कौशलेन्द्र पाराशर की विशेष रिपोर्ट / तालिबान प्रवक्ता को ध्यान में रखते हुए भारत को तालिबान को लेकर एक मजबूत निर्णय की जरूरत है. अमेरिका के पीछे पीछे भारत को चलने की जरूरत नहीं है. अमेरिका और पाकिस्तान के सह के साथ ही तालिबान इतना मजबूत होते चला गया. और अफगानिस्तान की जनता को दोष देकर अमेरिका वहां से चलता बना. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश को मजबूत करने की जरूरत है. सभी राज्यों से बात कर समग्र सुरक्षा के नीति प्रदेश को विचार करना होगा. तालिबान से ज्यादा खतरा भारत को चीन और पाकिस्तान से है. और दोनों तालिबान के समर्थक हैं. भारत को खुद मजबूत करने की जरूरत है. तालिबान से तो भारतीय सेना निपटने में सक्षम है लेकिन चीन के दोगली नीति और भारत के पाकिस्तान पर स्पष्ट नीति के कारण दोनों इसका फायदा उठा रहे हैं.दूसरे तरफ 2016 में राष्ट्रपति पद के चुनाव के दौरान उनके कैंपेन में वादा किया गया था कि अमेरिकी सैनिक वापस आएंगे.अफगानिस्तान में अमेरिकी पैसा बर्बाद नहीं होगा. साल 2020 में अगले चुनाव से एक साल पहले, उनके प्रशासन ने प्रयास तेज कर दिए. नतीजतन अमेरिका ने तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू की. अमेरिका ने ना केवल दोहा में तालिबान के राजनीतिक नेतृत्व के साथ सीधी बातचीत शुरू की बल्कि बातचीत के महत्वपूर्ण मौकों पर तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी के नेतृत्व वाली अफगानिस्तान सरकार को उससे बाहर रखा.काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद अशरफ गनी के भाई हशमत गनी ने इसी तरह का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, ‘हम हमेशा से दूसरे लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं और अफगान आपस में लड़ रहे थे. ट्रंप ने सीधे तालिबान के साथ समझौता किया, सरकार को किनारे कर दिया और अब वे चाहते हैं कि अफगान आपस में लड़ें.’अमेरिका द्वारा यह सौदा तालिबान को वैधता देने की दिशा में पहला कदम था. 29 फरवरी 2020 को अमेरिका और तालिबान ने दोहा समझौता किया हालांकि अमेरिका ने अपने समझौते में तालिबान को ‘मान्यता नहीं’ दी. जुलाई में जब भारतीय अधिकारियों ने यह स्वीकार करना शुरू किया कि वे दोहा में तालिबान के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के संपर्क में आने की कोशिश कर रहे थे, एक सूत्र से पूछा कि क्या कभी इस बात की चिंता थी कि तालिबान से बातचीत पर उन्हें वैधता दी जाएगी? तब उन्होंने कहा था कि अगर अमेरिका ने उनके साथ कोई प्रभावी समझौता किया होता तो वैधता का सवाल नहीं आता.चीन ने तालिबान नेतृत्व के साथ खुलकर बातचीत की है. जब तालिबान निर्वाचित गनी सरकार और अफगान सेना से लड़ रहे थे उसी दौरान चीन ने तालिबान के राजनीतिक नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर से वांग यी की मुलाकात की तस्वीर और बयान जारी किया. चीनी विदेश मंत्रालय ने बैठक के बाद कहा था कि, ‘अफगानिस्तान अफगान लोगों का है, और इसका भविष्य उनके ही लोगों के हाथों में होना चाहिए.’ चीन ने कहा, ‘अफगान लोगों के पास अब राष्ट्रीय स्थिरता और विकास हासिल करने का एक महत्वपूर्ण अवसर है.’ यह बयान, 28 जुलाई, तालिबान द्वारा गनी सरकार को गिराने से एक हफ्ते पहले आया. चीन ने अपने बयान के जरिए पहले ही संकेत दे दिया था कि वे तालिबान को वैध मानते हैं.चीन और रूस के दूतावास खुले रहे.साल 1996 में तालिबान की पहली सरकार के वक्त संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर भ्रम के बावजूद पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने पिछले तालिबानी शासन को मान्यता दी थी. इस बीच तालिबान को वैध ठहराने के बाद अमेरिका ने भी मान्यता का सवाल खड़ा कर दिया गया है. एक इंटरव्यू में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा ‘भविष्य की अफगान सरकार अपने लोगों के मूल अधिकारों को कायम रखे, आतंकवादियों को पनाह ना दे, ऐसी सरकार के साथ हम काम कर सकते हैं और मान्यता दे सकते हैं.’ इसलिए जब कतर में भारतीय राजदूत दीपक मित्तल ने मंगलवार को दोहा में तालिबान के राजनीतिक नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई से मुलाकात की तो सरकार ने तुरंत बैठक की जानकारी जारी की.सूत्रों ने कहा कि इसे किसी भी तरह से भारत द्वारा तालिबान को मान्यता देने के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. तालिबान ने दोहा में भारतीय राजदूत के साथ बैठक की मांग क्यों की तो उन्होंने कहा कि वह अटकलें नहीं लगाना चाहते. उन्होंने आगे कहा कि ऐसा माना जा रहा है कि अफगानी समूह उन देशों तक पहुंच रहा है जो इस क्षेत्र में रुचि रखते हैं. शायद एक वजह और भी है कि तालिबान भी अधिक से अधिक वैधता मांग रहा है.