वरीय संपादक -जितेन्द्र कुमार सिन्हा, स्वतंत्र भारत का संविधान तैयार करते समय डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने यह कल्पना भी की थी कि पिछड़े वर्ग को अन्य वर्गों की बराबरी में लाने की भावना का देश के राजनेता धजियाँ उड़ाकर सत्ता प्राप्ति का माध्यम आरक्षण को बना लेंगे। डॉक्टर अम्बेडकर ने संविधान में देश के पिछड़े वर्ग को अन्य वर्गों की बराबरी में लाने के लिए सिर्फ पन्द्रह वर्षों की समय सीमा लागू की थी। इसका अर्थ यह हुआ कि 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए संविधान में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ 26 जनवरी, 1965 तक के लिए ही किया गया था। ऐसी स्थिति में 26 जनवरी, 1965 के बाद देश से संवैधानिक रूप से आरक्षण का प्रावधान समाप्त हो जाना चाहिए था। हमारे देश के राजनेताओं ने तो इतनी होशियारी दिखाई कि आरक्षण को संवैधानिक रूप से समाप्त करने के बजाए, अपनी-अपनी सरकारों को चलते रहने के लिए डॉक्टर अम्बेडकर द्वारा बनाये गये आरक्षण प्रावधानों को पार्टी की बहुमत के बल पर आरक्षण की समय सीमा बढ़ाते गये। आजादी के कुछ ही वर्षों बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण सत्ता प्राप्ति का मुख्य माध्यम बन गया और आरक्षण वोट की राजनीति के दायरे में आ गया। अब तो स्थिति यह हो गई है कि राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की स्पर्धा शुरू हो गई है। देखा जाय तो अब मराठों ने भी महाराष्ट्र में आरक्षण देने की माँग कर रहे है, और महाराष्ट्र में मराठों को आरक्षण देने का भरसक प्रयास भी किया जा रहा है।अब तो राज्यों में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि आरक्षण की सीमा को लेकर मची राजनीति खींचतान से सर्वोच्च न्यायालय भी परेशान है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा सहनी मामले में 29 जनवरी,1992 को फैसला दिया था कि आरक्षण की सीमा पचास फिसदी तक ही रखी जाय। लेकिन सत्ता के लोभी की राजनीति दलों ने आरक्षण संबंधी करीबन तीन दशक पूर्व के इस फैसले को पुराना व मौजूदा स्थिति के अनुकूल नही मानते हुए, आरक्षण सीमा बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में मराठा आरक्षण को लेकर बहस जारी है।केन्द्र सरकार आरक्षण संबंधित मसलों पर विचार के लिए दो बार पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर चुकी है। पहला आयोग 1953 में काका केलकर की अध्यक्ष में गठित किया गया था। यह आयोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े जातियों की संख्या 2399 बताया था। केन्द्र सरकार ने 1961 में इस आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। बाद में दूसरा आयोग का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल की अध्यक्षता में 1979 में किया गया था, इस आयोग ने लगभग 3743 जातियों की पहचान कर के उन्हें पिछड़ा घोषित किया था और इस आयोग ने ओबीसी के लिए अलग से 26 फिसदी कोटा तय किया था। किन्तु इस आयोग की सिफारिशों पर तात्कालिक सरकारों ने कोई विशेष ध्यान नही दिया। जबकि मंडल आयोग सबसे अधिक चर्चाओं में भी रहा, इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय का इंदिरा सहनी मामले का फैसला सर्वाधिक सर्वमान्य रहा। यह फैसला आज भी देश में लागू है।वर्तमान में सत्ताभोगी राजनीतिक वंशजों में संतुष्ट नही है और इस फैसले को मोजुदा हालतों में गया गुजरा (आउट ऑफ डेट) बताकर सर्वोच्च न्यायालय से आरक्षण की इस सीमा को बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। अब यहाँ एक गम्भीर सवाल यह उठता है कि आरक्षण के माध्यम से सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का प्रयास करने वाले सामान्य वर्ग के राजनेताओं ने कभी देश के उस मतदाताओं की चिंता नहीं की, जो आरक्षण की सीमा से बाहर है (अर्थात् सामान्य वर्ग ( जेनरल कोटे) में है)।अब देश की गंभीर समस्या बेरोजगारी हो गई है और इस समस्या का भी हमारे राजनेता चुनाव के समय लाखों या करोड़ों में नौकरी देने की झाँसा देकर सामान्य वर्ग के मतदाताओं का वोट प्राप्त करने का प्रयास करते है। देश का आरक्षण कोटा के लोग अब इसी कारण से अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे है। इसका मूल कारण गैर आरक्षित वर्ग के होने के कारण न तो उनके पढ़े लिखे होनहार बच्चों को नौकरी मिल पा रही है और न ही इस बढ़ती महंगाई के दौर में वह अपना जीवन यापन ठीक से कर पा रहे हैं। दुखद बात यह है कि आज के राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की सत्ता प्राप्ति की भूख भूखे-नंगे गैर आरक्षित वर्ग के सदस्यों से भी अधिक बढ़ती जा रही है। देश की इस स्थिति का सर्वोच्च न्यायालय को भी भान है, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी आरक्षण को लेकर गम्भीर चिंता व्यक्त कर रही है।