पटना, २२ अगस्त। ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ के विषय में पूरे देश में व्याप्त भ्रांत-धारणा दूर होनी चाहिए। बहुसंख्यक लोग दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में लेते हैं, जो उचित नहीं है। जिस प्रकार किसी राष्ट्र का अपना ‘राष्ट्रीय ध्वज’ है, ‘राष्ट्रीय चिन्ह’ है, राष्ट्रीय पशु, पक्षी आदि हैं,उसी प्रकार उसकी अपनी एक भाषा भी होती है, जिसे उस देश की ‘राष्ट्र-भाषा’ कहते है। ‘राज भाषा’ का अर्थ स्वतः स्पष्ट है कि वह देश के राजकीय काम-काज की भाषा है। राज-काज की भाषाएँ अनेक हो सकती हैं, पर ‘राष्ट्रभाषा’ एक ही हो सकती है। यह समस्त भारतीय जन को जानना चाहिए कि भारत की ‘राष्ट्रभाषा’ नही है। हिन्दी देश की राज-काज की भाषा, अर्थात ‘राजभाषा’ घोषित होने के बाद भी, आजतक वैधानिक रूप से राजभाषा नहीं बन पायी है। अभी भी ‘अंग्रेज़ी’ ही भारत की औपचारिक ‘राजभाषा’ है।यह बातें रविवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, भारतीय भाषा साहित्य समागम द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘नया भाषा भारती संवाद’ के २२वें वर्ष के प्रथमांक का लोकार्पण करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि संविधान सभा ने ‘राष्ट्रभाषा’ पर निर्णय न लेकर एक ऐतिहासिक भूल की, जिसका निराकरण शीघ्र किया जाना चाहिए। राष्ट्रभाषा के स्थान पर संविधान में राजकाज की भाषाओं पर विमर्श किया गया। राजकाज की भाषाओं की एक लम्बी सूची बनाई गई, जिनमे हिन्दी भी सम्मिलित की गई। १४ सितम्बर, १९४९ को संविधान सभा ने, भारत सरकार की कामकाज की भाषा ‘हिन्दी’ बनाने का निर्णय तो लिया, किंतु उस प्रस्ताव में दो ‘परंतु’जोड़कर उसके समक्ष ऐसी बाधाएँ भी खड़ी कर दी कि आजतक हिन्दी देश की राजभाषा भी न हो पायी। भारत सरकार को इस संबंध में अब शीघ्र ही ठोस निर्णय लेना चाहिए।समारोह के विशिष्ट अतिथि प्रो बासुकीनाथ झा ने कहा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नायन में नया भाषा भारती संवाद का अत्यंत महनीय योगदान है। साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास में ही नहीं बल्कि साहित्य के इतिहास के निर्माण में भी इस पत्रिका का अवदान स्मरणीय माना जाता रहेगा। समाज का दायित्व है कि वह ऐसी पत्रिकाओं के संपोषण में आगे आए।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन अत्यंत दुष्कर और कष्टकर है। इसके लिए प्रकाशक-संपादक को अपना खून जलाना पड़ता है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक नृपेंद्रनाथ गुप्त, जो अपनी अस्वस्थता के कारण इस उत्सव में सम्मिलित नही हो सके हैं, दधीचि की भाँति अपनी अस्थियाँ गला रहे हैं।वरिष्ठ कवि अमियनाथ चटर्जी, मशहूर शायर रमेश कँवल, डा मनोज कुमार गोवर्धनपुरी, अम्बरीष कांत, कृष्ण रंजन सिंह, डा मनोज कुमार, कथाकार चितरंजन भारती, प्रो सुशील कुमार झा, कमलनयन श्रीवास्तव, राज किशोर झा आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अतिथियों का स्वागत पत्रिका के सह-संपादक बाँके बिहारी साव ने, मंच का संचालन सुनील कुमार दूबे ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रो सुखित वर्मा ने किया।इस अवसर पर कवि अश्विनी कुमार कविराज, कृष्ण मुरारी, चंद्रशेखर आज़ाद, अमन वर्मा, राज आनंद, मोहित कुमार, कुमारी मेनका आदि उपस्थित थे।