सोमा राजहंस, कंसल्टिंग एडिटर/कोविड टीकाकरण के संदर्भ में पूर्वोत्तर राज्य के जनजतीय गांवों ने बेहतर सफलता हासिल की है। दुर्गम पहाड़ी और समुद्र तल से 14000 फीट की ऊंचाई पर स्थित गांवों में स्वास्थ्य कर्मी टीका लगाने के पहुंचे। ऐसे इलाके जहां से वैक्सीनेशन के लिए लोग नहीं निकल सकते वहां कैंप लगाकर सभी को टीका दिया गया। अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, असम, मणिपुर, मिजोरम और सिक्किम के जनजातीय बहुल इलाकों में टीकाकरण की गति संतोषजनक पाई गई है। जहां स्थानीय समुदायों की मदद से स्वास्थ्यकर्मी घर घर में टीका पहुंचाने की मुहिम में जुटे हुए हैं।अरूणाचल प्रदेश के तवांग जिले से 35 किलोमीटर दूर तिब्बत बॉर्डर पर स्थित भारत के सबसे आखिरी गांव मागो में दो दिवसीय कोविड टीकाकरण कैंप लगाया गया। प्रदेश का यह वह गांव हैं जहां ज्यादातर स्थानीय लोग अपने पशुओं को चराने के लिए घर से दूर तिब्बत बॉर्डर की तरफ निकल जाते हैं। इस समूह मे टीकाकरण करना सबसे चुनौतीपूर्ण था, कई बार पशुओं के साथ लोग देर शाम घर वापस आते हैं या फिर अगली सुबह वापस आते हैं। कैंप के अतिरिक्त डीसी जांग श्री आरडी थांगॉन ने बताया कि चरवाहों के रास्ते में आने वाली जगह चुनांग, लूनार, चिरग्यप आदि को चिन्हित कर यहां कैंप लगाए गए, जिससे घर से बाहर रहने वालों को भी कोविड का वैक्सीन दिया जा सके। मागो गांव से एक घंटे की दूरी पर स्थित जेथांग के याया तासोगाई में भी कैंप लगाकर कोविड वैक्सीनेशन कैंप लगाया गया। जेथांग और मागो गांव का रास्ता दुर्गम और पथरीला है,जहां वैक्सीन लगाने के लिए टीका कर्मी कंधे पर वैक्सीन बॉक्स लेकर घंटों पैदल चले। थवांग जिले से 14000 फीट ऊंचाई पर स्थित गांव लंगथांग गांव में लगाए गए। कैंप में वैक्सीन लगने से 16 चरवाहे छूट गए, जिनके लिए बाद में विशेष कैंप लगाया गया। अरूणाचल प्रदेश के अलावा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यो में भी जनजातीय समुदाय में टीकाकरण की गति संतोषजनक है। नागालैंड में पांच लाख लोगों को कोविड का वैक्सीन दिया जा चुका है।मानसून की बारिश शुरू होने के साथ ही यहां टीकाकरण की चुनौतियां भी बढ़ गईं, मूसलाधार बारिश के बीच स्वास्थ्य कर्मियों ने वैक्सीन की जीरो वेस्टेज के साथ टीकाकरण को अंजाम दिया। नागालैंड के दीमापुर में 185652 लोगों का कोविड टीकाकरण हो चुका है, इसमें 163544 लोगों को कोविड की पहली डोज और 22108 को दूसरी डोज दी जा चुकी है। मणिपुर के उखरूल, चांदेल और सेनापाति जिलों 40 फीसदी आदिवासी बहुल जनजातीय इलाके माने जाते हैं, यहां की एक बड़ी आबादी का टीकाकरण करने में स्वास्थ्यकर्मियों ने सफलता हासिल कर ली है। जिसमें वॉकइन और ऑनलाइन पंजीकरण कराने वाले लोगों की भी संख्या भी अधिक है। मिजोरम और मेघालय के चंफाल और वेस्ट जेंथिया हिल्स पर कई हजार फीट ऊंचाई पर वैक्सीन को पहुंचाया गया। त्रिपुरा और सिक्किम के जनजतीय समुदायों में शुरूआत में टीकाकरण के लिए लोगों को मनाना काफी मुश्किल था, यहां एक विशेष तरह की कुल देवी या देवता की पूजा के जरिए ही समाज के व्यवहार और परंपराओं को निभाया जाता है, जिसमें सूई जैसी किसी भी चीज को शरीर पर लगवाना प्रतिबंधित माना गया। टीकाकरण अभियान की टीम ने इस भ्रम को दूर किया और बताया कि वैक्सीन लगवाने से किसी तरह के समुदाय के नियमों की अवहेलना नहीं होगी। इसके बाद क्षेत्र में टीकाकरण को लेकर लोगों में गजब का उत्साह देखने को मिला।वहीं, मध्य प्रदेश के जनजातीय इलाकों की बात करें, तो एक बड़ी आबादी में आदिवासी और जनजातीय समाज की बहुलता है। जिनकी आजीविका जंगलों और जड़ीबूटियों पर आश्रित है। परंपरागत लोकाचार से जुड़े समुदाय के लोगों को वैक्सीन के लिए प्रोत्साहित करना खासा चुनौतीपूर्ण रहा। राज्य और जिला स्तरीय स्वास्थ्य टीम ने खाटला और तड़वी के माध्यम से टीकाकरण को प्रसारित किया। इन बैठकों में डीएम, एसईओ और डीआईओ, यूनिसेफ और स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि भी शामिल हुए और टीकाकरण से जुड़ी भ्रांतियों को दूर किया।स्थानीय और प्रशासनिक स्तर पर चलाए गए विशेष टीकाकरण अभियान के जरिए मध्यप्रदेश में 17 जून तक एक करोड़ पचास लाख लोगों को कोरोना का वैक्सीन दिया गया। कोरोना वैक्सीन के लिए जनजातीय और आदिवासी समाज में विश्वास दिलाना आसान नहीं था। वैक्सीन के ड्राई रन में यह बात समझ ली गई थी तकनीकी सहायता से वैक्सीन को लगवाना आसान नहीं होगा। ग्राउंड जीरो पर जाकर लोगों को उनकी ही भाषा में और उनके ही समुदाय के द्वारा वैक्सीन के बारे में बताना होगा। मध्यप्रदेश के राज्य टीकाकरण अधिकारी डॉ. संतोष शुक्ला ने बताया मध्यप्रदेश के 89 जनजातीय ब्लॉक में कोरोना वैक्सीन के लिए लोगों को राजी करना लगभग असंभव था। यहां बीमारी आदि के लिए लोग जड़ीबूटियों का प्रयोग करते हैं।इस समुदाय में एक अहम धारण यह है कि बीमार होने पर ही सूई लगती है, इससे पहले पोलियो ड्राप दिया गया लेकिन कोविड में सूई लगवाने के लिए कोई राजी नहीं हुआ, शुरूआती दिनों में स्टॉफ को बिना टीकाकरण के वापस आना पड़ा। इसके बाद जिला स्तरीय योजना बनाई गई, जिसमें स्थानीय लोगों में प्रचलित खाटला और तड़वी बैठके की गईं, इन बैठकों में सभी छोटे बड़े स्वास्थ्य अधिकारियों से हिस्सा लिया। शहडोल की एक पंचायत में शत प्रतिशत टीकाकरण किया जा चुका है। डॉ. संतोष ने बताया कि जिस समय राज्य में टीकाकरण शुरू हुआ, उस समय संक्रमण दर भी अधिक थी, इससे लोगों में भ्रम बन गया कि वैक्सीन से संक्रमण हो रहा है। सामुदायिक स्तर पर भ्रांतियों को दूर करने के लिए कम्युनिटी रेडियो वान्या और माइकिंग की सहायता ली गई। पहली बार राज्य में वैक्सीनेशन ऑन व्हील ड्राइव शुरू किया गया, जिसमें कोई भी वैक्सीन ले सकता है।झाबुआ के जिला टीकाकरण अधिकारी डॉ. राहुल गनावा ने बताया जिला स्तर पर “किल कोरोना” की टीम बनाई गई, पंचायत स्तर पर किए गए प्रयास का सफल परिणाम मिला, झाबुआ और शहडोल जिले में खाटला और तड़वी सालों से प्रचलित है। समाज के किसी अहम फैसले को लेने के लिए समाज में तड़वी प्रतिनिधि की बात सभी सुनते है। यह खांप पंचायत जैसे प्रक्रिया होती है। इसके साथ ही खाटला यानि खाट बैठके आयोजित की जाती है, जिसमें पंचों की सहमति से फैसले को समुदाय के लोग स्वीकार करते हैं। अकेले झाबुआ जिले में तीस प्रतिशत टीकाकरण हो चुका है, आठ आबादी वाले जिले में 1,10,266 को कोविड वैक्सीन लगाया जा चुका है।राज्य के शहडोल जिले के जिलाधिकारी डॉ. सत्येन्द्र सिंह ने बताया कि जिला स्तर पर टीकाकरण को गति देने के लिए कुछ अधिकार दिए गए, हमने इस क्रम में पिंक कार्ड की शुरुआत की, जिन लोगों ने कोविड की पहली डोज लगवाई उन्हें पिंक कार्ड दिया गया। जिसका प्रयोग लोगों ने आवाजाही के लिए करना शुरू किया, अब सबको लगने लगा कि पिंक कार्ड बिना घर से बाहर नहीं निकल पाएगें, इसके बाद धीरे धीरे बड़ी संख्या में लोग वैक्सीन के लिए आने लगे। कंट्रोल रूम के जरिए टीकाकरण से जुड़ी समस्याओं को सुना गया।