प्रियंका भारद्वाज की रिपोर्ट , १० जनवरी/हिन्दी एक सरस, मधुर और वैज्ञानिक भाषा है। यह अपने गुणों और विज्ञान-सम्मत स्वरूप के कारण पूरे विश्व में विस्तृत हो रही है। किंतु पीड़ा और लज्जा का विषय है कि यह अपने ही देश में उपेक्षित है। जिसे देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, वह देश की सरकार की ‘राजकाज की भाषा’ भी नहीं बन पाई। जबकि १४ सितम्बर १९४९ को भारत की संविधान सभा ने यह निर्णय लिया था, जिसके कारण प्रत्येक १४ सितम्बर को भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यह भी एक प्रश्न ही है कि जब १४ सितम्बर के निर्णय का अनुपालन हुआ ही नहीं तो हम यह उत्सव मनाते ही क्यों हैं?यह बातें सोमवार को विश्व हिन्दी दिवस पर, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित एक संक्षिप्त समारोह की अध्यक्षता करते हुए,सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि यह देश के हर एक नागरिक के लिए वैश्विक लज्जा का विषय है कि भारत की सरकार की राजकीय भाषा, देश की कोई भाषा नहीं, बल्कि एक विदेशी भाषा है। ऐसा शर्मनाक उदाहरण संसार में कहीं नहीं है। यदि हम इस लज्जा का निवारण करना चाहते हैं तो शीघ्र हीं ‘हिन्दी’ को, राष्ट्र-ध्वज और राष्ट्र-चिन्ह की भाँति ‘राष्ट्र-भाषा’ घोषित की जानी चाहिए।अपने स्वागत संबोधन में सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, १० जनवरी १९७५ को, नागपुर (महाराष्ट्र) में आरंभ हुए प्रथम अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की स्मृति में, ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है, जिसकी अधिसूचना भारत सरकार ने वर्ष २००६ में निर्गत की थी। तब से यह संपूर्ण भारत वर्ष में तथा विदेशों भारतीय दूतावासों में उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। प्रकाशन के पूर्व ही चर्चा में आ चुकी पुस्तक ‘बिहार की गौरव गाथा’ के लेखक डा शशि भूषण सिंह, सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, बच्चा ठाकुर, सुनील कुमार दूबे, कुमार अनुपम, डा बी एन विश्वकर्मा, बाँके बिहारी साव, प्रो सुखित वर्मा, नेहाल कुमार सिंह, रामाशीष ठाकुर, चंद्रशेखर आज़ाद तथा अमन वर्मा ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए। मंच का संचालन कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’ ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।