सियाराम मिश्रा, वरीय संपादक /बंगाल की चुनाव में देश विदेश की नजर थी । हालांकि जिस तरह पूरे चुनाव की सफर रहा उसमें बीजेपी ने अपनी भूमिका को पूरा किया ,उनकी जितनी सीट मिली वो बंगाल के लिए एक नई दिशा और दशा दे सकती है ।दूसरी तरह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बात करें तो देश मे राजनीति करने वाले नेताओं को संदेश दिया है । जिस तरह ममता बनर्जी पैदल चलकर जनता मालिक से मिलती है ,और विकास की रेखा खिंची है ,जिसके कारक एक तबका जो महिला वोटर है । वो उनके साथ हमेशा खड़ा है ।देश की पहली महिला मुख्यमंत्री चेहरा थी जिन्होंने वीलचेयर पर बैठकर सभा से लेकर रैली की और अकेले ही सत्ता को अपना लिया ।जुलाई, 1993 में उनके युवा कांग्रेस अध्यक्ष रहते राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग अभियान के दौरान पुलिस की गोली से 13 युवक मारे गए थे.उस अभियान के दौरान ममता को भी चोटें आई थीं. लेकिन उसके पहले उसी साल सात जनवरी को नदिया ज़िले में एक मूक-बधिर बलात्कार पीड़िता के साथ राइटर्स बिल्डिंग जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योतममता बनर्जी का पूरा राजनीतिक करियर ऐसी कई घटनाओं से भरा पड़ा है. चाहे वर्ष 1990 में सीपीएम के एक कार्यकर्ता लालू आलम की ओर से हुआ जानलेवा हमला हो या फिर सिंगूर में टाटा परियोजना के लिए ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ 26 दिनों का अनशन..16 अगस्त 1990 को कांग्रेस की अपील पर बंगाल बंद के दौरान लालू आलम ने हाजरा मोड़ पर ममता के सिर पर लाठी से वार किया था. इससे उनकी खोपड़ी चटक गई थी लेकिन सिर पर पट्टी बंधवा कर वे दोबारा सड़क पर उतर पड़ीं.आज भी लोग मानते है कि “ममता देश की सबसे मज़बूत इरादे वाली महिला नेताओं में से एक हैं.”देश में किसी और महिला नेता की गतिविधियों के प्रति लोगों में उतनी दिलचस्पी नहीं रहती, जितनी दीदी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी के प्रति रहती है. यह उनके जादुई व्यक्तित्व का ही करिश्मा है.””सादगी ममता के जीवन का हिस्सा रही है. सफ़ेद सूती साड़ी और हवाई चप्पल से उनका नाता कभी नहीं टूटा. चाहे वो केंद्र में मंत्री रही हों या महज सांसद.”’मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनके पहनावे या रहन-सहन में कोई अंतर नहीं आया है. निजी या सार्वजनिक जीवन में उनके रहन-सहन और आचरण पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता.”ममता की सबसे बड़ी ख़ासियत यह रही है कि वो ज़मीन से जुड़ी नेता हैं. चाहे सिंगूर में किसानों के समर्थन में धरना और आमरण अनशन का मामला हो या फिर नंदीग्राम में पुलिस की गोलियों के शिकार लोगों के हक़ की लड़ाई का, ममता ने हमेशा मोर्चे पर रह कर लड़ाई की.मता बनर्जी में बार-बार गिरकर उठने का जो माद्दा है, वो राजनीति के मौजूदा दौर में किसी नेता में देखने को नहीं मिलता. हारने से घबराने की बजाय वो दोगुनी ताक़त और उत्साह से अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ती हैं.”मुखर्जी इसके लिए साल 2006 के विधानसभा चुनावों की मिसाल देते हैं. उस समय मीडिया से लेकर राजनीतिक हलकों तक में मान लिया गया था कि इस बार ममता की पार्टी का सत्ता में आना तय है.खु़द ममता ने मेदिनीपुर में पत्रकारों को अपनी दो अंगुलियों से विजय का निशान दिखाते हुए कहा था कि अब अगली मुलाक़ात राइटर्स बिल्डिंग में होगी लेकिन रैलियों में भारी भीड़ उमड़ने की बजाय पार्टी को कामयाबी नहीं मिली.ममता ने तब लेफ्ट पर ‘साइंटिफिक रिगिंग’ का आरोप लगाया था लेकिन उसी दिन से वे 2011 चुनावों की तैयारियों में जुट गईं. कुछ समय बाद नंदीग्राम और सिंगूर में ज़मीन अधिग्रहण के सरकार के फ़ैसलों ने उनके हाथों में एक बड़ा मुद्दा दे दिया.ममता ने तब लेफ्ट पर ‘साइंटिफिक रिगिंग’ का आरोप लगाया था लेकिन उसी दिन से वे 2011 चुनावों की तैयारियों में जुट गईं. कुछ समय बाद नंदीग्राम और सिंगूर में ज़मीन अधिग्रहण के सरकार के फ़ैसलों ने उनके हाथों में एक बड़ा मुद्दा दे दिया.साल 2004 के लोकसभा चुनावों में ममता टीएमसी के अकेली सांसद थीं लेकिन 2009 में उन्होंने पार्टी के सीटों की तादाद 19 तक पहुँचा दी.”ममता बनर्जी के कट्टर दुश्मन भी इस बात को मानते हैं कि कांग्रेस में अहम की लड़ाई और सिद्धांतों पर टकराव के बाद अलग होकर नई पार्टी बनाने और महज 13 साल के भीतर ही राज्य में मजबूती से जड़ें जमाए बैठे लेफ़्ट की सरकार को शिकस्त देकर सड़क से सचिवालय तक पहुँचाने जैसा करिश्मा ममता ने दिखाया है, उसकी मिसाल कम ही मिलती है.प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में ममता को पराजित करने वाले सोमेन मित्रा ने भी बाद में ममता का लोहा माना था. वो बाद में काँग्रेस छोड़ कर टीएमसी में आ गए थे और सांसद भी बने.लंबे अरसे तक टीएमसी कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार पुलकेश घोष मानते हैं कि ज़िद और जुझारूपन ममता के ख़ून में रहा है.वो कहते हैं, ”यह जुझारूपन उनको अपने शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी पिता प्रमिलेश्वर बनर्जी से विरासत में मिला है. अपने इन गुणों की बदौलत ही वर्ष 1998 में कांग्रेस से नाता तोड़कर तृणमूल कांग्रेस की स्थापना कर महज वर्षों के भीतर राज्य में दशकों से जमी लेफ़्ट फ्रंट की सरकार को उखाड़ कर उन्होंने अपनी पार्टी को सत्ता में पहुंचाया था.””साल 2016 के विधानसभा चुनावों में अगर तृणमूल कांग्रेस की सीटें भी बढ़ीं और वोट भी, तो यह ममता का करिश्मा ही था. सिंगूर और नंदीग्राम में ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर किए गए आंदोलनों ने एक जुझारू नेता के तौर पर ममता की छवि को तो निखारा ही. टीएमसी के सत्ता के केंद्र राइटर्स बिल्डिंग तक पहुँचने का रास्ता भी खोला था.”ममता बनर्जी का राजनीतिक सफ़र 21 साल की उम्र में साल 1976 में महिला काँग्रेस महासचिव पद से शुरू हुआ था.साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में पहली बार मैदान में उतरी ममता ने माकपा के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को पटखनी देते हुए धमाके के साथ अपनी संसदीय पारी शुरू की थी.राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उनको युवा काँग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया.वो कांग्रेस विरोधी लहर में 1989 का लोकसभा चुनाव हार गईं लेकिन इससे हताश हुए बगैर अपना पूरा ध्यान उन्होंने बंगाल की राजनीति पर केंद्रित कर लिया.साल 1991 के चुनाव में वे लोकसभा के लिए दोबारा चुनी गईं. उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.उस साल चुनाव जीतने के बाद पीवी नरसिंह राव मंत्रिमंडल में उन्हें युवा कल्याण और खेल मंत्रालय का ज़िम्मा दिया गया. लेकिन केंद्र में महज दो साल तक मंत्री रहने के बाद ममता ने केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता की ब्रिगेड परेड ग्राउंड में एक विशाल रैली का आयोजन किया और मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया.