कौशलेंद्र पराशर और रजनीश कुमार के वॉल से खबर /पिछले 6 दिनों से लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, लखनऊ डीएम से गुहार लगाता एक पत्रकार बेटा . उत्तर प्रदेश शासन के चिकित्सा विभाग के सेवानिवृत्त डॉक्टर चंद्रशेखर निगम 6 दिनों से अपने जीवन से लड़ रहे हैं . किसी प्रकार के सरकारी मदद नहीं मिल रही है . लेकिन देश का सूचना प्रसारण विभाग सिर्फ चेहरा चमकाने में लगा हुआ है , झूठी दवा के सहारे देश को चलाने की कोशिश की जा रही है .अखबारों और न्यूज चैनलों की हेडलाइन्स मैनेज करके वे जनमत को भ्रमित कर सकते हैं, आंकड़ों की बाजीगरी दिखा कर विकास और रोजगार की भ्रामक तस्वीरें दीवारों पर चस्पां कर सकते हैं, आईटी सेल को सक्रिय कर माहौल में धुंध पैदा कर सकते हैं…लेकिन किसी महामारी से मुकाबले के लिये ऐसे टोटके किसी काम के नहीं जिनमें उन्हें महारत हासिल है।यही कारण है कि इसी साल जनवरी-फरवरी में जब वे और उनके चेले देश-दुनिया में यह प्रचारित करने में मगन थे कि “उनके कुशल और प्रेरक नेतृत्व” में कोरोना पर जीत हासिल कर ली गई है, यह वायरस दबे पांव दोबारा सर्वत्र पसरता गया। इस बार पिछली बार से भी अधिक मारक, अधिक रहस्यमय…जिसके कहर से क्या बच्चे, क्या नौजवान, क्या धनी, क्या गरीब, क्या शहरी, क्या ग्रामीण… कोई नहीं बच पा रहा।जब यूरोप-अमेरिका में संक्रमण की दूसरी लहर मौत का तांडव मचा रही थी और विशेषज्ञ भारत में भी इस ‘सेकंड वेभ’ के आने की आशंकाएं जता रहे थे, उनके नेतृत्व में नीति आयोग सार्वजनिक क्षेत्र की उन इकाइयों की पहचान करने में व्यस्त था जिन्हें बेच कर उनकी सरकार अरबों डॉलर हासिल कर ले। इन डॉलरों की सख्त जरूरत भी है क्योंकि आर्थिक कुप्रबंधन ने देश में बेरोजगारी और मंदी का रिकार्ड कायम कर दिया है।कोरोना की पहली लहर का मुकाबला भी जिस अफरातफरी के साथ किया गया था वह अब एक इतिहास है। आने वाले समय में किताबें लिखी जाएंगी, डॉक्यूमेंट्रीज बनाई जाएंगी कि किस तरह भारत में सत्तासीन लोगों के अविवेकी फैसलों ने लाखों मजदूरों और उनके बाल-बच्चों को सैकड़ों किलोमीटर पैदल पलायन को विवश कर दिया था, किस तरह आकस्मिक आर्थिक संकट से घिर कर न जाने कितने खाते-पीते परिवार भुखमरी से जूझने लगे थे, किस तरह अचानक से नौकरी छिन जाने से हजारों-लाखों लोग बेरोजगारी और मनोरोग के शिकार हो गए थे।जब संजीदगी के साथ महामारी की दूसरी लहर से मुकाबले की तैयारी करनी थी, वे उन सब में व्यस्त हो गए जिनमें उन्हें महारत हासिल है। मसलन…चुनावी रैलियां, भाषण, रोड शो आदि-आदि। पता नहीं, कुंभ के आयोजन की अनुमति देने के पहले सरकारों ने विशेषज्ञों से विचार-विमर्श किया था या नहीं। जरूरत भी क्या थी, जब उनके मुख्यमंत्री तक ने जाहिलों की तरह ऐसे वक्तव्य देने में किंचित भी शर्म महसूस नहीं की, “गंगाजल कोरोना से रक्षा करेगा।”आस्थाएं और उनका प्रचार वोट दिलवा सकती हैं, लेकिन महामारी से बचाव के लिये तो वैज्ञानिक सोच ही काम आएगी। शायद, कुंभ के आयोजन से वोटों की राजनीति में कुछ फायदा हुआ हो, लेकिन वैज्ञानिक नजरिये की उपेक्षा कर कुंभ में लाखों लोगों की भागीदारी ने कोरोना संक्रमण को किस खतरनाक तरीके से व्यापक बनाया, यह अब सामने है।वे चुनाव जीतने में कितने माहिर हैं, यह देश देख चुका है। वाकई…इस मायने में शानदार उपलब्धियां हैं उनकी। लेकिन, लोकतंत्र में चुनाव जीतने के बाद लोगों की जिंदगियों का खेवनहार बनना होता है। इस मायने में वे कितने फिसड्डी साबित हुए, यह भी देश देख रहा है।क्या फर्क पड़ता है कि वे दोबारा जीत गए। दोबारा चुनाव ही तो जीते। बेरोजगारी पर उन्हें जीत हासिल होती, जिसका भरोसा उन्होंने देश को दिया था, तो कोई बात होती, महामारी से वे देश की इतनी दुर्दशा नहीं होने देते, तो कोई बात होती।आज जितनी मौतें हो रही हैं कोरोना संक्रमितों की, उनमें अधिकतर ढांचागत कमी या लापरवाही के शिकार हो रहे हैं। आप साल भर में बहुत अधिक नहीं कर सकते, लेकिन इतना तो कर ही सकते थे कि आज ऑक्सीजन को लेकर इतना हाहाकार नहीं होता, बेड की इतनी मारामारी नहीं होती।लेकिन, वे और उनके सिपहसालार लोग इतने मुतमईन थे कि पिछले साल कोरोना संकट में तदर्थ रूप से बहाल किये गए मेडिकल सपोर्ट स्टाफ तक की इसी जनवरी-फरवरी में छुट्टी कर दी उन्होंने। पता नहीं, कोरोना से इतनी निश्चिंतता कैसे हासिल हो गई थी उन्हें।उनकी निश्चिंतता ने देश के आमजनों में भयानक अनिश्चितता पैदा कर दी है। हर रोज, हर तरफ से लोगों को प्रियजनों की आकस्मिक मौत की मनहूस और डरावनी खबरें आ रही हैं।वे आज भी हेडलाइन्स मैनेज कर रहे हैं। जाहिर है, इसमें उन्हें महारत हासिल है। मीडिया में भरे पड़े उनके चारणों की उनके प्रति निष्ठाएं अभिभूत करने वाली हैं। वे जब तक सत्ता में हैं, तब तक ये निष्ठाएं कायम रहेंगी, फिर सत्ता बदलेगी तो निष्ठाएं भी बदलेंगी ही। फिलहाल तो वे जैसा चाह रहे, वैसी हेडलाइन बन रही है…”ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं, जांच की पूरी सुविधा है, आदि आदि।”कोरोना तुरन्त मारता है, दो-चार दिनों में आदमी मरने की हालत में पहुंच सकता है। बेरोजगारी जल्दी मारती नहीं, घुट-घुट कर आदमी मरता है। वे न कोरोना से मुकाबले में खुद को तत्पर शासक साबित कर सके, न बेरोजगारी से मुकाबले में कर सके।वे बंगाल चुनाव में अपनी महारत जरूर साबित करेंगे। सरकार न भी बना सके तब भी, पिछली बार की तीन सीटों से बहुत बहुत आगे वे जरूर बढ़ेंगे। इसमें वे और उनके सिपहसालार बहुत कुशल हैं।लेकिन, जीवन से जुड़े सवालों, जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों में उनका फिसड्डी साबित होना इस देश के लिये बहुत भारी पड़ा है। कोरोना तो एक प्रत्यक्ष उदाहरण मात्र है, क्योंकि इसकी त्रासदी सर्वत्र नजर आ रही है। शासन संबंधी उनकी अयोग्यता और उनका अहंकार इस देश के आम लोगों के जीवन पर कितना भारी पड़ा है, इसका आकलन समय करेगा।