पटना, २१ नवम्बर। छंद पद्य रचनाओं की आत्मा है। छंदोबद्ध रचनाएँ साहित्य को लम्बी आयु और स्थायित्व प्रदान करती हैं। संपूर्ण संस्कृत साहित्य छंदोबद्ध पद्य हैं। यदि वेद-वेदांग छंद में न होते तो आज हमारे समक्ष जीवित न होते। ये गेय होने के कारण एक पीढ़ी के कंठ से अगली पीढ़ी के कंठ तक होते हुए हम तक पहुँची। इसलिए काव्य में छंद का महत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि हम काव्य-साहित्य को बचाना चाहते हैं तो हमें छंद से जुड़ना होगा। यह बातें रविवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित ‘काव्य-कार्यशाला’ का उद्घाटन करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। कार्यशाला में मात्राओं की गणना, छंद-विधान, अलंकार और प्रतीकों के ज्ञान के साथ गीत-ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, कुंडलियाँ आदि के रचना-विधान से कवियों को अवगत कराया गया। छंद-शास्त्र के विद्वान आचार्य पं मार्कण्डेय शारदेय के साथ सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ भी एक शिक्षक की भूमिका में नज़र आए। पं शारदेय ने वार्णिक छंद और अलंकार, डा सुलभ ने मात्रिक छंद और उच्चारण-बोध तथा डा मेहता नगेंद्र ने हाइकु का प्रशिक्षण दिया।इस अवसर पर सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, प्रो बासुकी नाथ झा, डा मीना कुमारी परिहार, डा अर्चना त्रिपाठी, डा पंकज वासिनी, डा करुणा पीटर ‘कमल’, अभिलाषा कुमारी, कुमार अनुपम, जय प्रकाश पुजारी, सुनील कुमार दूबे, पूजा ऋतुराज, अरुण कुमार श्रीवास्तव, डा कुंदन कुमार, अशोक कुमार, डा नागेश्वर प्रसाद यादव, राज किशोर झा ‘वत्स’, डा संजू कुमारी, माधुरी भट्ट, डा पंकज कुमार सिंह, डा कैलाश ठाकुर, अर्जुन प्रसाद सिंह, सुरेंद्र चौधरी, चंद्रशेखर आज़ाद, रीना कुमारी आदि प्रतिभागियों ने प्रशिक्षण-शाला में भाग लिया।