कर्ष से इर्शित शक्तियाँ भारत को नष्ट करने की चेष्टाएँ करती रही हैं, किंतु उनसे भारत ने न केवल स्वयं की रक्षा की, बल्कि विश्व-मानवता की भी रक्षा की और उसे नव-जीवन प्रदान किया तथा कल्याण के मार्ग पर अग्रसर किया। जब-जब मानव-जीवन पर आपदाएँ आयीं, हम अपनी उन्हीं शक्तियों से उससे लड़े और सभी संत्रासों पर विजय प्राप्त की। महान क्षति उठाकर भी हम, पुनः पुनः अपनी शक्तियों को समेट कर जीवन को प्राण देने के लिए आगे बढ़े। मानव-सभ्यता को बचाने के लिए जितने वलिदान हमने दिए उसकी गिनती कभी पूरी नही हो सकती। इसीलिए समग्र विश्व, वैश्विक-आपदा के हर क्षण में भारत की ओर निहारता है। क्योंकि सारा विश्व, और कुछ जाने न जाने, यह अवश्य जानता है कि पीड़ित मानवता की रक्षा, सदैव भारत ने की है, और आगे भी यही करेगा। हमारे पूर्वजों ने हज़ारों वर्ष पूर्व यह जान लिया था कि निखिल ब्रह्माण्ड निरंतर गतिमान, स्पंदित और अपनी इस जीवंत सक्रियता में जीवन का नित-नूतन संगीत रचता रहता है। उस चिरंतन संगीत (ओमकार) का श्रवण, सबसे पहले भारत के ऋषियों ने ही, अपनी समाधि की उच्चावस्था में किया था । और यह भी अनुभव किया था कि इस ब्रह्माण्डीय-संगीत से जुड़कर हम अपनी समस्त आंतरिक चेतना को उससे संबद्ध कर सकते हैं। और इस प्रकार उसकी अद्भुत ऊर्जा का हिस्सा हो सकते हैं। चेतना के उसी एकत्व के लिए, हमारे उन महान ऋषियों ने हमारे लिए कुछ ऐसे मार्ग बनाए, जिन पर चलकर हम जीवन की वह श्रेष्ठतम उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं, जिस बिंदु पर हम सभी प्रकार से भय से मुक्त स्वयं को एक परा चेतना के संरक्षण में पाते हैं। यह वह स्थान भी है, जहां कोई आपदा नहीं पहुँच सकती। हमारे ऋषि-पूर्वजों ने हमें लौकिक जीवन को भी रोग और चिंताओं से मुक्ति के अनेक मार्ग और उपाय बताए। हम उन पर चले और अपने जीवन को मूल्यवान, कल्याणकारी और सार्थक बनाते रहे। उपलब्धियों से संतुष्ट हम आनंद में विचरते रहे। हमने जब-जब उन मार्गों को छोड़ा,स्वार्थ की आँधी में बहकर अकार्य करने लगे, हम विपत्तियों में पड़े। हम सदा उच्च विचार और सादा जीवन के पक्षधर थे। हममें एक नैसर्गिक और सरल अनुशासन था, क्योंकि वह हमारे व्यवहार का हिस्सा था। किसी थोपे हुए क़ानून की तरह नहीं, अपितु श्रद्धा के साथ हमने प्राकृतिक रूप में उसे स्वीकार किया था। आचार-व्यवहार और चिंतन में समाविष्ट हो जाने के कारण वे हम से पृथक ही नहीं हुए। किंतु जब-जब हमने अपने इस नैसर्गिक चरित्र का त्याग किया, हम न केवल चरित्र-च्युत हुए, अपितु पथ-च्युत भी हो गए। इस अवस्था में फिर हम उस ‘अच्युत’ से कैसे एकत्व रख सकते थे। परिणाम हमने भोगे।विश्व-समुदाय एक बार पुनः पथ-च्युत की अवस्था में है। इसीलिए अनेक संत्रासों में जी रहा है। हमने प्रकृति की पूर्व चेतावनियों को नज़र अंदाज़ किया। ‘कोविड-१९’ नामक यह आपदा, उसी का दुष्परिणाम है, जिसमें हम अपने परम आराध्य सदगुरुदेव की उस भविष्यवाणी को भी देख सकते हैं, जो उन्होंने अपने लौकिक जीवन के अंतिम वर्ष में की थी। उन्होंने कहा था कि वह दिन बहुत दूर नहीं, जब संसार प्रलय की ओर बढ़ेगा। किंतु अंत में उन्होंने यह भी कहा था कि महाविनाश के उस काल में भी सदा की भाँति सच्चे और अच्छे लोग, इस्सयोग की साधना कर रहे लोग, अवश्य ही बचेंगे, जो मानव-जीवन की रक्षा करेंगे। कोरोना के इस वैश्विक आपदा के काल पर भी विचार करने पर, यह लक्षित होता है कि इस आपदा से काल के मुँह में वो लोग अधिक संख्या में समाए, जो भारतीयता संस्कृति और परंपरा से दूर होकर विलासी जीवन जी रहे थे। अमेरिका और यूरोप के राष्ट्रों में मानव-धन की सबसे अधिक क्षति पहुँची। वहीं, संक्रमण की दृष्टि से उच्चतम स्थित तक पहुँच जाने के पश्चात भी भारत में मानव-धन की वह क्षति नहीं पहुँची। कोरोना-संक्रमण से हुई मृतकों की सूची में इस्सयोगियों के नाम नगण्य हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि हमें एक बार पुनः भारत की प्राचीन संस्कृति को आचरण में उतारने और ‘इस्सयोग’ की क्रिया-पद्धति से आत्मीयता के साथ श्रद्धाभाव से जुड़ने की अपरिहार्यता है। इस आपदा ने हमें चेतावनी देकर हमें अपनी स्मृति से जोड़ने की चेष्टा की है। इस संकेत को जो समझ लेगा स्वयं और समाज को बचा लेगा। ध्यान रहे कि इस संकेत में आत्मानुशासन की ओर विशेष आग्रह लक्षित है। हम श्रद्धापूर्वक विश्वास के महान पथ पर चलते हुए, स्वयं को अनुशासित कर इस आपदा पर, तथा आने वाली समस्त आपदाओं पर विजय प्राप्त करेंगे। अवश्य ही!